‘बहुत उज्ज्वल है हिंदी का भविष्य’

‘‘धन को मैं धूल समझता हूं, जीवन का मूल समझता हूं। अब याचना नहीं, रण होगा।’

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WEB DESK and पाञ्चजन्य ब्यूरो

‘सागर मंथन’ के सुशासन संवाद में एक सत्र हिंदी और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी पर केंद्रित था। वरिष्ठ पत्रकार अनुराग पुनेठा के संचालन में हुए इस सत्र में वाणी प्रकाशन की कार्यकारी निदेशक अदिति माहेश्वरी ने हिंदी के उज्ज्वल भविष्य पर अपने विचार व्यक्त किए, जिसके संपादित अंश इस प्रकार हैं

आज बड़े प्रकाशन जो पत्रिकाएं छाप रहे हैं, उनमें और पाञ्चजन्य में कोई तुलना ही नहीं है। ‘पाञ्चजन्य’ की पत्रकारिता बेबाक है। आज भारत की कौन-सी पत्रिका है, जो एमेजॉन पर सवाल खडे कर सकती है? कुनीतियों और कुरीतियों को ‘पाञ्चजन्य’ ही रेखांकित कर सकती है।

इसी पत्रिका में रामधारी सिंह दिनकर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ, जिसमें वह कहते हैं, ‘‘धन को मैं धूल समझता हूं, जीवन का मूल समझता हूं। अब याचना नहीं, रण होगा।’’ 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी कहते हैं, ‘‘उल्लास कैसे मनाऊं, अभी तो आजादी अधूरी है।’’ विचार की दृष्टि से दिनकर जी और पाञ्चजन्य के तत्कालीन संपादक स्व. अटल बिहारी वाजपेयी भले ही भिन्न हों, लेकिन ‘पाञ्चजन्य’ में सबके लिए स्थान था और आज भी है। देश को जानने-समझने का यह उदार तरीका कहीं और देखने को नहीं मिलता है।
केरल में जब कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी, तब अटल जी ने अपने भाषण में कहा था कि कम्युनिस्ट पार्टी के पास यह साबित करने का बहुत अच्छा मौका है कि वे लोकतांत्रिक तरीके से सरकार चला सकते हैं। जो यह उनके डीएनए के खिलाफ है। उन्होंने बहुत बड़ी बात कही थी। अटल जी सीधा और साफ बोलते थे।

1985-88 के बाद साहित्य की मांग भी बहुत थी और इस क्षेत्र में शोध भी होने लगे थे।  लेकिन 1990 के दशक में हिंदी साहित्य का स्तर काफी गिर गया। एक ही ढर्रें पर किताबें लिखी जा रही थीं। लेकिन सोशल मीडिया के आने के बाद यह फायदा हुआ है कि आज अपनी बात रखने के लिए सभी के पास अपना मंच है। कोई किसी का मोहताज नहीं है। इससे ‘मठाधीशी’ टूटी है। यह बहुत सुकून वाला समय है, क्योंकि अगर आप कुछ प्रतिपादित कर रहे हैं, कोई विचार रख रहे हैं तो आपके समर्थक भी हैं, आपके खिलाफ खड़े होने वाले लोग भी हैं। इस समय अनेक युवा लेखक हमारे साथ जुड़ रहे हैं तो कई ऐसे हैं जो पौराणिक ग्रंथों को पढ़कर दोबारा उस पर काम कर रहे हैं। अतीत में जो चीजें दबा दी गर्इं या विलुप्त हो गर्इं, उनका प्रतिपादन कर रहे हैं, उनको फिर से सामने ला रहे हैं। यह सोशल मीडिया के युग में संभव हो पाया। यह वो मंच है, जिसने सबको लेखक बना दिया है।

90 के दशक में अगर कोई पौराणिक ग्रंथों पर लिखता था तो उसका बहिष्कार किया जाता था। लेकिन नरेन्द्र कोहली जी तटस्थ रहे, इसलिए कालजयी हो गए। राम काव्य, महाभारत पर उनका बहुत बड़ा काम है। आज अंग्रेजी के तथाकथित बड़े लेखक पूरा का पूरा कॉपी-पेस्ट कर रहे हैं, यह उन्हीं किताबों को पढ़कर समझ पा रही हूं। 

