पंचमहाभूत की अवधारणा पर पर्यावरण का देशज विमर्श स्थापित करने के दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान द्वारा उज्जैन में 27 से 29 दिसंबर तक एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी ‘सुजलाम्’ का आयोजन किया गया
जिस जल से जीवन उपजा, मानव जगत अब उसी के जीवन की चिंता में है। दुनिया के पैमानों से जल-संकट देखना जरूरी है तो भारतीय परंपराओं के दर्पण से अपने मसलों को सुलझाना भी हमारी समझ का ही प्रमाण होगा। आधुनिक जगत के विकारों का समाधान पंचमहाभूत की वैज्ञानिकता के गर्भ में है। धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश, पांचों तत्वों की शुद्धता ही हमारे अस्तित्व का आधार है। शोषण की पश्चिमी और उर्ध्वगामी विचारधारा की जकड़ में आने वाली भारतीय पीढ़ी को वो प्रथाएं, आचरण याद करने का समय है कि हम पृथ्वी-जल-पहाड़-पशु से भी जब कुछ लेते थे, तो पहले उनके पांव छूकर इसकी आज्ञा लिया करते थे। लेते भी इतना ही, जितनी जरूरत हो। हमारे वेदों और सनातन ग्रंथों में जल के पूजन, उसके अलग-अलग स्वरूपों के महात्म्य, उपयोग, शुद्धिकरण और संग्रहण की विधियों की जानकारी है। जल की स्थिति के मापन और जल संरचनाओं के निर्माण की विधाओं, कलाओं और वस्तु का पूरा उल्लेख है।
मैकाले शिक्षा पद्धति ने सनातन-ज्ञान को जिस तरह आच्छादित किया, उसने हमारा भरोसा खुद पर ही डिगा दिया। देश के इतिहास में पहली बार दशक भर में जल के बिखरे-बिखरे काम को जल-शक्ति मंत्रालय की देख-रेख में सौंपा गया। तकनीक और पारंपरिक ज्ञान की मदद से पानी के काम की प्रगति पर निगरानी रखने और सच को स्वीकारने वाली सोच के साथ, जन-जन से जल-संवाद शुरू हुआ तो उसमें ‘पाञ्चजन्य’ ने भी अपने पन्नों से ‘जल-आंदोलन’ छेड़ा। जल की चुनौतियों-प्रयोगों पर बेबाकी से बात कहने और समुदायों की पहल को सराहने में कसर नहीं छोड़ी। बड़ी बात छोटी-छोटी आदतों में बदलाव की तो है ही, खेती में पानी की बर्बादी पर लगाम कसने की भी है। खेती में पानी के प्रबंधन की अनदेखी और प्रदूषित पानी, देश को स्वास्थ्य और खाद्य संकट के मुहाने पर न धकेल दे, इसके लिए सब सजग हैं। उज्जैन के तीन दिवसीय आयोजन ‘सुजलाम्’ में देश भर के चिंतकों, उपासकों, वैज्ञानिकों, साधुओं और लोक समाज की बात सुनी, कही गई। विमर्श की इस धार को कर्मभूमि मिली तो यहीं से भूगर्भ जल छलकेगा, बरसता हुआ एकत्र होगा और जल-संकट से देश समय रहते उबरेगा। जलवायु संकट के बीच जल-समाधान के लिए दुनिया हमारी ओर भरोसे से देख सके, तो यह सदी की बड़ी उपलब्धि गिनी गाएगी।
नौ सत्रों में जल-पर्यावरण पर मंथन
दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान (डीआरआई) द्वारा आयोजित इस अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में नौ सत्रों में जल और पर्यावरण विषयों पर मंथन हुआ। उद्घाटन सत्र में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि जिस देश में जल को जगदीश मानने की परंपरा रही, वहीं के जल स्रोत आज सबसे प्रदूषित हैं। साल 2050 में हम लोगों को अन्न-जल कैसे उपलब्ध कराएंगे, इस पर अभी सोचना होगा। आने वाले समय में जल की उपलब्धता निर्बाध हो, यह बड़ी चुनौती है। यह सौभाग्य है कि हम पंचभूत की अवधारणा वाला देश हैं, इसलिए हम आश्वस्त हैं। ‘नमामि गंगे अभियान’ से मात्र 5 वर्ष में गंगा को स्नान योग्य बना दिया।