कोरोना की अगली लहर चाहे आए या न आए, भारत को ऐसे संकट काल में चिताओं पर रोटियां सेंकने वालों से लगातार सतर्क रहना होगा। देखिए, पिछली बार क्या किया था उन्होंने…
अब देखिए, भारत के नागरिकों के लिए खतरे का असली स्रोत कहां है। कौन है देश की स्वास्थ्य रक्षा तक से ईर्ष्या रखने वाला? क्या किया था उसने, जब देश संकट में था?
तब्लीगी जमात- याद कीजिए, मार्च 2020 के तीसरे सप्ताह में जब कोरोना महामारी रफ्तार पकड़ने लगी थी, तो केंद्र सरकार ने पहले 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगाया, फिर 24 मार्च को 21 दिन के लिए देशव्यापी संपूर्ण लॉकडाउन लगाया। बाद में इसकी अवधि बढ़ाकर 3 मई तक कर दी गई। इस दौरान सब कुछ बंद था। लोग घरों में कैद हो गए थे। दफ्तर-बाजार, आवाजाही और मंदिरों के कपाट बंद थे, लेकिन लोग सुरक्षित थे। सऊदी अरब ने भी हज पर भी पाबंदी लगा दी थी, लेकिन भारत के मुसलमानों के एक वर्ग का एजेंडा शायद कुछ और था। दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, कर्नाटक सहित पूरे देश में मुसलमान लॉकडाउन का उल्लंघन कर नमाज के नाम पर मस्जिदों में उमड़ते रहे।
जब पुलिस ने मस्जिदों से नमाजियों को हटाने की कोशिश की, तो पुलिस टीम और सुरक्षाबलों पर हमले किए गए। मुसलमानों को उकसाने के लिए यह बात फैलाई गई कि कोरोना का असर मुसलमानों पर नहीं होगा। शायद यह भी काफी नहीं था, लिहाजा चीन, यमन, बांग्लादेश, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, ईरान, मलेशिया सहित 40 देशों के जमाती मुसलमानों को, बड़ी संख्या में भारतीय मुसलमानों के साथ मार्च में दक्षिण दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन स्थित तब्लीगी मरकज जमात में एकत्र कराया गया, ताकि किसी तरह तो कोरोना फैले! किसी तरह तो लॉकडाउन और शारीरिक दूरी बनाए रखने के दिशानिर्देशों को विफल किया जाए। ये सारे जमाती निजामुद्दीन मरकज में जमे रहे। पुलिस जब इन्हें मरकज से अस्पतालों में ले जा रही थी, तब ये पुलिसबल से बदतमीजी कर रहे थे। अस्पताल पहुंचने पर नर्सों से बदतमीजी करना, इधर-उधर थूकना-खांसना, यह सब एजेंडा नहीं, तो क्या था?
गांवों तक महामारी फैलाने का षड्यंत्र- कोरोना के पहले पहले और दूसरे चरण में शहरों में महामारी चरम पर थी, लेकिन उस पर नियंत्रण पाने के प्रयास भी बने हुए थे। कोरोना के विरुद्ध संघर्ष में भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा या संकट पैदा करने के लिए जरूरी था कि कोरोना को देश के ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाया जाए। यह काम कम से कम दो राज्य सरकारों की शह पर बड़े पैमाने पर किया गया कि शहरों से संक्रमण को गांवों तक ले जाया जाए। पहले लॉकडाउन के दौरान दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रमिकों को बसों में भर-भर कर उत्तर प्रदेश सीमा के निकट आनंद विहार बस अड्डे पर असहाय छोड़ दिया। लोगों में माइक पर प्रचार करके यह अफवाह फैलाई गई कि लॉकडाउन लंबा खिंचेगा। झुग्गी बस्तियों में मुनादी करवाई गई कि कोरोना फैल रहा है, अपने घर जाएं। यही नहीं, यह भी कहा गया कि बसें आनंद विहार से जा रही हैं और मुफ्त सेवा है।