एक जमाना था, जब स्व. नरेंद्र कोहली अपने खेमे के अकेले लेखक नजर आते थे। 90 के दशक में अगर कोई पौराणिक ग्रंथों पर लिखता था तो उसका बहिष्कार किया जाता था। लेकिन कोहली जी तटस्थ रहे, इसलिए कालजयी हो गए। अब समय बदल गया है। नरेंद्र कोहली द्वारा लिखित ‘महासमर’ संभवत: हिंदी का सबसे बड़ा उपन्यास है। यह नौ खंडों में है। हमने चार संस्करणों में इसे प्रकाशित किया है। इसमें एक डीलक्स संस्करण है जो बॉक्स संस्करण है, एक हार्ड बाउंड संस्करण है, एक पेपर बैक संस्करण है और एक ई-संस्करण, जिसमें डिजिटल प्रतियां भी हैं। सारे संस्करण बिकते हैं। ‘महासमर’ का पहला खंड 1988 में आया था और आखिरी खंड 2014 में आया। इतने साल यह पूरी शृंखला चली। इस दौरान ऐसे मौके आए, जब उन पर प्रहार हुए। लेकिन वे अपने काम में जुटे रहे, अपने संकल्प से पीछे नहीं हटे। राम काव्य, महाभारत पर उनका बहुत बड़ा काम है। आज अंग्रेजी के तथाकथित बड़े लेखक पूरा का पूरा कॉपी-पेस्ट कर रहे हैं, यह उन्हीं किताबों को पढ़कर जान और समझ पा रही हूं।

वाणी प्रकाशन आने वाले समय में अटल बिहारी वाजपेयी पर नौ खंडों में पुस्तक प्रकाशित करेगा। इसमें संसद में और संसद के बाहर अटल जी के वक्तव्यों का लेखा-जोखा है। मीडिया, साहित्य और विज्ञापन में हिंदी की तुलना में अंग्रेजी में अधिक वेतन पैकेज की बात करें तो बीते लगभग 9-10 साल में युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति जो आत्मसम्मान बढ़ा है, वह अविस्मरणीय है। मैं उस पीढ़ी से हूं, जो बहुत भ्रमित थी। इस पीढ़ी को यह समझ ही नहीं आता था कि किधर जाएं। इसका कारण यह था कि हमारे प्रतिमान ही भ्रामक थे। एक तरफ हमें कहा जाता था कि हमारे पौराणिक ग्रंथ ‘काल्पनिक’ हैं, दूसरी तरफ कहा जाता था कि सामाजिक अवधारणा और उसके पीछे जो संघर्ष है, वही शाश्वत है। रस सिद्धांत गलत है और किसी भी तरीके का सामाजिक संघर्ष और उस पर बने खास सिद्धांत ही शाश्वत हैं। इसलिए हमें यह समझ में ही नहीं आया कि उसे ग्रहण करें या न करें। लेकिन अब की युवा पीढ़ी में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है। उसमें राष्ट्रीय अस्मिता, अपनी अस्मिता और अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति पुनर्जागरण हुआ है। उसमें हीन भावना नहीं है। युवा अपनी मातृभाषा में साहित्य पढ़ते हैं, अपनी मातृभाषा में सोशल मीडिया पर लिखते हैं और खुलकर बात करते हैं। यानी वे बिना संकोच अपनी मातृभाषा को पूरा सम्मान दे रहे हैं। 1977 में संयुक्त राष्ट्र में अटल जी ने अपने भाषण के अंत में ‘जय जगत’ कहा था, ‘जय भारत’ नहीं। इस विचारधारा में एक समग्रता है, जिसका अभिनंदन के साथ पुनर्निर्माण भी करना चाहिए।

