स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस : …और रशीद ने गोली चला दी!

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23 दिसंबर, 1926 को दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक व्यक्ति ने कर दी थी। अब्दुल को स्वामी जी का शुद्धि आंदोलन पसंद नहीं था

भारत के प्रख्यात समाजसेवियों में स्वामी श्रद्धानंद का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन शिक्षा, संस्कार और सनातन संस्कृति के संरक्षण के लिए लगा दिया। उन्होंने अनगिनत शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। उनके द्वारा स्थापित इन संस्थानों से शिक्षित-दीक्षित लोग पूरी दुनिया में अपनी छाप छोड़ते रहे हैं, लेकिन स्वामी जी के कार्यों से कुछ कट्टरवादी इतने चिढ़ गए कि उन्होंने उनकी हत्या तक कर दी। 22 दिसंबर, 1926 को प्रात:काल पांच बजे के लगभग स्वामी श्रद्धानंद के सेवक धर्म सिंह ने आकर स्वामी जी के सुपुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति से कहा, ‘‘पिताजी फौरन बुला रहे हैं।’’ इंद्र जी तुरंत घर से निकल पड़े। तब तक डॉ. सुखदेव और लाला देशबंधु भी स्वामी श्रद्धानंद के निवास पर पहुंच चुके थे। बेटे के भी आ पहुंचने के बाद तीनों को बैठाकर स्वामी जी ने कहा, ‘‘भाई, मेरी वसीयत लिखवा दो। इस शरीर का कुछ भरोसा नहीं। कब क्या हो जाए, यह भगवान के सिवाय किसी को नहीं पता।’’

उस दिन स्वामी जी की तबियत काफी अच्छी समझी जा रही थी। डॉ. अंसारी ने एक दिन पहले ही कहा था कि अब कोई खतरा नहीं है। ऐसे में ये क्यों अचानक इस तरह की बात कर रहे हैं? डॉ. सुखदेव ने उन्हें आश्वस्त किया, ‘‘अब चिंता या घबराहट की कोई बात नहीं। आप शीघ्र ही बिल्कुल ठीक हो जाएंगे।’’ ‘‘हां, पिताजी, आपको कुछ नहीं होगा। आप हिम्मत रखिए।’’ बेटे इंद्र ने भी कहा। सब लोग यह समझकर कि वसीयत लिखने का स्वामी जी के दिल पर बुरा असर न हो, लिखने में आनाकानी करने लगे। ‘‘वयीसत की अभी क्या जरूरत है? बाद में देखा जाएगा।’’ कहकर सबने उस प्रयत्न को रोका। स्वामी जी इस बात से खिन्न-से हो गए और कहने लगे, ‘‘अच्छा भाई, तुम्हारी मर्जी। पर मैं जो कुछ चाहता हूं, वह तो सुन लो। फिर जब चाहो तब कागज पर लिख लेना।’’

स्वामीजी ने अपनी वसीयत के लिए जो मुख्य-मुख्य बातें कहीं, वे इस प्रकार थीं-मैं आर्य समाज का इतिहास लिखना चाहता था। इंद्र उसे लिखकर पूरा कर दें। ‘तेज’ और ‘अर्जुन’ पत्र मेरी भावना के अनुसार चलते रहें। गुरुकुल की रक्षा की जाए। बुजुर्ग किसी बात को लेकर चिंता कर रहे हैं, उन्हें कुछ तसल्ली मिलनी चाहिए।, लेकिन उनके मन और उनके शब्दों के महत्व को समझे बिना इधर-उधर की बातें करके सब लोग चले गए।

स्वामी जी के व्यक्तिगत सचिव धर्मपाल विद्यालंकार ने आततायी को जकड़ लिया। उसे नीचे गिराकर उसके जिस हाथ में पिस्तौल थी, उसे उन्होंने एक हाथ से दबाए रखा, दूसरे हाथ से उसके सिर को फर्श में खूंटे की तरह गाड़े रखा और उसकी पीठ पर अपनी छाती का पूरा जोर देकर लेट गए, जिससे वह हिल-डुल न सके। ‘ओइम्’ का प्रणवोच्चार कर स्वामी जी ने प्राण त्याग दिए।

