राजनीति करने वालों और अन्य पक्षों को समझना पड़ेगा कि अलग-अलग समुदायों के समान तरह के मामलों में दो अलग-अलग तर्क अब नहीं चलेंगे। कानून का राज और सबके लिए एक ही कानून समय की मांग है। अब यह व्यवस्था करनी ही पड़ेगी
बीते हफ्ते तीन चीजें देखने में आईं। एक, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने राज्य के हल्द्वानी स्थित बनफूलपुरा की गफूर बस्ती में रेलवे की जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों को हटाने का आदेश दिया। यहां अवैध कब्जेदारों को हटाने का एक अभियान डेढ़ दशक पहले भी चला था परंतु भारी विरोध के कारण वह अभियान रोकना पड़ा था। वर्ष 2016 में भी उच्च न्यायालय ने अवैध कब्जों को हटाने का निर्देश दिया था जिसके विरुद्ध याचिका दायर हुई थी।
दिसंबर, 2022 के आखिरी हफ्ते में गफूर बस्ती से अवैध कब्जेदारों को हटाने के उच्च न्यायालय के आदेश पर जैसे ही प्रशासनिक कार्रवाई शुरू हुई, वहां धरना, विरोध और राजनीति का दौर शुरू हो गया। अवैध कब्जेदारों के पक्ष में कुछ राजनेता और मीडिया का एक वर्ग खड़ा दिखाई देता है। महाराष्ट्र से कांग्रेस के सांसद इमरान प्रतापगढ़ी, कांग्रेस के कई अन्य नेता कानून तोड़ने वाले अतिक्रमणकारियों के पक्ष में आगे आए।
इस पूरे प्रकरण में कई बातें दिख रही हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में कानून का शासन चलेगा या राजनीति की शह पर मनमर्जी? उच्च न्यायालय ने साफ तौर पर कब्जे को अवैध माना है। लेकिन दुहाई मानवीयता की दी जा रही है। वहां दो मंदिर हैं, आठ-दस मस्जिदें हैं, आधा दर्जन से अधिक स्कूल हैं। पूछा जा रहा है कि क्या सरकार बच्चों की पढ़ाई को अतिक्रमण मानती है? बहुत शातिर ढंग से बच्चों की पढ़ाई की आड़ में ‘अवैध कब्जे को सही ठहराने का ‘नैरेटिव’ गढ़ा गया। अवैध घोषित 4,365 घरों में रह रहे लोग कहां जाएंगे, दशकों से रह रहे हैं’ लेकिन क्या अवैध कार्य एक समय सीमा के बाद वैध हो जाता है?
यह भी कहा जा रहा है कि अब तक क्यों बसने दिया गया? यह भुलाया जा रहा है कि पिछले डेढ़ दशक से इस अवैध कब्जे को हटाने की गंभीर कोशिश की जा रही है। यानी अवैध कब्जे करें, उस पर कार्रवाई को रोके रखें और फिर दशकों की दुहाई दें।
दूसरा, एक ट्वीट में लिखा गया कि इस देश में मुसलमान होना आसान नहीं है। भारत में मुस्लिम समुदाय को किस बात की मुश्किल है?
ध्यान दीजिए, ठीक इसी समय जम्मू एवं कश्मीर में लोगों को, मासूम बच्चों को उनकी हिंदू पहचान देखकर, आधार कार्ड देख कर मारा जा रहा है।
जनता जाग रही है। तुष्टीकरण की आड़ में झूठे रोने अब नहीं चलेंगे। सच को सच कहना ही पड़ेगा। राजनीति करने वालों और अन्य पक्षों को समझना पड़ेगा कि अलग-अलग समुदायों के समान तरह के मामलों में दो अलग-अलग तर्क अब नहीं चलेंगे। कानून का राज और सबके लिए एक ही कानून समय की मांग है। अब यह व्यवस्था करनी ही पड़ेगी।
जिनके अनुसार इस देश में ‘मुसलमान होना आसान नहीं’ है, उनसे प्रश्न है-फिर झारखंड के साहिबगंज में एक हिंदू युवक के मुंह में मुस्लिम युवकों द्वारा जबरन गोमांस ठूंसा जाना कैसे आसान रहा? दिल्ली के संजय वन में अवैध बनी कच्ची मजारों को हटाए जाने के बाद दुबारा वहां पक्का निर्माण किया जाना कैसे आसान रहा? यानी मुसलमान होने का रोना रोने की राजनीति करें और जब हिंदुओं पर बर्बरता हो तो सब चीजों को नजरअंदाज कर दूसरी ओर मुंह मोड़ लें।
तीसरा, इस देश में जो लोग नहीं बोलते, वे क्यों न बोलें और कब तक न बोलें!
एक झलक देखिए- छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले की एड़का ग्राम पंचायत में एक पादरी के नेतृत्व में करीब 300 नव ईसाइयों ने कन्वर्जन का विरोध करने वाले जनजातीय समुदाय पर हमला किया। इसके विरोध में जनजातीय समुदाय के हजारों लोगों ने जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन किया और पास स्थित चर्च पर हमला किया। जनजातीय समुदाय के लोग स्थानीय पुलिस को 50 से अधिक शिकायत पत्र दे चुके थे। परंतु कार्रवाई न होने से वहां कन्वर्जन में जुटे लोगों की हिम्मत बढ़ती गई। आप सोचेंगे कि किसी चीज को अनंतकाल तक रौंदेंगे और लोग खामोश रहेंगे, तो भूल जाएं, छोटी सुगबुगाहट भी समय आने पर लावा बनकर फूटती ही है।
जो जल-जमीन-जंगल की बात राजनीति के लिए करते हैं,
वे भले न बोलें, लेकिन लोग बोल रहे हैं। इस देश का कानून बोल रहा है।
पक्षपात की राजनीति ढलान पर पहुंच चुकी है।
जनता जाग रही है। तुष्टीकरण की आड़ में झूठे रोने अब नहीं चलेंगे। सच को सच कहना ही पड़ेगा। राजनीति करने वालों और अन्य पक्षों को समझना पड़ेगा कि अलग-अलग समुदायों के समान तरह के मामलों में दो अलग-अलग तर्क अब नहीं चलेंगे। कानून का राज और सबके लिए एक ही कानून समय की मांग है। अब यह व्यवस्था करनी ही पड़ेगी।
@hiteshshankar
टिप्पणियाँ