शिक्षा क्षेत्र में भी नए तरह से भारत की जमीनी सच्चाई को देखने की चेष्टा बढ़ी है। उदाहरण के लिए, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में ‘पोस्ट ट्रूथ’ पर पहली हिंदी की किताब लिखी जा रही है। मैं गर्व से कह सकती हूं कि इसे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया जाएगा, क्योंकि ‘पोस्ट ट्रूथ’ एक बहुत बड़ी सच्चाई है, जिससे हमें रू-ब-रू होना ही पड़ेगा। अब हम इससे आंखें नहीं चुरा सकते। अभी तक इस पर वैश्विक पटल पर बात हो रही थी। लेकिन अब हिंदी में भी होगी और मुझे लगता है हिंदी में होगी तो भारतीय भाषाओं में भी होगी। कोई भी लेखक या कवि जब तक हिंदी में नहीं आए, वे राष्ट्रीय स्तर के लेखक या कवि नहीं बने, चाहे वे किसी भी भाषा के रहे हों। हिंदी में अनुवाद होते ही उनका जुड़ाव भारतीय चेतना के साथ हो गया और फिर वे राष्ट्रीय हस्ताक्षर बन गए। ‘पोस्ट ट्रूथ’ जैसी अवधारणा का आना हिंदी में बहुत जरूरी है। जब यह हिंदी में आ सकता है तो इसी तरीके से अंतरराष्ट्रीय शोध की कई चीजें अपनी भाषा में लाएंगे।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमारे देश में बहुत चर्चाएं होती हैं। तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा 2017 में चीन में एक कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसमें भारत से साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, वाणी प्रकाशन, भारत के बड़े विश्वविद्यालय से चीनी और मंदारिन भाषा के कुछ विद्वानों का एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया था।

साहित्यिक आदान-प्रदान के तहत वहां के विश्वविद्यालय को अनुवाद के लिए महाश्वेता देवी, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा की पुस्तकें दी गर्इं। बदले में वहां की कुछ पुस्तकों के अनुवाद के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी, वाणी सहित और भी कुछ प्रकाशकों के साथ समझौते हुए। वहां मैं होटल में इंटरनेट पर चीन के ‘सर्वश्रेष्ठ नेता’ के पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ ढूंढ रही थी। एक बार क्लिक किया तो मेरे फोन की स्क्रीन ब्लॉक हो गई। दूसरी और तीसरी बार भी यही हुआ। इसके दो मिनट के अंदर ही होटल के रिसेप्शन से मेरे पास फोन आया, ‘‘मैम! यू आर सर्चिंग फॉर समथिंग व्हिच यू शुड नॉट। आई ऐम सॉरी, वी हैव ब्लॉक्ड योर फोन।’’ (महोदया! आप कुछ ऐसा खोज रही हैं, जो आपको नहीं खोजना चाहिए। मुझे खेद है कि हमने आपका फोन ब्लॉक कर दिया।) यहां तो ट्विटर, फेसबुक, इंस्टग्राम और तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हर व्यक्ति को ‘सब कुछ’ कहने की आजादी है।

 

पिछले दो दशकों में हिंदी के साथ समस्या यह रही कि हिंदी ने अन्य भाषाओं से संवाद कम किया। आज भी जितना अनुवाद होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बायोमेडिकल साइंस, बायोटेक, जीनोनॉमिक्स, माइक्रो इकोनॉमिक्स या किसी भी क्षेत्र में जो शोध हो रहे हैं, उन पर हिंदी में सामग्री बहुत कम उपलब्ध है।