23 दिसंबर, 1926। उस दिन भी हमेशा की तरह सवेरे से दर्शनार्थियों का आवागमन चलता रहा। आने-जाने वालों से वे बातचीत ठीक ही कर रहे थे। दोपहर को बहुत सारे बड़े नेता उन्हें देखने आए। स्वामी जी के स्वास्थ्य में कुछ सुधार देखकर सभी प्रसन्न हुए। थोड़ी देर बातचीत करने के बाद सब लोग बाहर आ गए। सेवक धर्म सिंह ने चारपाई के पास कमोड रख दिया, स्वामी जी स्वयं उठकर शौचादि से निवृत्त हुए और फिर वापस चारपाई पर लेट गए। हल्की-सी नींद आई। चारपाई के साथ ही सेवक धर्म सिंह लेटा हुआ था। बाहर के कमरे में श्रद्धालु थे। स्वामी जी की नींद में बाधा न पड़े, इसलिए सभी लोग शांत थे।

घड़ी ने चार बजाए, कमरे के बाहर आहट हुई। धर्म सिंह फौरन उठकर बाहर चला गया और देखा कि एक आदमी अंदर घुसा आ रहा है। धर्म सिंह ने उसे रोका और कहा, ‘‘उनकी तबियत ठीक नहीं है।’’ ‘‘एक बार उनके दर्शन करने दीजिए।’’ आगंतुक ने कहा। ‘‘अभी नहीं। फिर कभी आइए।’’ धर्म सिंह ने दृढ़ता से कहा।

यह बातचीत स्वामी जी के कान में पड़ी। ‘‘धर्म सिंह! कौन आया है? उसे अंदर आने दो।’’ चारपाई पर लेटे-लेटे ही स्वामी जी ने कहा। धर्म सिंह ने रास्ता दिया। अंदर आकर आगंतुक ने स्वामी जी को प्रणाम किया। ‘‘तुम कौन हो भाई?’’ स्वामी जी ने पूछा। ‘‘मेरा नाम अब्दुल रशीद है।’’ ‘‘क्या चाहिए तुम्हें?’’ ‘‘इस्लाम को लेकर आप से जरा बात करना चाहता हूं।’’ ‘‘बहुत अच्छी बात। लेकिन देख रहे हो न, मेरी तबियत ठीक नहीं है। कुछ दिन रुक जाओ। जरा ठीक हो लूं, तो इस विषय पर तुमसे जरूर बात करूंगा।’’ स्वामी जी ने अनुनय से कहा। ‘‘ठीक है।’’ आगंतुक ने कहा। फिर एक क्षण रुककर उसने कहा, ‘‘प्यास लगी है। थोड़ा-सा पानी मंगवा सकते हैं?’’ ‘‘हां, हां, क्यों नहीं।’’ कहकर स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी ले आने को कहा।

ज्यों ही धर्म सिंह वहां से निकला, आगंतुक झट से उठा जेब में से पिस्तौल निकाली और एकदम नजदीक से स्वामी जी पर निशाना साधकर तीन गोलियां चला दीं। आवाज सुनकर तेजी से वहां पहुंचे धर्म सिंह पर भी उसने गोली चला दी। धर्म सिंह के जमीन पर गिरते ही वह आदमी बच निकलने के लिए दरवाजे की ओर लपका। गोली चलने की आवाज कान में पड़ते ही बाहर वाले कमरे में बैठे लोग अंदर दौड़े आए। स्वामी जी के व्यक्तिगत सचिव धर्मपाल विद्यालंकार ने आततायी को जकड़ लिया। उसे नीचे गिराकर उसके जिस हाथ में पिस्तौल थी, उसे उन्होंने एक हाथ से दबाए रखा, दूसरे हाथ से उसके सिर को फर्श में खूंटे की तरह गाड़े रखा और उसकी पीठ पर अपनी छाती का पूरा जोर देकर लेट गए, जिससे वह हिल-डुल न सके। ‘ओइम्’ का प्रणवोच्चार कर स्वामी जी ने प्राण त्याग दिए।

इंद्र वाचस्पति घर लौटकर चारपाई पर बैठे ही थे कि एक लड़का भागता हुआ आया और घबराए हुए स्वर में बोला, ‘‘दादाजी को किसी ने गोली मार दी।’’ समाचार सुनकर इंद्र जी के पांव तले की जमीन खिसक गई। वे नंगे पांव तत्काल अपने पिता के आवास की ओर दौड़ पड़े।