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य में जल संरक्षण और नदी की सफाई के शासकीय प्रयासों का लेखा-जोखा रखा। डीआरआई के महासचिव अतुल जैन ने कहा कि संस्थान बीते 4 साल से इसी काम में लगा हुआ है। हमारी सनातन संस्कृति में विज्ञान अपने पूर्ण रूप में था। आज की पीढ़ी के सामने यह ज्ञान कैसे रखें कि वह उसे अपनाए। कोल्हापुर के कनेरी मठ के काडसिद्धेश्वर महाराज ने कहा कि आधुनिकता की दौड़ ने हमारी प्राचीन परंपरा को अंधविश्वास बताकर हमसे दूर कर दिया है। आज पंचमहाभूत प्रदूषित है। अन्न में 27 मिलीग्राम जहरीले पदार्थ घुल गए हैं। आरओ के पानी में पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। हर साल 15 टन मिट्टी का खिसकना जल सरंक्षण के लिए चुनौती है। जल स्तर 100 फीट से 1000 फीट नीचे चला गया, जिससे जल में आर्सेनिक जैसा जहर घुल गया है। इस कारण अकेले कोल्हापुर में एक व्यक्ति पर स्वास्थ्य खर्च प्रतिदिन 300 रुपये है। हर तहसील में 28 से 30 हजार कैंसर के मरीज हैं। यह सब पंचमहाभूत के असुंतलन के कारण हो रहा है।
‘जर्मन एसोसिएशन आफ होमा थेरैपी’ से जुड़े डॉ. उलरिच बर्क ने पेयजल, कुओं और नदियों के पानी के शुद्धिकरण पर अग्निहोत्र और होमा चिकित्सा का प्रभाव बताया। इस चिकित्सा पद्धति से पर्यावरण और जल प्रदूषण कम किया जा सकता है। इस पद्धति में अग्निहोत्र भस्म से जल शोधन किया जाता है, जिससे नदियों को भी साफ किया जा सकता है। अग्निहोत्र में तांबे का पिरामिड, गाय का गोबर और गाय के शुद्ध घी से बनी सामग्री का प्रयोग किया जाता है। कोचीन विज्ञान एवं तकनीकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वी.पी.एन. नंपूरी ने बताया कि 1893 में जापान के योकोहामा से वेंकुवर जाते समय जहाज में स्वामी विवेकानंद और जमशेद जी टाटा की भेंट हुई। स्वामी जी से प्रेरित होकर उन्होंने भारत में पहले विज्ञान एवं शोध संस्थान की नींव रखी। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों ने 17वीं शताब्दी में प्रकाश की गति का पता लगाया, जबकि सदियों पहले ऋग्वेद में इसका उल्लेख मिलता है। इसी तरह, भारतीय शास्त्रों में इंद्रधनुष के निर्माण की पूरी जानकारी है। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में भी भारतीय शास्त्र में उल्लेख मिलता है। भगवान, प्रकृति के रचनाकार और पंचमहाभूत जीवन के स्रोत हैं। जल को अमृत कहा गया है। मानव मस्तिष्क में पानी 95 प्रतिशत, रक्त में 82 प्रतिशत और फेफड़ों में 90 प्रतिशत पानी होता है। यदि मानव शरीर में 2 प्रतिशत पानी भी कम हो जाए तो अनेक शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
जल-विज्ञान ही हमारी संस्कृति
तकनीकी सत्र में डॉ. पी.वी. सिंह राणा, प्रो. मौली कौशल और डॉ. भगवती प्रसाद शर्मा मुख्य वक्ता थे। वक्ताओं ने कहा कि जब तक पंचमहाभूत पर बात नहीं होगी, तब तक इसे धर्म से जोड़ा नहीं जा सकेगा। विष्णु के पांच अवतार पंचमहाभूत के ही रूप हैं। देशभर के स्थापत्य का वैज्ञानिक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए वक्ताओं ने कहा कि सभी स्मारक, धर्म स्थल और नदी तंत्र एक व्यवस्थित सोच, गणना और तर्क के साथ स्थापित किए गए। ‘जल ही जीवन है’ य़ह अधूरी बात है, ‘जल में भी जीवन है’ य़ह पूरी बात है।
