उज्जैन में नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि बरसों तक उपेक्षित रही। उन्हें अपना पीर बताकर मुसलमानों ने समाधि स्थल पर कब्जा कर लिया, जो लंबी लड़ाई के बाद अब हिंदुओं के पास है। हालांकि 2,000 वर्ष का इतिहास होने के बावजूद यह स्थान तकनीकी कारणों से एएसआई की सूची में नहीं है
किसी ऐतिहासिक धरोहर की उपेक्षा का परिणाम समाज के लिए कितना घातक सिद्ध हो सकता है, इसका जीता-जागता प्रमाण है मध्य प्रदेश के उज्जैन स्थित नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि। स्कन्द पुराण, नारद पुराण, शंकर दिग्विजय, ज्ञानेश्वर चरित्र आदि ग्रंथों में योगी मत्येंद्रनाथ का उल्लेख मिलता है। श्रुतियों के अनुसार इनका जन्म मछली के पेट से हुआ था, इसलिए इन्हें मत्स्यनाथ, मीनानाथ और सिद्धिनाथ भी कहते हैं। आदि शिव इनके गुरु थे। इनकी योग रचना ‘मत्स्येंद्र संहिता’ बहुत प्रसिद्ध है। योगी मत्स्येंद्रनाथ ने उज्जैन स्थित गढ़कालिका क्षेत्र को अपनी तपोस्थली बनाया था। यहीं उन्होंने देह त्यागी, जहां उनकी समाधि बनी। उज्जैन उस समय उज्जयिनी के नाम से जाना जाता था। गुरु गोरखनाथ इनके शिष्य थे, जिन्होंने नाथ संप्रदाय को देशभर में विस्तार दिया।
गुरु गोरखनाथ ने गढ़कालिका क्षेत्र में ही साधना की और राजा भर्तृहरि (भरथरी) को भी यहीं दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया। चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य उनके भाई थे, जिन्हें राजपाट सौंप कर भर्तृहरि ने वैराग्य धारण किया था। लेकिन यह पावन स्थली सैकड़ों साल तक उपेक्षित रही। नतीजा, अंग्रेजों के शासनकाल में मुसलमानों ने योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि पर कब्जा कर लिया। चूंकि नाथ संप्रदाय में गुरु को पीर कहने की परंपरा थी, इसलिए उन्हें पीर मत्स्येंद्रनाथ भी कहा जाता था। कालांतर में यही अपभ्रंश होकर पीर मछिन्दरनाथ हो गया और मुसलमान उन्हें अपना पीर बताने लगे। 1970 के दशक में जूना अखाड़े से जुड़े एक साधु स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती उज्जैन पहुंचे। उन्हें समाधि पर विशेष प्रभामंडल दिखाई दिया और वे इस क्षेत्र की आध्यात्मिक ऊर्जा से बंधकर रह गए। वे दिनभर मधुकरी के लिए भ्रमण करते और सांध्यकाल होने पर समाधि पर पहुंच जाते थे।
लंबे समय तक उनकी यही दिनचर्या रही। यह बात मुसलमानों के गले नहीं उतरी। कुछ मुसलमान उनका विरोध करने लगे, क्योंकि योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि पर अपना दावा जताते थे। मुसलमानों का कहना था कि हमारे पीर के स्थान पर साधु क्यों ठहरा है। लिहाजा, वे स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती को परेशान करने लगे। समाधिस्थल पर उन्होंने अपना भगवा वस्त्र सूखने को डाला तो मुसलमानों ने उसे उठा लिया और लौटाने से भी इनकार कर दिया। तब हिंदू समुदाय के कुछ वरिष्ठ समाजसेवी आगे आए। स्वामी जी का वस्त्र हासिल करने के लिए उन्होंने पुलिस की मदद ली और फिर समाधिस्थल को मुसलमानों के अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए अभियान चलाया। पूर्व पार्षद मदनलाल शर्मा, स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र रघुवंशी (काका जी) और मदनलाल दीसावल जैसे समाजसेवियों द्वारा चलाए गए अभियान से आगे चलकर माली समाज के वे लोग भी जुड़ गए, जिनके खेत समाधिस्थल के आसपास थे।