गोली चलने की आवाज सुनकर तब तक कुछ लोग बाहर इकट्ठे हो गए थे। दो-चार लोग ऊपर भी जाकर अंदर झांक रहे थे। इंद्र जी को देखकर सभी तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे, पर किसी को उत्तर दिए बिना ही वे ऊपर चढ़ गए। वहां जाते ही उनकी नजर पिताजी की चारपाई पर पड़ी। स्वामी जी की आंखें बंद थीं, मानो सुखपूर्वक सोये हों। भगवा कुर्ते पर रक्त दिखाई दे रहा था, जो असली घटना की सूचना दे रहा था।

इसके तत्काल बाद इंद्र जी की नजर सेवक धर्म सिंह पर पड़ी। वह कमरे के बीच में जांघ को हाथ से दबाए पड़ा था। उसके चारों ओर खून फैला हुआ था। ‘‘धर्म सिंह! तुम्हें भी गोली लगी है?’’ आतुर होकर इंद्र जी ने पूछा। धर्म सिंह ने उत्तर दिया, ‘‘हां, पंडित जी, मुझे भी गोली लगी है। पर आप मेरी चिंता न कीजिए, स्वामी जी को कई गोलियां लगी हैं, उन्हें संभालिए।’’

इंद्र जी ने पलंग के पास जाकर स्वामी जी की कलाई और माथे पर हाथ रखा, तो उसे बिल्कुल ठंडा पाया। उसी समय उनकी दृष्टि पलंग के पीछे कमरे के कोने में जमीन पर औंधे मुंह लेटे हुए स्नातक धर्मपाल जी पर पड़ी, तो इंद्र जी ने पूछा, ‘‘धर्मपाल जी, क्या आपको भी गोली लगी है?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘मैंने मारने वाले को दबा रखा है।’’ इंद्र जी ने घबराकर पूछा, ‘‘क्या मैं सहायता के लिए आऊं?’’ उनका उत्तर था, ‘‘आप इसकी चिंता न करें, मैं इसे नहीं छोडूंगा। आप स्वामी जी को संभालिए।’’ धर्मपाल बलिष्ठ व्यक्ति थे। उनके शिकंजे में फंसा कोई भी आदमी छूट नहीं सकता था।

इसके बाद पहला काम यह किया गया कि डॉ. अंसारी को टेलीफोन कर बुलाया गया और दूसरा काम यह हुआ कि पुलिस में दुर्घटना की सूचना गई। जब डॉ. अंसारी को बुलावा पहुंचा, तब उन्होंने यही समझा कि शायद निमोनिया ने अपना उग्रतम रूप धारण कर लिया है, जिससे घबराकर उन्हें बुलाया गया है। जब डॉ. अंसारी घटनास्थल पर पहुंचे, तो आश्चर्य और दुख से स्तब्ध रह गए। उन्होंने फिर आगे बढ़कर स्वामी जी की नब्ज देखी, माथे और पेट को छुआ, आंखों से पलके हटाकर देखा और अंत में आंसू भरी आंखों से इंद्र जी की ओर देखकर बोले, ‘‘भाई, अब तो कुछ बाकी नहीं रहा। गोली सीधी छाती में लगी है। मृत्यु फौरन ही हो गई मालूम होती है।’’ फिर डॉ. अंसारी धर्म सिंह की ओर मुड़े और उसके घाव पर पट्टी बांधने लगे।

सब कुछ खत्म हो जाने के बाद कई पुलिस अधिकारी वहां पहुंचे। तब तक गोली चले आधा घंट हो गया था। उस समय तक धर्मपाल जी खूनी और पिस्तौल को दबाए पड़े रहे। स्थिति को भांपकर एक इंस्पेक्टर ने धर्मपाल जी से कहा, ‘‘जब तक मैं न कहूं, तब तक शिकंजे को ढीला न कीजिएगा।’’ और फिर उसने अपना रिवाल्वर हत्यारे के माथे पर रखकर कहा, ‘‘खबरदार, अगर हिला, तो गोली मार दूंगा।’’ फिर फुलबूट वाले अपने दाएं पांव से उसकी कलाई को बड़े जोर से दबाकर उसकी पिस्तौल छीन ली। सब-इंस्पेक्टर के कहने के बाद धर्मपाल उस आदमी के ऊपर से हटे।
(यह अंश एम.वी.आर. शास्त्री की पुस्तक ‘असली संत : स्वामी श्रद्धानंद’ से लिया गया है)

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