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विज्ञान और प्रकृति से कोसों दूर है ग्रेगरियन कैलेंडर (ईस्वी सन्)

by WEB DESK
Dec 31, 2022, 02:23 pm IST
in भारत
ग्रेगरियन कैलेंडर (ईस्वी सन्)

ग्रेगरियन कैलेंडर (ईस्वी सन्)

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ईसाई नववर्ष के आगमन का स्वागत नाच-गाने, उच्श्रृंखलता, रात-रात भर होटलों में शराब के नशे में मौजमस्ती करना इत्यादि के साथ होता है, परन्तु भारतीय नववर्ष का स्वागत नवरात्र पूजन, देवी पूजन और व्रत इत्यादि के साथ प्रारम्भ होता है।

-नरेन्द्र सहगल

31 दिसम्बर की रात को मौजमस्ती करके नए वर्ष का स्वागत करने वाले लोगों के प्रति हमदर्दी जताते हुए यह निवेदन है कि वे इस अंतर्राष्ट्रीय मस्ती में अपने भारत के गौरवशाली अतीत और सांस्कृतिक धरोहर को न भूलें। इस नववर्ष की पृष्ठभूमि को समझना आज के संदर्भ में जरूरी है।
इस समय विश्व में 70 से अधिक कालगणनाएं प्रचलित हैं, उनसे सम्बन्धित देशों में उनके नववर्ष अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुसार आते हैं और अपने-अपने देश के सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार मनाए जाते हैं। परन्तु इन सभी कालगणनाओं का आधार सारे ब्रह्मांड को व्याप्त करने वाला कालतत्व न होकर व्यक्ति विशेष, घटना विशेष, वर्ग विशेष, सम्प्रदाय विशेष अथवा देश विशेष है।

ईस्वी सन् का प्रारम्भ ईसा की मृत्यु पर आधारित है। परन्तु उनका जन्म और मृत्यु अभी भी अज्ञात है। ईस्वी सन् का मूल रोमन सम्वत् है। यह 753 ईसा पूर्व रोमन साम्राज्य के समय शुरू किया गया था। उस समय उस सम्वत् में 304 दिन और 10 मास होते थे। जनवरी और फरवरी के मास नहीं थे। ईसा पूर्व 56 वर्ष में रोमन सम्राट जूलियस सीजर ने वर्ष 455 दिन का माना। बाद में इसे 365 दिन का कर दिया गया।
जूलियस सीजर ने अपने नाम पर जुलाई मास भी बना दिया और उसके पोते अगस्तस ने अपने नाम पर अगस्त का मास बना दिया। उसने महीनों के बाद दिन संख्या भी तय कर दी। इस प्रकार ईस्वी सन् में 365 दिन और 12 मास होने लगे। फिर भी इसमें अंतर बढ़ता चला गया, क्योंकि पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने के लिए 365 दिन 6घंटे 9 मिनट और 11 सेकेंड लगते हैं। इस तरह ईस्वी सन् 1583 में इसमें 18 दिन का अंतर आ गया।