पहले इन लोगों ने समाधिस्थल पर गुरुवार को पूजा करने की अनुमति मांगी, फिर शरद पूर्णिमा के अवसर पर इस स्थान पर सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति ली। लेकिन मुसलमान कब्जा छोड़ने को राजी नहीं थे। तब प्रशासन के साथ स्थानीय अदालत को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। हालांकि इस स्थान पर किसी मुस्लिम पीर या सूफी के होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। जबकि कई ग्रंथों में योगी मत्येंद्रनाथ का उल्लेख जरूर मिलता है। चूंकि मुगल काल और उसके बाद मराठा काल में इस स्थल का पुनर्निर्माण हो चुका था, इसलिए यहां किसी तरह के पुरातात्विक अवशेष नहीं मिले। इसीलिए पुरातत्व विभाग ने इस पर गौर नहीं किया। मध्य प्रदेश पुरातत्व विभाग ने समाधि स्थल पर एक बोर्ड लगाकर पल्ला झाड़ लिया, जिस पर लिखा है ‘‘यह स्थल नाथ संप्रदाय से जुड़ा होने के कारण संभवत: नाथपंथियों ने इसे बनवाया और मराठा काल में इसमें परिवर्तन किए गए हैं।’’ हालांकि इस स्थान का 2,000 साल का इतिहास है, जो कई ग्रंथों में मिलता है। पुरातत्व विभाग के अधीक्षक डॉ. रमेश यादव कहते हैं, ‘‘यह स्थान पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक की सूची में नहीं है, क्योंकि समय-समय पर इसका पुनर्निर्माण होता रहा है। कोई पुरावशेष नहीं मिलने पर पुरातत्व विभाग कैसे इसे संरक्षित कर सकता है?’’
बहरहाल, अदालत में लंबी लड़ाई के बाद हिंदुओं के पक्ष में फैसला आया। इसके बाद धीरे-धीरे यह स्थान हिंदू धर्मस्थल का स्वरूप पा सका और मुसलमानों के कब्जे से मुक्त हुआ। महत्वपूर्ण बात यह है कि योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि से महज 500 मीटर दूरी पर भर्तृहरि गुफा है, जहां गुरु गोरखनाथ के शिष्य राजा भर्तृहरि ने तपस्या की थी। यह गुफा आज भी नाथ संप्रदाय के पास है। यहां संप्रदाय का मठ भी है। लेकिन राजा भर्तृहरि के दादा गुरु की समाधि उपेक्षित रही, जिस पर मुसलमानों ने कब्जा जमा लिया। आज भी यह समाधि स्थल नाथ संप्रदाय के आधिपत्य में नहीं है।
उज्जैन नगर निगम के पूर्व सभापति और समाधिस्थल पर शरद पूर्णिमा पर ‘शरदोत्सव’ आयोजित करने वाली समिति के उपाध्यक्ष सोनू गहलोत कहते हैं, ‘‘देश की आजादी के बाद सरकारों की उपेक्षा के कारण ही योगी मत्स्येंद्रनाथ की समाधि पर मुस्लिम समुदाय उर्स आयोजित करता रहा और सही तथ्य सामने नहीं आने दिए गए।’’ शरदोत्सव समिति के अध्यक्ष और पत्रकार डॉ. प्रकाश रघुवंशी कहते हैं कि समाधिस्थल को मुसलमानों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए समाजसेवियों ने पहले शरद पूर्णिमा पर वार्षिक आयोजन ‘शरदोत्सव’ की अनुमति मांगी। इसके बाद इसी दिन समाधि स्थल से शोभायात्रा निकालनी शुरू की और बाद में पूजा-अर्चना आरंभ की गई।
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