भारत में शैलकला को लेकर कई अध्ययन और शोध चल रहे हैं। शैलकला में लौह अयस्क हेमेटाइट के उपयोग पर अब बीएचयू के वैज्ञानिक अध्ययन करेंगे। विज्ञान संस्थान के प्रो. एनवी चलपति राव और कला संकाय के प्राचीन इतिहास विभाग के डॉ सचिन कुमार तिवारी को कैमूर पर्वत श्रृंखला में अध्ययन के लिए शोध परियोजना की अनुमति मिली है।
भारत में शैलकला का अध्ययन 1867 में इसकी खोज के बाद से शुरू हो गया था। हालांकि, यह केवल खोज, वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग के बिना प्रारंभिक प्रलेखन और प्रकाशनों तक ही सीमित है। शायद यही कारण है कि शैलकला विरासत के अध्ययन में दो महत्वपूर्ण मुद्दों को अब तक सुलझाया नहीं जा सका है। पहला, वर्णक (pigment या रंग) बनाने के पीछे की गतिविधियां जैसे कि रंगों की प्रकृति, उनकी रासायनिक संरचना, उनके माध्यमों (जैविक और अजैविक), उपयोग की जाने वाली विशेषता, तकनीक और उन रंगों को बनाने में उपयोग किए जाने वाले प्राकृतिक और कृत्रिम माध्यमों की खोज नहीं हुई है, और दूसरा, इन शैलकला की तिथि को जानना, जो अब तक केवल सापेक्ष कालनिर्धारण पद्धति के माध्यम से किया जा रहा है इस ओर वैज्ञानिक कालनिर्धारण विधियों जैसे एएमएस, यूरेनियम श्रृंखला इत्यादि के अतिरिक्त और नवीन संभावनाओं की तलाश करना है। शैलकला में हेमेटाइट के उपयोग पर अधिक वैज्ञानिक प्रयास अबतक नहीं किए गए हैं और कैमूर पर्वत श्रृंखला की जनजातियों और अन्य स्थानीय निवासियों के बीच हेमेटाइट के निरंतर उपयोग का कारण स्पष्ट नहीं है।
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार की पहल भारतीय ज्ञान प्रणाली के तहत इस अध्ययन को वित्त पोषित किया जाएगा। दो वर्ष की इस परियोजना के अंतर्गत उत्तर प्रदेश तथा बिहार की कैमूर श्रृंखला में अध्ययन किया जाएगा। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भारतीय, प्राचीन काल से ही, शैलकला निर्माण में अग्रणी थे। इनमें से कई पारंपरिक तकनीकें लुप्त होने के कगार पर हैं। प्रो. राव तथा डॉ. तिवारी ने विश्वास जताया कि इस परियोजना के माध्यम से वे शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों को “हेमाटाइट के सन्दर्भ में शैलकला में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की प्रोसेसिंग” के बारे में भारतीय ज्ञान की विशेषज्ञता से तो अवगत करा ही पाएंगे, साथ ही साथ इस विषय में दुनिया को ‘प्राचीन परम्परागत भारतीय तकनीक’ से भी रूबरू कराएंगे। हेमेटाइट सबसे महत्वपूर्ण वर्णक खनिजों में से एक है।
हेमेटाइट नाम ग्रीक शब्द “हैमाटाइटिस” से है जिसका अर्थ है “रक्त जैसा लाल।” यह नाम हेमेटाइट के रंग से उपजा है, जिसे तोड़ने या रगड़ कर महीन पाउडर बनाने पर इसका रंग रक्त जैसा लाल होता है। आदिम लोगों ने पता लगाया था कि हेमेटाइट को रंग के रूप में इस्तेमाल करने के लिए पीस कर और घिसकर एक तरल के साथ मिलाया जा सकता है। हेमेटाइट प्राचीन चित्रकला के प्रमुख स्रोतों में से एक था।
भारतीय संदर्भ में प्रायोजित यह परियोजना एक महत्वपूर्ण कदम होगी, क्योंकि इससे न केवल विकास के प्रारंभिक चरण में शैल कला की अभिव्यक्ति के संदर्भ में उद्देश्यों, तकनीकों को जानने और समझने में सक्षम हुआ जा सकेगा, बल्कि यह अध्ययन संग्रहालयों, संस्थाओं संगठनों व लोगों को भारत के इस हिस्से में इस प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणाली से अवगत कराएगा।
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