भारतीय सैनिकों ने तवांग में करीब 300 चीनी सैनिकों को खदेड़ दिया। पूरी दुनिया में चीन की विस्तारवादी नीति की फिर जमकर आलोचना हो रही है और भारतीय सेना के साहस को सलाम किया जा रहा है। लेकिन, पूरी दुनिया को यह समझना होगा कि चीन किसी एक का मसला नहीं है। नेपाल, श्रीलंका, से लेकर और सुदूर अफ्रीका तक विस्तारवादी मंशाओं को पूरा करने के लिए लुभावना जाल फैला है। पूरी दुनिया को सिर्फ अपने हित देखने के अलावा यह समझना पड़ेगा कि विस्तारवादी मंसूबों से कैसे निबटना है। बारीकी से देखेंगे तो पाएंगे कि ड्रैगन की कमजोरी को मापने का त्रिसूत्री फार्मूला उपलब्ध है।
इसे ऐसे देखें कि एक बहुत दमदार बादशाह है मगर वह तुतलाता है, तो उसकी हनक, हेकड़ी, उसका रसूख खत्म हो जाता है। ऐसे ही ड्रैगन तीन चीजों पर तुतलाता है। संयोग से तीनों शब्द ‘त’ से ही शुरू होते हैं।
इनमें पहला तिआनमेन (चौक) है, जहां चीनी छात्र-छात्राओं द्वारा 14 मई,1989 को सरकार विराधी प्रदर्शन हुआ और सरकार ने अपने ही 10 हजार से ज्यादा नागरिकों की जान ले ली।
दूसरा तिब्बत है जिसकी सांस्कृतिक पहचान को कम्युनिस्ट सरकार ने मानो पूरी तरह नष्ट करने की कसम खा रखी है। परंतु दलाई लामा की सूझ और तिब्बती युवाओं के प्रखर प्रतिरोध के कारण अब तक वह अपने इरादे में सफल नहीं हो पाई।
तीसरा ताइवान है। ताइवान विश्व की जरूरतों को सकारात्मक ढंग से पूरा करने वाला प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। याद है ! कोविड संकट के दौरान जब सेमीकंडक्टर की आपूर्ति रुकी थी तो पूरी दुनिया में ऑटो मोबाइल सेक्टर अटक गया था। यह भारत के तमिलनाडु जितना छोटा सा देश है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उसका आधार है। दिलचस्प बात यह है कि ताइवान वामपंथी विचार को नहीं मानता। वह मानता है कि चीन पर वामपंथियों ने कब्जा कर लिया है और चीन के एक सांस्कृतिक शास्त्रीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व असल में ताइवान करता है।
जिस तरह भारत में कुछ लोगों को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए गए आह्वान, तिरंगे और इसकी डीपी से डर लगता है, उसी तरह ड्रैगन को ताइवान की डीपीटी यानी डेमोक्रेटिक पार्टी से डर लगता है। वजह यह कि ताइवान में द्वि-दलीय व्यवस्था है और चीनी झुकाव रखने वाली पार्टी से उलट डीपीटी प्रबल राष्ट्रीय आग्रह रखने वाली पार्टी है। ताइवान की वर्तमान राष्ट्रपति पूर्व में दल की मुखिया रही हैं, इससे भी दिलचस्प और चीन को डराने वाला तथ्य यह है कि उनकी पीएचडी का विषय ‘अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस एंड सेफगार्ड एक्शन’ रहा है। तो चीन के असली भय की वजह कौन है, विश्व को समझना पड़ेगा। ताइवान की इच्छाओं को भी समझना पड़ेगा।
तिब्बत की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी आकांक्षाओं को भी समझना पड़ेगा। तिएनआनमन के बलिदान को भी याद रखना पड़ेगा। विश्व के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसका ताइवान के प्रति झुकाव, तिब्बत के प्रति प्रेम या तिएनआनन के प्रति संवेदना- यह चीन से नफरत के कारण नहीं, बल्कि मानवीयता के साथ खड़े होने के आग्रह के कारण हो।
यह इसलिए क्योंकि नफरत के आधार पर कोई भी यात्रा बहुत लंबी नहीं चलती। लगता तो यह भी है कि सीपीसी से इतर चीनी समाज भी इन, या इन जैसे अन्य मुद्दों पर वर्तमान कम्युनिस्ट नेतृत्व के साथ नहीं है।
ड्रैगन कैसे पंजे गड़ाता है ?
ड्रैगन नेपाल में भी दोस्ती की आड़ में वहां की जगहों पर कब्जा करने की मंशा से आया। नेपाल के साथ चीन ने बुनियादी ढांचा समझौते की बात की और फिर गोरखा, रुई, हुमला जैसे नेपाली इलाकों में नेपालियों का जाना ही रोक दिया।
पाकिस्तान में भी ड्रैगन की मंशा यही है। बलूच विद्रोहियों ने जब चीन के कर्मचारियों को मारा तो चीन ने अपनी सेना भेजने की बात कही। कोई पूछे, चीन आ जाएगा तो क्या पाकिस्तान अपनी जगह बचा पाएगा? चीन ने पाकिस्तान को जो पहले सुनहरे ख्वाब दिखाये थे, वह फौजी जरनलों की जेबों में भले उतरे हों, जमीन पर नहीं उतरे।
चीन किसी देश को अपने ऊपर पूरी तरह निर्भर कैसे बनाता है। पहला, आधारभूत ढांचे में निवेश करना, दूसरा, सैन्य उपक्रमों के आयात में निर्भरता बनाना और अपनी बढ़त बनाना।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के आर्म्स ट्रांसफर डेटाबेस के अनुसार, 2010 से पूर्व के दशक के आंकड़ों की तुलना में 2010 और 2020 के बीच चीन से पाकिस्तान के हथियारों का आयात दोगुने से भी अधिक हो गया है। चीन अब पाकिस्तान का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार भी है। |ब्जर्वेटरी | ऑफ इकोनॉमिक कॉम्प्लेक्सिटी के आंकड़ों के अनुसार, 2009 और 2019 के बीच, पाकिस्तान से चीन को निर्यात में 87 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि आयात में 183 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
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