संविधान का ‘हम’ बहुत व्यापक है। भारत के लोग बिना किसी भेद के इस ‘हम’ में शामिल हैं। फिर अलग-अलग कानून क्यों? सभी पंथनिरपेक्ष शक्तियों को मुक्त हृदय से समान नागरिक संहिता का समर्थन करना चाहिए
समानता का घोड़ा एक जगह आकर रुक जाता है और वह बिंदु है समान नागरिक संहिता- कभी दो कदम आगे, तो कभी चार कदम पीछे। जब से भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान निर्माण के समय से आज तक समान नागरिक संहिता का घोड़ा उसी स्थान पर खड़ा है। पूरा देश एक है। हम सब एक जन हैं। हमारे संविधान का प्रारम्भिक पद है- ‘हम भारत के लोग।’ सबके लिए एक जैसी दण्ड व्यवस्था। तो समान नागरिक संहिता क्यों एक नहीं? संविधान का ‘हम’ बहुत व्यापक है। भारत के लोग बिना किसी भेद के इस ‘हम’ में शामिल हैं।
पंथनिरपेक्षता का तकाजा है कि सभी मत—पंथ के नागरिकों की समान संहिता हो। ऐसे में सभी पंथनिरपेक्ष शक्तियों को मुक्त हृदय से समान नागरिक संहिता का समर्थन करना चाहिए। हम रोज सुनते हैं- सर्व धर्म समभाव! सर्व धर्म समभाव में विश्वास रखने वाले तत्व जो भी हों, कहीं भी हों, ऐसे सभी तत्व समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़े हों, यही उनकी सोच-समझ का प्रमाण होगा। समाजवाद का लक्ष्य है- समतावादी समाज की रचना। इस समाज रचना में मजहब के आधार पर भेद क्यों? सभी समाजवादी और वामपंथी शक्तियों को भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में आगे आना चाहिए।
समानता की चाहत
- स्त्री और पुरुष का वेतन समान हो।
- बालक-बालिकाओं की शिक्षा सुविधाएं समान हों।
- नगर निकायों की परिषदों में स्त्री-पुरुषों की संख्या समान हो।
- किसी भी मुआवजे के भुगतान में स्त्री और पुरुष की राशि समान हो।
लोकतंत्र का पहला पाठ
- संविधान के सामने सब समान।
- लिंग के आधार पर कोई भेद नहीं।
- मत—पंथ के आधार पर कोई भेद नहीं।
- जाति के आधार पर कोई भेद नहीं।
- भाषा के आधार पर कोई भेद नहीं।
गांधीवादी दर्शन का लक्ष्य है सर्वोदय। सभी नागरिकों का उत्थान और विकास। बात-बात में गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले लोग यदि समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़े नहीं होते, तो यह उनका पाखण्ड है। इसी तरह, लैंगिक समानता हमारी सोच-समझ का एक नया दायरा है। इस विषय को लेकर अनेक स्तरों पर नित्य चर्चा होती है। न्याय के क्षेत्र में भी यह एक विचारणीय विषय है। लैंगिक समानता का प्रश्न केवल स्त्री-पुरुष के बीच की समानता का ही विषय नहीं है, अन्त:पांथिकता भी उसमें शमिल है। हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम समाज के लिए भी लैंगिक समानता दिखनी चाहिए। इन सारी शक्तियों को भारत की सभी महिलाओं को सामने रखकर समान नागरिक संहिता के लिए आगे आना चाहिए।
नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण, नारी-विमर्श आज के साहित्य और समाज की चर्चाओं के मुख्य विषय हैं। यह एक स्वतंत्र विषय है। समान नागरिक संहिता नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण से पृथक कहां है? नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़ी संस्थाओं और संगठनों को खुलकर समान नागरिक संहिता की वकालत में पहली पंक्ति में खड़े होना चाहिए।
कानून अलग-अलग क्यों?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि वे समान नागरिक संहिता के पक्ष में हैं। देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। इस बाबत राज्य सरकार जल्द ही एक विशेषज्ञ समिति गठित करेगी। वे कहते हैं कि कोई एक से अधिक विवाह क्यों करे? जब समान नागरिक संहिता में एक पत्नी रखने का अधिकार है, तो एक ही पत्नी होनी चाहिए। शादी जैसे पवित्र बंधन के नाम पर जनजातीय भाई-बहनों की जमीन हड़पने का खेल चल रहा है। ऐसे बदमाश लोग हैं, जो वनवासी बेटी से शादी कर उसके नाम पर जमीन खरीद लेते हैं और फिर सरपंच का चुनाव लड़ते हैं। लेकिन अब कोई भी किसी वनवासी युवती से विवाह कर उसकी जमीन नहीं हड़प सकेगा। कन्वर्जन या छल-कपट से वनवासियों की जो जमीन चली गई है, वह ग्राम सभा के माध्यम से वापस दिलाई जाएगी। ग्राम सभा ऐसे लोगों का बहिष्कार भी करेगी और कार्रवाई प्रस्तावित की जाएगी।
वर्तमान स्थिति
- संवैधानिक पदों के निर्वाचन में मत के आधार पर कोई भेद नहीं।
- प्रशासनिक पदों के चयन में पंथ के आधार पर कोई भेद नहीं।
- सुरक्षा सेवाओं के चयन में मत के आधार पर कोई भेद नहीं।
- आयकर की दरें सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान।
- उपभोक्ता संरक्षण सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान।
- बैंक की ब्याज दरें सबके लिए समान।
- शासकीय अनुदान सबके लिए समान।
- रेलवे के किराए में सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए समान छूट।
- सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए वोट की महत्ता एक समान।
- स्वास्थ्य सेवाएं सभी मत—पंथ के नागरिकों के लिए एक समान।
