सुंदरलाल बहुगुणा भारत के महान पर्यावरण-चिन्तक एवं उत्तराखण्ड में चिपको आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक थे। उन्होंने हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में वनों के संरक्षण के लिए अथक प्रयासों के साथ महान संघर्ष किया था। देश–दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के बड़े समर्थक सुंदरलाल बहुगुणा ने सन 1972 में चिपको आंदोलन की दिशा और दशा बदल कर आंदोलन को नवीन धार देकर देश-दुनिया को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया था। उनके अथक संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही चिपको आंदोलन की गूंज संपूर्ण विश्व में सुनाई पड़ी थी। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सुंदरलाल बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा जुड़ाव था, उनका मानना था कि पारिस्थितिकी ही सबसे बड़ी आर्थिकी है और स्थिर अर्थव्यवस्था स्थिर पारिस्थितिकी पर ही निर्भर करती है।
चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी सन 1927 को उत्तराखंड के टिहरी जिले में भागीरथी नदी किनारे बसे मरोड़ा गांव में हुआ था। 13 साल की अबोध उम्र में ही उत्तराखण्ड के अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई थी। श्रीदेव सुमन से प्रेरित होकर वह बाल्यावस्था में ही देश की आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। वह अपने जीवन में निरंतर संघर्ष करते और जूझते रहे। प्राथमिक शिक्षा के पश्चात वह लाहौर चले गए और वहीं से उन्होंने बी.ए. स्नातक किया। सन 1949 में मीराबेन व ठक्कर बाप्पा के सम्पर्क में आने के बाद से ही वह वंचित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए बेहद प्रयासरत हो गए थे। वंचितों के लिए उन्होंने टिहरी में ठक्कर बाप्पा छात्रावास की स्थापना की थी। वंचितों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आन्दोलन छेड़ दिया था। उन्होंने अपनी पत्नी विमला नौटियाल के सहयोग से उन्होंने सिलयारा में पर्वतीय नवजीवन मण्डल की स्थापना की थी। सन 1971 में शराब की दुकानों के विरोध में सुन्दरलाल बहुगुणा ने सोलह दिन तक अनशन किया था।
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सन 1962 में भारत–चीन युद्ध के पश्चात भारत सरकार ने जब तिब्बत सीमा पर अपनी पैठ मजबूत करने की तैयारी की थी तो कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक बॉर्डर के इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू हुआ था। उस वक्त तात्कालिक उत्तर प्रदेश वर्तमान उत्तराखंड के इलाके में आने वाले चमोली जिले में भी सड़क निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई थी। सड़क बनाने के लिए तो जमीन चाहिए थी और पहाड़ के जंगल वाले इलाकों में बिना पेड़ों को काटे जमीन कैसे मिलती, ऐसे में बड़े पैमाने पर जंगल की कटाई शुरू की गई थी। सन 1972 तक आते-आते पेड़ो की कटाई काफ़ी तेज हो गई थी। पेड़ों को काटने का स्थानीय लोगों ने प्रबल विरोध किया था। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे प्रसिद्ध लोग भी विरोध में सामने आ गए, इसके बाद ही पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने का यह अभियान आसपास के इलाकों में भी फैल गया था। पेड़ो को कटने से बचाने के इसी अभियान को ‘चिपको आंदोलन’ कहा गया था। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे प्रसिद्ध पर्यावरणविद पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व करने लगे थे। कालांतर यह आंदोलन देश-दुनिया में बेहद प्रसिद्ध हो गया था। संपूर्ण दुनिया के पर्यावरण प्रेमी और पर्यावरण संरक्षण में लगे लोग इससे बेहद प्रेरित हुए थे। इस आंदोलन का असर यह हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ‘वन संरक्षण कानून’ लाना पड़ा था। इस आंदोलन के जरिए इस इलाके में पेड़ों की कटाई पर 15 साल के लिए बैन लगा दिया गया था। यहां तक कि केन्द्र सरकार ने अलग से ‘वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’ भी बना दिया था। “चिपको आंदोलन” के कारण वह विश्वभर में “वृक्षमित्र” के नाम से सुप्रसिद्ध हो गए थे।