यह उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए दोहरी चुनौती थी। अगर वह लोगों के लौटने की व्यवस्था नहीं करती, तो दुष्प्रचार बढ़ता, और अगर करती, तो संक्रमण बढ़ने का खतरा पैदा होता। योगी सरकार ने हजारों लोगों को बसें चला कर सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाया। यही काम दूसरे लॉकडाउन के दौरान महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी गठबंधन सरकार ने किया। अफवाहें फैला कर, राशन और दवाइयां बंद करके, जबरन नौकरियां छुड़ाकर उत्तर प्रदेश और बिहार के हजारों श्रमिकों को घर लौटने के लिए मजबूर किया गया। रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर भीड़ जुटती रही और सरकार उसे खुला प्रोत्साहन देती रही। जो हताश लोग पैदल ही चल पड़े, सोशल मीडिया पर उन्हें प्रचारित करवा कर भारत के लिए एक और समस्या पैदा करने की कोशिश की गई। रेलवे में भीड़ लगाने से लेकर टिकटों तक के नाम पर राजनीति की गई। मकसद यही था कि कोई जान से जाए, पर ‘उनकी’ राजनीति चमकनी चाहिए।
स्वार्थ की राजनीति- कोरोना की पहली लहर में तो कांग्रेस सारी हदें पार कर गई। जिस समय लोगों से कहा गया कि ‘जहां हैं, वहीं रहें’, उस समय कांग्रेस ने लोगों को मुंबई छोड़ने के लिए उकसाया। बिहार और उत्तर प्रदेश जाने के लिए लोगों को मुफ्त टिकट बांटे। यह बात खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में कही। विपक्षी दलों ने न केवल लॉकडाउन तोड़ा, बल्कि लोगों को लॉकडाउन तोड़ने के लिए उकसाया और हजारों श्रमिकों की जान मुश्किल में डाल दी। नीयत वही कि किसी तरह कोरोना ऐसे फैले कि सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा हो।
महामारी की आड़ में एजेंडा- पहली लहर में जब कोरोना पांव पसार रहा था, तब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल विधानसभा में अपने विधायकों को यह कह कर बरगला रहे थे कि ‘‘स्वस्थ आदमी को मास्क बिल्कुल नहीं पहनना है। मास्क पहनने से कई बार उल्टा असर हो सकता है।’’ यही नहीं, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में मुसलमानों द्वारा किए जा रहे धरना-प्रदर्शन को भी केजरीवाल सरकार से पूरा प्रश्रय दिया जाता रहा। निजामुद्दीन मरकज में 5,000 जमातियों के जुटने में आआपा के कई नेता शामिल रहे। होते-होते जब पूरी दिल्ली ‘रेड जोन’ में बदल गई, तो केजरीवाल ने रमजान के नाम पर महीने भर के लिए बाजार खोल दिए। मई के पहले सप्ताह में शराब की दुकानें, मॉल, बाजार, दुकानें, रेस्टोरेंट आदि भी खोल दिए गए।
जान से खिलवाड़- महामारी के दौर में भी कालाबाजारी नहीं थमी। नकली वैक्सीन और नकली जांच किट बेची जा रही थीं। जिन कंपनियों को कोरोना जांच का ठेका दिया गया, उन्होंने भी फर्जीवाड़ा किया। जिन्होंने जांच नहीं कराई, उन्हें भी संदेश भेजे गए कि उन्होंने जांच करा ली। फिर अफवाह यह फैलाई गई कि देश में विकसित कोरोना टीका लगाने से ‘लोगों की मौत’ हो रही है। उत्तर प्रदेश की एक वंशवादी पार्टी के नेता ने अपने समर्थकों को यह कह कर उकसाया कि ‘‘हम बीजेपी की वैक्सीन का प्रयोग नहीं करेंगे।’’ हालांकि उनके पिता वही वैक्सीन खुशी-खुशी लगवा चुके थे। यही रवैया कांग्रेस शासित प्रदेश सरकारों का था, जो टीकाकरण की राह में हर संभव बाधा डाल रही थीं।
पूर्व में कोरोना महामारी की दो लहरों में जिस तरह सरकार के प्रबंधन को पटरी से उतारने और विदेशों में देश, खासतौर से प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल करने के प्रयास किए गए, उसे देखते हुए इस बार उन तत्वों और राजनीतिक दलों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। कांग्रेस इस बार भी सरकार की अपील को ठुकरा कर अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है।