दलित-विमर्श और दलितों का विकास हमारी सामाजिक चिंताओं का एक प्रमुख पक्ष है। बाबा साहब आंबेडकर ने सब दलितों के विकास और उनके अधिकारों की चर्चा की, तब अनुसूचित जातियों-जनजातियों के साथ भारतीय नारी भी उनकी चिंता और चिन्तन में शमिल थी। और इसमें भी उन्होंने हिन्दू ही नहीं, मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थिति पर भी विचार किया। अत: दलित-विकास के क्षेत्र में कार्यरत सभी समूहों को समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। ऐसा करके वे बाबासाहब के शोषण मुक्त भारत के सपने को पूरा करने में सहायक होंगे।
प्रश्न केवल वैचारिक सच्चाई और ईमानदारी का है। यदि हम ईमानदार पंथनिरपेक्ष हैं, ईमानदारी से सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते हैं, यदि हम ईमानदार समाजवादी और वामपंथी हैं, यदि हम सच्चे अर्थों में गांधीवादी हैं, यदि हम लैंगिक समानता के ईमानदार प्रवक्ता हैं, यदि नारी-मुक्ति के प्रति हम ईमानदार हैं, यदि हमारा दलित-विमर्श केवल दलित जातियों तक सीमित नहीं है तो सबको समान नागरिक संहिता के लिए निर्विकल्प संकल्प के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
उत्तराखंड भी लागू करेगा कानून
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है, ‘‘समान नागरिक कानून हमारा संकल्प है और इसे तय समय सीमा के अंदर ही राज्य में लागू किया जाएगा। हमने चुनाव से ही यह संकल्प लिया था कि नई सरकार के गठन के बाद सबसे पहला फैसला समान नागरिक संहिता पर होगा। जनता ने हमें जनादेश दिया और हम उस दिशा में आगे बढ़ गए हैं। हम किसी दबाव में नहीं आएंगे।’’
उन्होंने कहा कि 5 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति काम शुरू कर चुकी है। समिति की दो बैठकें भी हो चुकी हैं। जन संवाद और सुझाव लेने में समिति को समय लग रहा है। यह कानून लागू होते ही अदालतों के 20 प्रतिशत मुकदमे स्वत: ही खत्म हो जाएंगे। इस कानून से दिक्कत केवल उन्हें है, जो तुष्टीकरण में जुटे हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि 6 माह से पहले ही समिति अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप देगी। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य होगा। प्रदेश के सुदूर और पिछड़े इलाकों में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों का लालच देकर या डरा-धमकाकर कन्वर्जन किया जा रहा है। प्रदेश में किसी भी कीमत पर ऐसा होने नहीं दिया जाएगा। इसमें जिसे भी लिप्त पाया जाएगा, उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जाएगी।
विरोध और उसकी असली वजह
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत-उलेमा-ए-हिंद समान नागरिक संहिता के खिलाफ हैं। इनका कहना है कि यह कानून इस्लामी कायदे-कानून में दखलअंदाजी है और मुसलमानों पर हिंदू कानून थोपने जैसा है। इस कानून के लागू होने से मुसलमानों के अधिकारों का हनन होगा, क्योंकि शरियत कानून बहुविवाह की अनुमति देता है। अभी शरियत कानून के तहत पहली पत्नी को तलाक दिए बिना मुसलमान चार शादी कर सकते हैं। मुस्लिम विवाह अधिनियम-1937 के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को दूसरी शादी करने की अनुमति नहीं है। दूसरी शादी करने के लिए उसे पति से तलाक लेना होगा। दरअसल, इस विरोध के पीछे संपत्ति और गोद लेने का अधिकार भी शामिल है।
अभी एक आम मुसलमान सिर्फ बेटियां होने पर बेटे की चाहत में दूसरी शादी कर लेता है, क्योंकि संपत्ति के वारिस के तौर पर कोई मुस्लिम दंपती बच्चा गोद लेता है तो मुस्लिम लॉ के तहत वह पूरी संपत्ति उसके नाम नहीं कर सकता। समान नागरिक संहिता लागू होने पर शादी, तलाक, विरासत, गोद लेने और अन्य संबंधित मुद्दे ही कानून के दायरे में आएंगे, जो देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होगा। लेकिन राजनीतिक कारणों से यह प्रचारित किया जा रहा है कि इससे केवल मुसलमान प्रभावित होंगे, जबकि मजहब या मत-पंथ से इसका कोई संबंध नहीं है। अलबत्ता, इस कानून के लागू होने के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मजहबी संगठनों का वजूद नहीं रहेगा, इसलिए वे इसका विरोध कर रहे हैं। आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो देश के अन्य मुस्लिम समूहों को लामबंद करने के लिए एक भी समिति भी गठित की है।
आज आप सबकी ईमानदारी कसौटी पर है। समाज आपको देख रहा है, सुन रहा है- वह आपकी वैचारिक ईमानदारी को प्रत्यक्ष देखना चाहता है। हम जानते हैं कि समान नागरिक संहिता के मार्ग में अनेक कठिनाइयां हैं। इसके लिए जरूरी है कि नागरिक संहिता के ब्यौरे को लेकर व्यापक चर्चा हो। इस चर्चा में न्यायविदों के साथ समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री मनोविज्ञानी भी शामिल हों। सरकार जो प्रारूप तैयार करे, उसे संसद में लाने से पहले उसे सार्वजानिक करे। ऐसा करने से सभी पक्षों को अपना मत रखने का अवसर मिलेगा। याद रखिए, सह चिंतन से ही अच्छे परिणाम मिलते हैं!
(लेखक साहित्यकार, शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मी हैं)
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