पाञ्चजन्य का अर्थ पञ्चजनों यानी समाज के सभी वर्गों का उद्धार करने वाला है। वेदों में पाञ्चजन्य का पद इसी संदर्भ में लिया गया है
पाञ्चजन्य साप्ताहिक के संपादकों ने अपने वृत्तपत्र का नाम पाञ्चजन्य क्यों रखा, इसका ज्ञान मुझे नहीं है। पर इस नाम में कुछ बातें विशेष महत्व की हैं जिनकी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित होना आवश्यक है।
कुरुक्षेत्र पर पाञ्चजन्य
कौरव-पाण्डव युद्ध में कुरुक्षेत्र की भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पाञ्चजन्य शंख का महानाद किया था। इसके पश्चात युद्ध हुआ और धर्म की विजय और अधर्म की पराजय होकर विश्वशांति का प्रारम्भ हुआ।
पाञ्चजन्य के महानाद का यह महान जागतिक ध्येय है। पुराणों और इतिहास ग्रन्थों में हमें पाञ्चजन्य का वर्णन अधिक नहीं मिलता, परन्तु वेद संहिताओं मे इस पाञ्चजन्य का आशय कुछ और ही दिखता है, तथा इसके साथ जो राजनीति के संकेत दिखते हैं, वे तो आज भी माननीय और आदरणीय होने की संभावना है।
वेदों में पाञ्चजन्य
वेद में पाञ्चजन्य का वर्णन करने वाले कुल आठ ही मन्त्र हैं। पर इन आठ मंत्रों का दर्शन एक सौ दस ऋषियों ने किया था। अर्थात इतने ऋषियों के अनुभूत विचार इन मन्त्रों में है। पाञ्चजन्य का विषय इतने महत्व का है।
पाञ्चजन्य जनता ही है
यह मंत्र विश्वामित्र जी का है-
ससर्परी: अभरत् तूयं एभ्य:, ड्धि श्रव: पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु।
सा पाक्ष्या, नव्यं आयु: दधाना, यां मे पलस्तिंत-जमदग्नयो दवु। -ऋग्वेद 3/53/76
पञ्चजनों में जो कृषि करने वाली जनता है, उनमें जो धन, यश आदि है,- वह इनके लिए नि:संदेह आक्रमक घोषणा से प्राप्त हुआ है। वहां एक पक्ष की घोषणा है और वह नवीन जीवन देने वाली घोषणा है।
पञ्चजनों का घोष
पञ्चजनों का एक मत से किया घोष विलक्षण शांति निर्माण करता है। इस विषय में कण्व गोत्र प्रगाथ ऋषि कहते हैं- यत् पाञ्जन्यया विशा इन्द्रे घोषा असृक्षत। अस्तृणाद् बर्हणा वियोड्यो मानस्य सक्षय:।। -ऋग्वेद 8/63/7
ज्ञानी, शूर, व्यापारी, शिल्पी और वन्य, इन पांचों प्रकार की जनता ने अपनी घोषणाएं कीं। संघटना होने से ही घोषणा में बल रहता है और वह प्रभावी सामर्थ्य प्रकट करता है। इसी तरह, यह संघटना (पाञ्चजन्य) पञ्चजनों की होनी चाहिए, अर्थात् किसी एक जाति की नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण जी का ‘पाञ्चजन्य’ यदि केवल ‘शंख’ ही माना जाए, तो नि:संदेह उससे श्रेष्ठ ध्येय की दृष्टि से वैदिक पाञ्चजन्य का महानाद श्रेष्ठ है। और यदि भगवान श्रीकृष्णजी ने अपनी बांसुरी की मधुर ध्वनि के गुञ्जार से पांचों जातियों को अपनी ओर आकृष्ट किया था और इस कारण भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य ‘पाञ्चजन्यों की घोषणा थी’, ऐसा माना जाए, तो इस अर्थ में वैदिक पाञ्चजन्य की झलक इसमें दिखेगी।
पञ्चजनों के हितकर्ता का यश
अत्रिकुलोत्पन्न गातु ऋषि इन्द्र के वर्णन करने के मिष से पञ्चजनों के हितकर्ता राजा का यश गाता है-
एकं नुत्वा सत्यति पाञ्चजन्यं, जातं श्रृमोणि यशसं जनेषु।
तं में जगृश्र अशसो नविंष्ठ, दोषावस्तो: हवमानास इंद्रम॥ ऋग्वेद 5।62।1
इस मन्त्र में कहा है कि जो पञ्चजनों का हित करता है और जो प्रजा का पालन उत्तम रीति से करता है, वही जनता में यशस्वी होता है। राज्य का प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि जिससे विद्वान, शूरवीर, कृषिबल, कलावान, तथा वन्यमानव, ये सभी पांचों लोग सुखी हों। यहां पाञ्चजन्य शब्द राजा का विशेषण है, जो पांचों प्रकार की जनता को सुख पहुंचाने का भाव बता रहा है।
वृषागिर के पुत्र ऋज्राश्व-अम्बरीष-सहदेव-भयमान सुराध, ये पांच ऋषि पञ्चजनों के हितकारी वीर का वर्णन इस तरह कर रहे हैं-
स वज्रभृद्दस्युहा भीम उग्र: सहस्त्रचेता: शतनीथ ऋभ्वा।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती॥ ऋग्वेद 1।100।12