सुंदरलाल बहुगुणा का सत्याग्रह सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं था, वह बड़े–बड़े बांधों के प्रखर विरोधी थे और उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े बांधों के खिलाफ हुए आंदोलनों में प्रत्यक्ष हिस्सा लिया या उन्हें प्रेरित किया था। सन 1980 के दशक के मध्य में छत्तीसगढ़ के बस्तर के भोपालपटनम में और उससे सटे गढ़चिरौली के इचमपल्ली में प्रस्तावित दो बड़े बांधों को लेकर वनवासियों ने बड़ा आंदोलन किया था। 9 अप्रैल सन 1984 को इस “मानव बचाओ जंगल बचाओ” आंदोलन के अंतर्गत हजारों आदिवासी पैदल चलकर गढ़चिरौली मुख्यालय तक पहुंचे थे। आदिवासी नेता लाल श्यामशाह और सामाजिक कार्यकर्ता बाबा आम्टे के साथ इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए चिपको आंदोलन के प्रवर्तक सुंदरलाल बहुगुणा भी विशेष रूप से वहां उपस्थित रहे थे। टिहरी से करीब 1,800 किमी दूर स्थित गढ़चिरौली में उनकी उपस्थिति ने इस आंदोलन में जोश भर दिया था।
सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार पेड़ों को काटने की अपेक्षा उन्हें लगाना अति महत्वपूर्ण है। पर्यावरण को स्थाई सम्पति मानने वाला यह महापुरुष ‘पर्यावरण गांधी’ बन गया था। सुंदरलाल बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने सन 1980 में इनको सम्मान से पुरस्कृत किया था। उनको अन्तरराष्ट्रीय मान्यता के रूप में सन 1981 में स्टाकहोम का वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार मिला था। सुन्दरलाल बहुगुणा को सन 1981 में पद्मश्री पुरस्कार दिया गया, जिसे उन्होंने यह कह कर स्वीकार नहीं किया कि “जब तक पेड़ों की कटाई जारी है, मैं अपने को इस सम्मान के योग्य नहीं समझता हूं”। समाज में रचनात्मक कार्य के लिए सन 1986 में जमनालाल बजाज पुरस्कार, चिपको आंदोलन के लिए सन में 1987 राइट लाइवलीहुड पुरस्कार, सन 1987 में शेर-ए-कश्मीर पुरस्कार और सरस्वती सम्मान, सन 1989 में आईआईटी रुड़की ने सामाजिक विज्ञान में डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया, सन 1998 में पहल सम्मान, सन 1999 में गाँधी सेवा सम्मान, सन 2000 में सांसदों के फोरम द्वारा सत्यपाल मित्तल एवार्ड, सन 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। इन सम्मान और पुरुस्कारों के अतिरिक्त उन्हें अनेकों सम्मान, पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। 21 मई सन 2021 को 94 वर्ष की आयु में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, ऋषिकेश में उनका निधन हो गया था।
आज अगर हमें लगता है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करके हम अपनी अर्थव्यवस्था को किसी भी ऊंचाई पर पहुंचा सकते हैं, तो हम नीचे से अपनी जमीन को खिसका रहे हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान को लेकर आज दुनिया भर में जो चर्चाएं हो रही हैं, और जिस तरह से जलवायु परिवर्तन का खतरा हमारे ऊपर मंडराने लगा है, यह वही है, जिसकी तरफ सुंदरलाल बहुगुणा ने इशारा किया था। उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए वह छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे, टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के वह बिल्कुल भी पक्षधर नहीं थे। इस बांध परियोजना के विरोध में भी उन्होंने वृहद आंदोलन शुरू कर अलख जगाई थी। आंदोलन के समय उनका नारा था- “धार ऐंच डाला, बिजली बणावा खाला-खाला” यानी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ लगाइये और निचले स्थानों पर छोटी-छोटी परियोजनाओं से बिजली बनाइये। “सादा जीवन उच्च विचार” को आत्मसात करते हुए सुंदरलाल बहुगुणा जीवन पर्यंत प्रकृति, नदियों व वनों के संरक्षण की मुहिम में जुटे रहे।
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