इसी सत्र में ‘भारतीय प्रज्ञा में जल तत्व की महिमा’ पर दो सत्रों में डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डॉ. के. रामासुब्रह्मण्यम, ओम प्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. आशुतोष पारीक, सागर निर्झरकर, डॉ. उलरिच बर्क, डॉ. सुशील चतुर्वेदी, सयाल जोशी व डॉ. शोभा नायक ने अपने विचार रखे। इसमें वक्ताओं ने ऋग्वेद में जल-चक्र और सिंचाई के उल्लेख पर प्रकाश डाला। ऋग्वेद में दो प्रकार के जल-चक्र का वर्णन है। पहला, जल चक्र ‘सेंसिबल’ है और दूसरा ‘इनटेंजिबल’ है। यदि जल स्वच्छ रखेंगे तो जल भी हमें निर्मल रखेगा। जल औषधि है, योग है और शिव तत्व है। भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने भरोसा जताया कि जनमानस के सामूहिक प्रयास से ऋषि-मुनियों की यह भूमि, इस समस्या के समाधान में भी विश्व को दिशा प्रदान करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में संपन्न ‘नमामि गंगे अभियान’ बड़ी सफलता है और इस दिशा में राज्य और केंद्र सरकार भी लगातार कार्य कर रही है।
भारत में पानी में अशुद्धि घुली है, मगर उसकी जानकारी साझा नहीं होती। अमेरिका और जापान जैसे देशों में जल में हानिकारक तत्व होने पर बोर्ड लगा दिए जाते हैं। देसी वनस्पतियों में प्रदूषित जल को साफ करने की क्षमता होती है, जबकि कुछ वनस्पतियां ऐसी हैं जो हानिकारक तत्वों को लाभकारी तत्वों में बदल देती हैं।
सत्र में जल विज्ञान, जल प्रबंधन और जल संचय को लेकर सुझाव भी आए। वक्ताओं का कहना था कि जल स्रोत के पास क्षेत्रीय भाषा में पोस्टर लगाया जाए और इसे प्रदूषित करने पर दंड की व्यवस्था की जाए। साथ ही, जल-स्रोत के लिए जल-इंजीनियर हो, जो उसकी देखरेख और उपयोग आदि का ब्योरा एकत्र करे। भारतीय विज्ञान में जल सूत्र और संस्कृति के साथ पानी के शुद्धिकरण के लिए अग्निहोत्र की प्रासंगिकता पर भी चर्चा हुई। वक्ताओं ने प्राचीन भारतीय जल विज्ञान में 6 सूत्रों के बारे में बताया, जिसमें जल क्षेत्र की संरचना, तालाब बनाने की मूल अवधारणा, मिट्टी का कटाव रोकने जैसी जानकारियां हैं। जल का संबंध भौतिक जीवन और स्वास्थ्य से ही नहीं, बल्कि मनुष्य के साथ इसका भावात्मक, सांस्कृतिक और मूल्यपरक संबंध भी है। सिंचाई का पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। प्राचीन काल में कुओं, नहरों, तालाबों का प्रयोग सिंचाई के लिए होता था। कन्नड़ लोक साहित्य में भी जल संस्कृति का उल्लेख है। इस अवसर पर प्रो. मौली कौशल की रिपोर्ट पर आधारित अंग्रेजी में डाक्यूमेंट्री भी दिखाई गई।
बहता पानी और रमता साधु, दोनों निर्मल
‘भारतीय विज्ञान एवं लोक संस्कृति में जल की भूमिका’ पर दो सत्र हुए। पहले सत्र में डॉ. गिरधरदन रत्नू, गुरू साहिब सिंह, रेग जेन कोनचक, डॉ. पूर्णिमा राजेंद्र केलकर, डॉ. शिवदान सिंह जोलावास वक्ता थे। सत्र में लोकोक्तियों और कहावतों के माध्यम से कहा गया कि बहता पानी और चलता साधु निर्मल होता है। ठहराव आने पर इन दोनों में विकार उत्पन्न हो जाता है। गुरु ग्रंथ साहिब में जल तत्व की महिमा का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि पेड़ हमारे फेफड़े हैं और नदियां हमारी नसें हैं। हम उनके साथ जैसा व्यवहार करेंगे, वैसा ही व्यवहार वे हमारे साथ करेंगे। बौद्ध मत के अनुसार, बाह्य पंचमहाभूत में असंतुलन पैदा होने पर शरीर के अंदर असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। सत्र में गोवा की जल संस्कृति एवं पूजा पद्धति की जानकारी दी गई। डॉ. शिवदान सिंह जोलावास ने वनवासियों के जल संरक्षण की प्राचीन तकनीक के बारे में बताया।