एक प्रकाशक के तौर पर पहले तो हम यही समझने की कोशिश कर रहे थे कि असहमति किस मुद्दे पर है? यही स्पष्ट नहीं हो रहा था। यदि असहमति के मुद्दे मजबूत हों तो असहमति जताई जा सकती है। लेकिन यहां ऐसा कुछ था ही नहीं। कई बातें जो उस दौरान सही बताई गर्इं, वे बाद में गलत साबित हुर्इं। आज देश जिस विकास पथ पर है, इससे बड़ी सच्चाई क्या होगी? आंकड़े झूठ नहीं बोलते हैं। सच्चाई पूरी तरह युवाओं के सामने है। रही बात उनमें गंभीरता की, तो जब यह उठा-पटक चल रही थी, उसमें एक युवा वर्ग ऐसा भी उठा जिसने कहा कि इस वैचारिक मतभेद से अलग भी एक दुनिया है। वह है सृजन की दुनिया और हम उस दुनिया में विश्वास रखते हैं। हम उस दुनिया के साथ जिएंगे। मतलब यह कि इस युवा वर्ग ने अपना रास्ता ढूंढा। आज ओटीटी प्लेटफॉर्म पर फिल्म पटकथा लेखन, गीत लेखन, पौराणिक लेखन, क्राइम-फिक्शन लेखन का एक नया बाजार तैयार हुआ। इसी युवा वर्ग ने नॉन फिक्शन में मौजूदा मुद्दों पर नए तरीके की टीका-टिप्पणियां प्रस्तुत कीं। कहने का मतलब यह है कि यह युवा वर्ग विकल्प खड़े करने वाला है। इसे नकार नहीं सकते हैं। आज यह युवा वर्ग कहीं न कहीं मजबूती से काम कर रहा है और नैरेटिव को काउंटर नैरेटिव देने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

मैं फिर ‘पाञ्चजन्य’ की बात करती हूं, क्योंकि अगर मैं सामाजिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका मूल्यांकन करूं तो मुझे लगता है कि ‘पाञ्चजन्य’ एक ऐसा मंच है, जहां विविध विचारधारा के लोग आकर संरचनात्मक संवाद स्थापित कर सकते हैं, जो कहीं और होना मुश्किल है। 1952 में ‘रश्मिरथी’ लिखी गई और लगभग 1958 में रामधारी सिंह दिनकर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। ‘पाञ्चजन्य’ पत्रिका में ऐसे कितने मोती और हीरे-जवाहरात हैं, जिनको अभिलेखागार से संकलित करके इन युवाओं के सामने रखने की बहुत जरूरत है। आज क्यों न इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों के साक्षात्कार फिर से पाञ्चजन्य में प्रकाशित किए जाएं। क्यों न सड़क और इसके विकास पर एक पूरा संस्करण ही दिया जाए। इसी तरह, सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था पर भी एक संस्करण निकाला जा सकता है। हमारे पास अपने युवाओं को देने के लिए एक मजबूत दस्तावेज है। हिंदी का भविष्य इसलिए भी उज्ज्वल है, क्योंकि हिंदी जमीन की भाषा है।

अदिति ने कहा कि पिछले दो दशकों में हिंदी के साथ समस्या यह रही कि हिंदी ने अन्य भाषाओं से संवाद कम किया। आज भी जितना अनुवाद होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बायोमेडिकल साइंस, बायोटेक, जीनोनॉमिक्स, माइक्रो इकोनॉमिक्स या किसी भी क्षेत्र में जो शोध हो रहे हैं, उन पर हिंदी में सामग्री बहुत कम उपलब्ध है। हिंदी पर वाद-विवाद तो बहुत आगे बढ़ा है, लेकिन संवाद अभी भी कम है। इसलिए हिंदी को अपना आंगन थोड़ा और खोलना पड़ेगा, तब जाकर दूसरे विचारों का आगमन होगा। हम सब सीमित संसाधनों में जो कर सकते हैं, उसे करने की कोशिश करते हैं। हम नोबल पुरस्कार विजेताओं के बारे में, विश्व के अर्थशास्त्रियों के बारे में हिंदी में प्रकाशित करते हैं। उनके अधिकार लेने जर्मनी, लंदन, पेरिस पुस्तक मेले में जाते हैं। लेकिन इससे इतर भी हम बहुत कुछ करने की कोशिश करते हैं। हमें सहयोग चाहिए। अगर सरकार से सहयोग मिल जाए, तो बहुत अच्छी बात है। अन्यथा जितना काम चल रहा है, उसे और जितने अच्छे से हो पाएगा करेंगे।

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