पंच परमेश्वर की परिकल्पना वाले इस देश में न्यायपालिका को जितना सम्मान प्राप्त है, उतना संभवत: किसी और संस्थान को नहीं।
भारत विश्व का एक सबसे पुराना लोकतंत्र ही नहीं, विश्व की सबसे पुरानी न्यायपालिका का भी देश है। भारत विश्व के उन गिने-चुने देशों में से एक है, जहां अदालत को ‘न्याय’ पालिका कहा जाता है। यहां उसका काम न्याय देना होता है, न कि सिर्फ फैसला देना। यही कारण है कि पंच परमेश्वर की परिकल्पना वाले इस देश में न्यायपालिका को जितना सम्मान प्राप्त है, उतना संभवत: किसी और संस्थान को नहीं।
लेकिन सम्मान अर्जित करना होता है और सम्मान देश का लोक देता है। सम्मान कोई भौतिक वस्तु नहीं होती, जिसे खरीदा, छीना या चुराया जा सके। जो भी व्यक्ति संस्थान या संगठन इस लोक से सम्मान की अपेक्षा रखता है, उसे साथ ही इसकी मर्यादा पर प्रतिक्षण खरा भी उतरना होता है। लेकिन क्या यह बात उन सभी संस्थानों के लिए कही जा सकती है जिन्हें सम्मान की अतिशय आवश्यकता होती है?
न्याय सभी के लिए प्रिय नहीं होता। हो भी नहीं सकता। यह न्याय देने वाले की सम्मानीयता पर निर्भर करता है कि उसका दिया हुआ निर्णय सभी के लिए मान्य हो।
यह विडंबना है कि भविष्य का इतिहास यह दर्ज करने के लिए बाध्य होगा कि 21 वीं सदी में भारत में सम्मान की अपेक्षा रखने वाले संस्थानों को इस बात का अहसास नहीं हो पा रहा था कि अब जमीनी स्तर पर उनके लिए सम्मान के स्थान पर मोहभंग जैसी स्थितियां बनती जा रही हैं। अभी समय है। इसका परिमार्जन किया जा सकता है। किया जाना चाहिए।
समय सिर्फ चेतावनी दे सकता है। आपके हितचिंतक सिर्फ आगाह कर सकते हैं। सम्मान को जरा भी ठेस पहुंचाए बिना सिर्फ संकेत दिए जा सकते हैं। और अब तो संकेत भी बहुत मुखर हैं।
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इस देश की न्यायपालिका की कल्पना भी लोकतंत्र के स्तंभ के तौर पर ही की है।
क्या लोकतंत्र का कोई स्तंभ अपने आधार- माने कि लोक से परे होकर स्तंभ बना रह सकता है? शब्दकोश देखिए। क्या स्तंभ छोटे-बड़े हो सकते हैं? यदि हां, तो फिर इमारत का क्या होगा? श्रेष्ठता बोध, आंदोलनकारी स्वर या अधिकार क्षेत्र से बाहर बढ़ती सक्रियता.. आरोप छोड़िए, क्या इनके संकेत भी न्याय तंत्र की छवि के लिए अच्छे हैं? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायपालिका पर यदि परिवारवाद के आरोप लगने लगे, तो सोचिए यह पूरे देश के लिए कितनी लज्जास्पद बात है?
जज बोल रहे हैं, वकील बोल रहे हैं। मुख्यधारा का मीडिया यदि अंकल जज सिंड्रोम की बात कर रहा है, कानून मंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति सब कहें और न्यायपालिका इन सब को अनसुना करे, क्या यह अच्छी बात है?
हाल में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायिक परीक्षा की कसौटी को ही नकारते दिखे परंतु साथ ही वह कोलेजियम व्यवस्था की पैरोकारी करते देखे गए। क्या व्यवस्था को नकारना और विसंगति को व्यवस्था और पारदर्शिता ठहराना यह अच्छी बात है?
क्या यह स्वीकार किया जाएगा?
कानून मंत्री ने जो कहा और राष्ट्रपति ने जो नहीं कहा न्यायपालिका के लिए यह उस कहे अनकहे पर मंथन करने का समय है।
रहीम के दो दोहे हैं -निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय…और खीरा मुख से काटिए मलिए नमक लगाए…।
यह सिक्के के दो पहलू हैं यानी निंदा आवश्यक है, परंतु अकारण निंदा का स्वभाव अस्वीकार्य है।
न्यायपालिका को यह देखना होगा कि उसकी आलोचना अकारण है या उसमें कुछ सार भी है।
समालोचना के द्वार भी बंद करना यह न्यायपालिका के लिए अच्छा नहीं। यह गुंजाइश बनी रहनी चाहिए ताकि लोकतंत्र में जनापेक्षाओं और व्यवस्था का सन्तुलन- स्वास्थ्य बना रहे।
‘तंत्र’ लोक पर हावी हो यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए असहनीय बात है।
@hiteshshankar
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