दूसरे सत्र में दिनेश कुमार शर्मा, डॉ. कानू भाई वसावा, डॉ. राजेंद्र कुमार नेमा, लौकिक देसाई और डॉ. मोती भाई देव ने जल संरक्षण और संवर्धन के लिए किसान और शिक्षाविदों को साथ आने का आह्वान किया। उनका कहना था कि भारत में पानी में अशुद्धि घुली है, मगर उसकी जानकारी साझा नहीं होती। अमेरिका और जापान जैसे देशों में जल में हानिकारक तत्व होने पर बोर्ड लगा दिए जाते हैं। देसी वनस्पतियों में प्रदूषित जल को साफ करने की क्षमता होती है, जबकि कुछ वनस्पतियां हानिकारक तत्वों को लाभकारी तत्वों में बदल देती हैं। यदि जंगल और मिट्टी प्रभावित होगी तो पानी भी प्रभावित होगा।
प्राचीन सिंचाई प्रणाली है ‘टुटेंगलॉन’
‘जल संवर्धन की पारंपरिक और आधुनिक देशानुकूल तकनीक’ पर भी दो सत्र हुए। पहले सत्र में मणिपुर की जल-संस्कृति और भारत के जल संकट के समाधान पर बात हुई। इसमें डॉ. लौरेम्बम, सुरजीत सिंह, डॉ. श्रीजा पिल्लई और रामानुज दास अपने विचार रखे। इस सत्र में मणिपुर की प्राचीन सिंचाई प्रणाली ‘टुटेंगलॉन’ के बारे में भी बताया गया, जो जल प्रबंधन का ग्रंथ है। यह अनुमान जताया गया कि भारत में 2030 तक पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी हो जाएगी, जिससे जीडीपी को 6 प्रतिशत का नुकसान होगा। इसलिए गैर-झिल्ली आधारित जल शुद्धि तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्राचीन काल में ऋषि कश्यप, ऋषि पाराशर, ऋषि गौतम और ऋषि वत्स वर्षा की भविष्यवाणी करते थे। मौसम पूर्वानुमान की आधुनिक तकनीक कारगर नहीं है। अस्तित्वगत चुनौतियों के लिए भारतीय तरीका ही स्थायी है, जिससे सबका कल्याण हो सकता है।
दूसरे सत्र में जल जलवायु परिवर्तन और अस्तित्व की चुनौतियों पर चर्चा हुई। डॉ. गंती सूर्यनारायण मूर्ति, डॉ. श्रीपद बिच्छुगट्टी और डॉ. संजय सिंह ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कई कारक हैं। भारत दुनिया का इकलौता देश है जो पेरिस समझौते का पालन कर रहा है। जलवायु को स्थिर रखने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के व्यवहार पर भी ध्यान देना होगा। पानी का प्रयोग बिजली उत्पादन से लेकर सिंचाई तक में होता है। खाद्य-ऊर्जा-जल पंचमहाभूत के तत्व है। प्राचीन काल में ऋषि कश्यप, ऋषि पाराशर, ऋषि गौतम और ऋषि वत्स वर्षा की भविष्यवाणी करते थे। मौसम पूर्वानुमान की आधुनिक तकनीक कारगर नहीं है। अस्तित्वगत चुनौतियों के लिए भारतीय तरीका ही स्थायी है, जिससे सबका कल्याण हो सकता है। भारतीय ज्ञान परंपरा एक अद्वितीय परिप्रेक्ष्य, बहु-विषयक, समग्र और नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है। भारत का सभ्यतागत लोकाचार यह है कि समस्त प्रकृति दैवीय है और हम प्रकृति के अंग हैं।
जल सहेली और जल पंचायतें
भारतीय विज्ञान एवं लोक संस्कृति में जल की भूमिका पर सामूहिक सत्र में माधव गोविंद कटस्थाने, चतर सिंह, मोहन गुप्ता, के. वेंकटरामन, डॉ. अमित, डॉ. उमाशंकर पाण्डे ने देश के कस्बों और गांवों में जल व स्वच्छता के क्षेत्र में स्वदेशी समाधान पर अपने विचार रखे। अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। भारत सरकार की स्मार्ट सिटी योजना के सतत विकास के लिए ‘ईको-तकनीक’ को व्यवहार में लाने पर जोर दिया गया। देश में 1951 में जल की उपलब्धता जहां 1800 क्यूसेक थी, जो अब 1400 क्यूसेक है। वर्धा में जल संरक्षण के लिए जमीनी स्पर पर किए गए