टीकाकरण में अड़चनें- कांग्रेस के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल विदेशी टीका मंगाने का दवाब डाल रहे थे। मनमोहन सिंह ने इसके लिए प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा। मीडिया का एक धड़ा भी विदेशी टीके का राग अलाप रहा था। वहीं, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की भाजपा सरकारें करोड़ों रुपये की नकली वैक्सीन और टेस्ट किट बेचने वालों और जांच में हेराफेरी करने वालों की धरपकड़ कर रही थीं।
टीके पर रार- छत्तीसगढ़ जैसे कांग्रेस शासित राज्यों ने तो केंद्र द्वारा उपलब्ध कराई गई स्वदेश निर्मित कोरोना वैक्सीन को अपने यहां लोगों को लगवाने से ही इनकार कर दिया था। राजस्थान में बड़े पैमाने पर वैक्सीन कूड़े में फेंकी गई। यह भ्रम भी फैलाया गया कि लगभग 1.40 अरब की आबादी वाले देश में कोरोना वैक्सीन के लिए लोगों को ाबरसों तक इंतजार’ करना पड़ेगा। इसके बाद दांव चला गया कि विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों को अपने स्तर पर वैक्सीन खरीदने की छूट दी जाए, ताकि वैक्सीन की सप्लाई चेन बाधित की जा सके।
आक्सीजन की कमी का हौव्वा- इसी तरह, कोरोना की दूसरी लहर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह दुष्प्रचार फैलाया गया कि देश के अस्पतालों में आक्सीजन की भारी कमी है। दिल्ली के संदर्भ में ही बात करें तो उच्च न्यायालय ने 20 अप्रैल, 2021 को आदेश दिया था, जिसमें न्यायालय ने कहा कि केंद्र सरकार ने दिसंबर 2020 में ही दिल्ली सरकार को आठ आॅक्सीजन प्लांट लगाने को कहा था। लेकिन आआपा सरकार ने केवल एक प्लांट लगाया। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने 480 मिट्रिक टन आक्सीजन दिल्ली सरकार को आवंटित की थी, लेकिन आआपा सरकार ने आक्सीजन मंगाने के लिए टैंकर ही नहीं भेजे। जहां दिल्ली सरकार को 20 टैंकर भेजने चाहिए थे, वहां केवल दो भेजे और वह आक्सीजन की किल्लत का रोना रोती रही।
वैक्सीन कूटनीति पर हाय-तौबा- महामारी काल में भारत ने जब वैक्सीन कूटनीति के तहत सार्क देशों सहित दुनिया भर को वैक्सीन भेजना शुरू किया, तो इस पर भी वितंडा खड़ा किया गया। कहा गया कि ‘देश में वैक्सीन नहीं है और केंद्र सरकार दुनिया को वैक्सीन बांट रही है’, जबकि सच्चाई यह थी कि देश में वैक्सीन का पर्याप्त स्टॉक था। दुनिया भारत की वैक्सीन कूटनीति की सराहना कर रही थी, पर देश के सेकुलर राजनीतिक दल सरकार व देश को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे।
कांग्रेस की टूल किट- कांग्रेस ने सरकार के कोविड प्रबंधन को पटरी से उतारने के लिए और कोरोना महामारी के समय देश और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के लिए टूलकिट का भी प्रयोग किया। मुंबई में 26 नवंबर, 2020 को जो हुआ, वह भी इसी टूलकिट का हिस्सा था।
टूलकिट साजिश कथित किसान आंदोलन की आड़ में रची गई। राहुल गांधी सहित कांग्रेस के कुछ नेता कोरोना के नए वैरिएंट के लिए ‘मोदी वैरिएंट’, वायरस के डबल म्यूटेंट के लिए ‘इंडियन म्यूटेंट’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते रहे। विदेशी मीडिया में जलते शवों की तस्वीरें छपवाई गईं, ताकि सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा सके। नदियों में विसर्जित किए गए शवों को भगवा कपड़ों में दिखा कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को बदनाम करने की साजिश को अंजाम दिया गया। इसी षड्यंत्र के तहत उत्तराखंड में चल रहे कुंभ को कोरोना के ‘सुपर स्प्रेडर’ की संज्ञा दी गई। लेकिन ईद के साथ कुंभ को जोड़ने की बहस से बचने की नसीहत दी गई थी। इतना ही नहीं, पीएम केयर्स फंड के उपयोग पर भी बखेड़ा खड़ा किया गया।
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