इस मन्त्र के प्राय: सभी शब्द पञ्चजनों के हितकारी शूरवीरों का उत्तम वर्णन कर रहे हैं।
पाञ्चजन्य केवल शंख ही नहीं है। वह सम्पूर्ण मानवी आर्य जनता के कल्याण करने की आयोजना की प्रबल घोषणा है। जिस घोषणा के पीछे राष्ट्र के सभी जाति के लोग संगठित होकर रहते हैं, वह पाञ्चजन्य का महानाद इतना प्रबल होता है कि बड़े-बड़े सम्राटों को भी वह सुनना ही पड़ता है।
पञ्चजनों का हितकर्ता ऋषि
अब सौ वैखानस ऋषि पञ्चजनों के हितकर्ता ऋषि का अग्नि के मिष से वर्णन करते हैं-
अग्नि: ऋषि: पाञ्चजन: पुरोहित:। तं इमहे महागयम॥ ऋग्वेद 6।66।20
अर्थात जो तेजस्वी है, क्रान्तिदर्शी ज्ञानी है, आगे बढ़कर सब जनता का हित करने के कार्य करता है, और जिसके पास बहुत धन अथवा स्थान है, वही प्रशंसा के योग्य है। अत्रि नामक एक ऋषि का वर्णन दीर्घतमा के पुत्र कक्षीवान ऋषि के सूक्त में आया है।
ऋषिं नरौ अहंस: पाञ्चजन्यं, ऋवीसाद् अत्रिं मुञ्चय: गणेन।
मिनन्ता दस्यो: अशिवस्य माया:, अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता। (ऋ. 1।117।3)
अर्थात हे बलवान नेताओं! आपने पञ्चजनों के हितकर्ता अत्रि नामक ऋषि को उनके अनुयायी गणों के साथ अति दु:खदायी कारागृह से मुक्त किया तथा अशुभ शत्रु के कुटिल षड्यंत्रों को तुमने तोड़ दिया और उक्त ऋषिगणों को अनुकूल मार्ग से प्रेरित भी किया। जनता का हित करने वाला अत्रि ऋषि थे, उसका विशेषण पाञ्चजन्य यहां आया है।
भृमार ऋषि अथर्ववेद में ऐसे ही बुद्धिमान का वर्णन पाञ्चजन्य पद से ही करते हैं।
अग्ने: मन्वे प्रथमस्य प्रचेतस:, पाञ्चजन्यस्य बहुधा यं इन्वते।
विशो विश: प्रविशिवांसं ईमहे, स नो मुञ्चतु अहंस:।
अर्थात् जिनकी अनेक प्रकार से प्रशंसा की जाती है, उस पञ्चजनों के हितकर्ता पहले विज्ञानी अग्नि जैसे तेजस्वी की मैं स्तुति करता हूं। इस मंत्र में ‘पाञ्चजन्यस्य प्रथमस्य प्रचेतस:’ अर्थात् पञ्चजनों के हितकर्ता प्रथम विद्वान की प्रशंसा है। विद्वान की प्रशंसा यहां इसलिए की है कि वह पञ्चजनों का हित करता है, यदि वह पञ्चजनों का हित नहीं करेगा, तो उसकी प्रशंसा नहीं की जाएगी। पञ्चजनों का हित करने वाला धन है अर्थात धन से पांचों प्रकार के मानवों का हित होना चाहिए। पाञ्चजन्य का अर्थ सायनाचार्य ज ने ऋग्वेद के अपने भाष्य में इस तरह किया है।
1-पञ्चजना निषादपंचभा: चत्वारो वर्ण:। तेषु रक्षकत्वेन भव: (ऋ. 1।100।12)
चार वर्ण और पांचवां निषाद इनका संरक्षक जो है, वह निषाद है।
2-पाञ्चजन्यं, निषादपंचमा: चत्वारो वर्ण: पंचजना:। तेषु भवं (ऋ. 1।117।3)
3-पाञ्चजन्यं पञ्चजनेभ्यो मनुष्येभ्यो हितं (ऋ. 5।32।11)
4-पाञ्चजन्येन पाञ्चजनहितेन राया धनेन (ऋ. 7।72।5)
ये ही अर्थ पाञ्चजन्य का सर्वमान्य है। इस तरह वेदमंत्रों में ‘पाञ्चजन्य’ का प्रयोग है। यह ‘पाञ्चजन्य’ नामक वृत्तपत्र भी पांच जनों का उद्धार करने वाला हो। यही इसका कर्तव्य अथवा उद्देश्य या ध्येय हो सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण जी का ‘पाञ्चजन्य’ यदि केवल ‘शंख’ ही माना जाए, तो नि:संदेह उससे श्रेष्ठ ध्येय की दृष्टि से वैदिक पाञ्चजन्य का महानाद श्रेष्ठ है। और यदि भगवान श्रीकृष्णजी ने अपनी बांसुरी की मधुर ध्वनि के गुञ्जार से पांचों जातियों को अपनी ओर आकृष्ट किया था और इस कारण भगवान श्रीकृष्ण का पाञ्चजन्य ‘पाञ्चजन्यों की घोषणा थी’, ऐसा माना जाए, तो इस अर्थ में वैदिक पाञ्चजन्य की झलक इसमें दिखेगी।
इन सबका तात्पर्य यह है कि पाञ्चजन्य केवल शंख ही नहीं है। वह सम्पूर्ण मानवी आर्य जनता के कल्याण करने की आयोजना की प्रबल घोषणा है। जिस घोषणा के पीछे राष्ट्र के सभी जाति के लोग संगठित होकर रहते हैं, वह पाञ्चजन्य का महानाद इतना प्रबल होता है कि बड़े-बड़े सम्राटों को भी वह सुनना ही पड़ता है।
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