तब ईसाइयों के पांथिक गुरु पोप ग्रेगरी ने 4 अक्तूबर को 15 अक्तूबर बना दिया और आगे के लिए आदेश दिया कि चार की संख्या में विभाजित होने वाले वर्ष में फरवरी मास 29 दिन का होगा। लेकिन बाद में इसमें असंतुलन पैदा होने लगा। दरअसल, यह असंतुलन पृथ्वी के कारण पैदा होता है। बता दें कि सूर्य का चक्कर लगाने में पृथ्वी 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट और 11 सेकेंड का समय लेती है। इस कारण हर वर्ष छह घंटे अतिरिक्त बच जाते हैं। इस तरह चार वर्ष में 24 घंटे अतिरिक्त बचने से एक दिन का समय बच जाता है। इस 24 घंटे को समायोजित करने के लिए हर चार वर्ष में फरवरी के महीने में एक दिन जोड़ा जाता है। इस कारण फरवरी महीने में कभी 28 दिन तो कभी 29 दिन होते हैं।
ईसाई सम्वत् के बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पहले इसका आरम्भ 25 मार्च को होता था, परन्तु 18वीं शताब्दी से इसका आरम्भ 1 जनवरी से होने लगा। इस कैलेंडर में जनवरी से जून तक के नाम रोमन देवी-देवताओं के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त का सम्बन्ध जूलियस सीजर और उसके पोते अगस्तस से है। इसी तरह सितम्बर से दिसम्बर तक के मासों के नाम रोमन सम्वत् के मासों की संख्या के आधार पर हैं, जिसका क्रमशः अर्थ है 7, 8, 9 और 10। इससे ही ईस्वी सन् के खोखलेपन की पोल और ईसाई जगत की अवैज्ञानिकता प्रकट हो जाती है।
इसके विपरीत भारत में मासों का नामकरण प्रकृति पर आधारित है। चित्रा नक्षत्र वाली पूर्णिमा के मास का नाम चैत्र है। विशाखा का वैशाख है। ज्येष्ठा का ज्येष्ठ है। श्रवण का श्रावण है। उत्तराभद्रपद का भाद्रपद है। अश्विनी का अश्विन है। कृतिका का कार्तिक है। मृगशिरा का मार्गशीर्ष। पुष्य का पौष। मघा का माघ और उत्तरा फाल्गुनी का फाल्गुन मास होता है।

इसी तरह भारत में 354 दिन के बाद वर्ष और 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 11 सेकेंड के अंतर को दूर करने के लिए हमारे वैज्ञानिकों ने 2 वर्ष 8 मास 16 दिन के उपरांत एक अधिक मास या पुरुषोत्तम अथवा मलमास की व्यवस्था करके कालगणना की प्राकृतिक शुद्धता और वैज्ञानिकता बरकरार रखी है।
उपरोक्त तथ्यों के संदर्भ में यही उचित होगा कि हम सभी भारतवासी पूर्णतः वैज्ञानिकता और प्रकृति के नियमों पर आधारित अपनी युगों की वैज्ञानिक एवं वैश्विक भारतीय कालगणना का प्रयोग करें। इस कालगणना का प्रथम दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा श्री ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि रचना का दिन होने के कारण यह वर्ष प्रतिपदा केवल हम भारतवासियों के ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए पूजनीय है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ कुछ ऐसी विशेष घटनाएं सम्बंधित हैं जिनके कारण इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रभु श्रीरामचन्द्र का राज्याभिषेक, धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक, विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत् का शुभारम्भ, सम्राट शालिवाहन का शक सम्वत्, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन।

अतः इधर—उधर से जोड़तोड़, मनगढ़ंत कल्पनाओं, मिथ्या सिद्धान्तों और कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा – भनुमति ने कुनबा जोड़ा के नमूने पर बने ईस्वी सन् के नववर्ष को ईसाई जगत तो मनाए यह समझ में आता है परन्तु हम भारतीय इसके पीछे अपनी परम्पराओं की सुधबुध खोकर लट्टू हो जाएं, यह बात समझ में नहीं आती।

यूरोपीय ईसाई सम्राज्य के प्रभावकाल में यह ईसाई कालगणना हम पर थोपी गई थी। उस समय की मानसिक दासता के कारण हम ईसाई वर्ष को मनाते चले आ रहे हैं। यह हमारे लिए लज्जा का विषय नहीं है क्या? आइये हम इसका परित्याग कर अपना भारतीय नववर्ष हर्षोल्लास से मनाएं। यह भी ध्यान रखें कि इस ईसाई नववर्ष के आगमन का स्वागत नाच-गाने, उच्श्रृंखलता, रात-रात भर होटलों में शराब के नशे में मौजमस्ती करना इत्यादि के साथ होता है। परन्तु भारतीय नववर्ष का स्वागत नवरात्र पूजन, देवी पूजन और व्रत इत्यादि के साथ प्रारम्भ होता है।

 

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