कार्य की भी चर्चा हुई। जल संरक्षण के लिए परमार्थ फाउंडेशन द्वारा गठित पानी-पंचायत ने चंदेल कालीन प्राचीन तालाबों को पुनर्जीवित किया है। इसके अलावा, जल-सहेली संगठन के माध्यम से बिना किसी शासकीय मदद के 8वीं व 12वीं शताब्दी के तालाबों और छोटी नदियों को भी पुनर्जीवित किया है। पानी की उपलब्धता के कारण कृषि उपज में 15 से 25 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। वहीं, जैसलमेर के रेगिस्तानी इलाकों में खड़ीन पद्धति के जरिए जल संचयन किया जाता है। वक्ताओं ने बताया कि आद्य गुरु शंकराचार्य के पंचाक्षर स्तोत्र में पांचों अक्षर पंचमहाभूत से संबंधित हैं। वहीं, दक्षिण भारत के पांच मंदिर एकम्बरनाथ, जम्बुकेश्वरम्, अरुणाचलम्, श्रीकालशक्ति और नटराज मंदिर पंचमहाभूत का प्रतिनिधत्व करते हैं।
लेह-लद्दाख के डॉ. लोबजैंग स्टैनजेन ने कहा कि लद्दाख को भारतमाता का मुकुट कहा जाता है। सिंधु और इसकी प्रमुख सहायक नदियां इस क्षेत्र से होकर बहती हैं। लद्दाख में जल के मुख्यत: तीन स्रोत हैं – ग्लेशियर, बर्फ और झरने, जबकि चुरपोन पद्धति और जिंग जल संरक्षण के पारंपरिक और आधुनिक तरीके हैं। आधुनिक विधि से कृत्रिम ग्लेशियर और बर्फ के पिघलने से बनने वाले जल का संरक्षण किया जाता है। वहीं, सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति चुरपोन विधि से की जाती है। चुरपोन का अर्थ होता है- पानी का भगवान। इस प्रणाली के तहत जल का समान बंटवारा होता है तथा नालियों की मरम्मत और सफाई की जाती है। सिंचाई की सुविधा सबसे पहले गांव में गेहूं उगाने वालों को मिलती है। नहर में पर्याप्त पानी होने पर ही अल्फा, बागवानी फसलों और अन्य फसलों को सिंचाई की सुविधा मिलती है। सिंचाई की यह व्यवस्था सदियों पुरानी है। जल प्रवाह जारी रखने के लिए हर महीने के 15वें दिन ऊंचे पहाड़ पर जल स्रोत के पास पूजा होती है, जिसका जिम्मेदारी गांव के मठ पर होती है।
औषधि गुण से भरपूर जल
पंचभूत की संपूर्ण अवधारणा में जल-तत्व पर दो सामूहिक सत्र हुए। पहले सत्र में डॉ. अमित, डॉ. आर. वेंकटरमन, महेंद्र सिंह तंवर, डॉ. मनोज नेशरी, प्रो. शांति श्री धुलीपुड़ी पंडित मुख्य वक्ता रहे। इस सत्र में बताया गया कि पंचमहाभूत चिकित्सा प्रणाली के अनुसार शरीर से व्याधि और व्याधि से चिकित्सा की उत्पत्ति हुई और यह सभी पंचमहाभूत से बने हैं। पृथ्वी और जल महाभूत अधिकता से व्याधि तमोगुण है। अग्नि महाभूत से पाचन प्रभावित है और इसी के होने से मनुष्य को भूख लगती है और यही क्रोध का कारण है। अनुसार शास्त्रों में जीवन की उत्पत्ति जल से हुई है। जल उपचार के भी काम आता है, जैसे-हाइड्रो थेरेपी। आयुर्वेद के ग्रंथ ‘भाव प्रकाश’ में एक सूत्र है, जिसमें जल और वायु को पूजनीय बताया गया है। आयुर्वेद में जल को एक विशेष शब्द ‘क्लेद’ द्वारा परिभाषित किया गया है। अस्थियों में जल तत्व की उपस्थिति के कारण उनमें पुन: जुड़ाव की प्रक्रिया हो पाती है। इस प्रक्रिया में जल का जोड़ने का गुण मदद करता है। जल का स्निग्ध गुण जोड़ने और लुब्रिकेशन, दोनों का कार्य करता है।
दूसरे सत्र में विवेक चौरसिया, बलदेव राम साहू, एल. सुरजीत सिंह, डॉ. रामानुज दास, श्रीजा पिल्लै, डॉ. मुकुल कुलश्रेष्ठ, क्यूरी शर्मा, आर.के. बिश्नोई, आईएएनएस मूर्ति, डॉ. अरुण कंसल और डॉ. एस. वाई. सोमाशेखर वक्ता थे। इसमें विचार साझा करने के लिए इकोसिस्टम बनाने के साथ बृहदेश्वर जैसे मंदिरों और स्मारकों की इंजीनियरिंग से भी सीखने पर जोर दिया गया।
रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा कि पंचमहाभूतों में असंतुलन की विकृतियों से उबरना मानव जाति ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के हित में है। हम जल का अनादर न करें, प्रकृति का सम्मान करें और इसकी सदैव पूजा करें। भारतीय संस्कृति एकात्मवादी है। जल का विषय गंभीर है और हमें इस बात की प्रामाणिकता से लोगों को अवगत कराना होगा। अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार पंचमहाभूतों पर अलग-अलग स्थानों पर कार्य करना और उपाय ढूंढना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि भारत विश्व में अनोखा देश है जो जल ही नहीं, पंचमहाभूतों के लिए भी अपनी संस्कृति और ज्ञान के आधार पर कार्य करता रहा है। भारत के लोग जल के लिए तृतीय विश्व युद्ध नहीं होने देंगे।
उन्होंने कहा कि पश्चिमी देशों की नकल से ग्लोबल वार्मिंग और अन्य घटनाएं घटित हुई हैं। मानव विकास की दिशा सही नहीं होना इसके मूल में है। ग्लोबल वार्मिंग कोई बहुत पुरानी समस्या नहीं है। हाल के 300 वर्षों में ही यह संकट के रूप में उभरा है। मानव स्वयं को प्रकृति का अंग न मानकर स्वयं को मालिक समझ बैठा है। उसके इस अज्ञान और अहंकार के कारण ही इस तरह की समस्याएं आज भारत में भी आने लगी हैं। भारतीय परंपराओं के अनुसार, विज्ञान और समावेश के साथ जल, वायु और अन्य पंच तत्वों के स्वाभाविक गुणों का उपयोग करने से इस तरह की समस्याएं कम ही नहीं, बल्कि समाप्ति की ओर होंगी। भारत पुन: विश्व गुरु स्थापित हो, इसके लिए हमें इस दिशा में जनमानस के साथ ही कार्य करना होगा। इस तरह की गोष्ठियां, जिसमें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक, संत-महात्मा सम्मिलित हुए हैं, निश्चित ही अपने उद्देश्य को प्राप्त करेंगी।
केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा कि हम धरती के मालिक नहीं, किरायेदार हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पानी को मानव के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है। वेदों में पानी को सबसे महत्वपूर्ण पंचतत्व माना है और नदियों को मां का दर्जा दिया गया है। लेकिन बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन ने जल संकट को भी बढ़ाया है। आगर हम नहीं चेते, तो प्रकृति के कहर का सामना करना ही पड़ेगा।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति आदर्श गोयल ने कहा कि यह समाज के विषय हैं और समाज को ही इसका रास्ता निकालना चाहिए। नदियों का प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। इतनी निगरानी के बाद भी बिना शोधन किए 80 प्रतिशत नाले का पानी नदियों में डाला जा रहा है। 1985 से 2010 तक 25 वर्ष में प्रदूषण बढ़ा है। लेकिन 2010 से 2020 के बीच यह और तेजी से बढ़ा है। जल को लेकर भारत का दृष्टिकोण पश्चिम से भिन्न है, इस विचार को धरातल पर लाना होगा। इस सत्र में सद्गुरु जग्गी वासुदेव का संदेश वीडियो के माध्यम से साझा किया गया। राजस्थान के 83 वर्षीय रामसिंह बीकाजी ने लोक गीत ‘दल-बादली रो पाणी, कुण तो भरे’ से जल-विमर्श की गीतमय भूमिका बांधी। डॉ. क्षिप्रा माथुर की लिखी जल-संकट और भारतीय दर्शन में जल-पक्ष को रेखांकित करती डाक्यूमेंट्री भी प्रदर्शित की गई।
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