सुब्रमण्यम भारती जन्म दिवस पर विशेष : भारतीय भाषाओं का इंद्रधनुष

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भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार इस साल से विख्यात तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती के जन्म दिवस को ‘भारतीय भाषा दिवस उत्सव’ के रूप में मनाएगी

भारत विविधताओं का देश है। बहुरंगी भौगोलिक, सांस्कृतिक, खान-पान, रहन-सहन, आस्था, मान्यताओं की विविधताओं में भाषा भी एक मुख्य अवयव है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा गठित भारतीय भाषा समिति की अनुशंसा पर तमिल महाकवि सुब्रमण्यम भारती के जन्म दिवस 11 दिसंबर को सरकार ने इस वर्ष से ‘भारतीय भाषा दिवस’ उत्सव के रूप में मनाने का फैसला किया है। उत्तर-दक्षिण के सेतु नाम से विख्यात सुब्रमण्यम भारती ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपनी लेखनी से जनमानस को आंदोलन के लिए प्रेरित किया था। तमिलनाडु व वाराणसी में शिक्षा ग्रहण करने वाले महाकवि ने राष्ट्रवाद की भावना से ओत-प्रोत ज्वलंत गीत रचे।

इस उत्सव से हर भारतीय में स्वभाषा के साथ दूसरी भारतीय भाषाओं की समझ, उनके प्रति सम्मान और उन्हें सीखने की ललक बढ़ेगी। भारतीय भाषा समिति का मानना है कि ‘बहुभाषावाद को मजबूत करने के लिए, लोगों को अधिक भाषाएं सीखने हेतु प्रोत्साहित करने एवं विविधता में एकता का अनुभव कराने के लिए इसे भारतीय भाषा उत्सव के रूप में मनाना आवश्यक है।’ बतौर यूजीसी, ‘अपनी मातृभाषा में महारत हासिल करने के अतिरिक्त अधिकाधिक भारतीय भाषाएं सीखने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। पड़ोसी भाषा के प्रति सम्मान एवं उससे ज्ञानार्जन हेतु तदानुसार दृष्टिकोण एवं योग्यता विकसित करने हेतु ‘भाषा सद्भाव’ की आवश्यकता है।’ भाषा के नाम पर समाज व देश को तोड़ने के कुत्सित प्रयासों के बीच भाषा दिवस सद्भाव बढ़ाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। भाषा के संदर्भ में ऋग्वेद कहता है-
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखाय: सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिर्हिताधिवाचि।।

अर्थात् धीर पुरुष वाणी को चलनी में छने हुए सत्तू के समान रच कर उच्चारित करते हैं। उनकी वाणी में उनका सख्य भाव ज्ञात होता है। उनकी वाणी में लक्ष्मी (पवित्र गुण) प्रतिष्ठित होती है। कबीर ने कहा है- ‘संस्कीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर।’ संस्कृतज्ञ होने के बावजूद महाकवि तुलसीदास ने हिंदी की पोषक बोली अवधी एवं ब्रज भाषा में काव्य सृजन किया। विद्वानों का मानना है कि कि ब्रह्मांड की वस्तुगत वास्तविकता को भाषा के माध्यम से पूर्णरूपेण समझा और अभिव्यक्त किया जा सकता है। बृहदारण्यक उपनिषद्, शतपथ ब्राह्मण और व्याकरणविद् भर्तृहरि ने भाषा-विचार तथा शब्दों व वस्तुओं के मध्य संबंध पर प्रकाश डाला है।

अमेरिकी भाषाविद् बेंजामिन ली व्हार्फ एवं उनके गुरु एडवर्ड सापीर की ‘सापीर-व्हार्फ परिकल्पना’ के अनुसार, भाषा हमारी सोच को निर्धारित करती है। सभी भाषाएं अपने परिवेश की वास्तविकताओं का प्रतिनिधित्व करने में कमोबेश सक्षम हैं। भाषाएं अपने आसपास के वातावरण में होने वाले परिवर्तनों को भी आत्मसात करती हैं एवं इनकी अभिव्यक्ति हेतु नए आयाम एवं शब्दावली निर्मित करती हैं। अतएव ऐसा मानना कि कोई विदेशी भाषा हमारी भाषाओं से बेहतर है या निम्नतर है, प्रासंगिक नहीं है।

वाराणसी से उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती (महाकवि भरततियार) की कविताएं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत हैं। कवि होने के साथ-साथ वे स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, पत्रकार तथा उत्तर भारत-दक्षिण भारत के बीच एकता के सेतु समान थे

तथाकथित इतिहासकारों ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष की झूठी कहानी गढ़ी और इनकी भाषाओं के मध्य द्वंद्व का सिद्धांत रचा। फलस्वरूप, उत्तर एवं दक्षिण भारत की भाषाओं के बीच वैमनस्य का वातावरण निर्मित हुआ। खासतौर से, विदेशी राज में भारतीय भाषाओं का क्षरण हुआ। शिक्षा की मैकालियन पद्धति ने भारतीय भाषाओं को तिरस्कृत कर अंग्रेजी को संरक्षित व संवर्धित किया। अंग्रेजी को राज-काज और शिक्षा की भाषा के रूप में भारतीय जनमानस पर थोपा। अंग्रेजों ने अंग्रेजी में विज्ञान, तकनीक और चिकित्सा से संबंधित पठन-पाठन एवं शोध करने का षड्यंत्र रचा, ताकि भारतीय अपनी मूल ज्ञान परंपरा से भटक जाएं और भारतीय दिखते हुए भी मनोस्थिति से पाश्चात्य हो जाएं।

बचपन में बच्चों पर विदेशी भाषा थोपने से उनका चहुंमुखी विकास बाधित होता है। यह शोध में भी साबित हुआ है कि मातृभाषा में बच्चे अधिक गुणवत्तापूर्ण ज्ञान प्राप्त करते हैं। कई अमेरिकी स्कूलों में अंग्रेजी में पर्याप्त दक्षता के बावजूद अप्रवासी बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है। हाल ही में मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बना है, जहां एमबीबीएस की पढ़ाई हिंदी में शुरू हुई है। इसी तर्ज पर इंजीनियरिंग और अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई भी भारतीय भाषाओं में होनी चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भारतीय भाषाओं में माध्यमिक तक की पढ़ाई की बात तो करती है, लेकिन उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, ‘‘जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता।’’ इसीलिए कलकत्ता के प्रसिद्ध दार्शनिक कृष्णचंद्र भट्टाचार्य 1929 के आसपास विचारों में स्वराज लाने पर जोर दे रहे थे, जो भाषा के स्वराज के बिना संभव ही नहीं है, क्योंकि स्वराज एक स्वप्न है और स्वप्न मातृभाषा में ही देखे जाते हैं।

स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने भारतीय भाषाओं के विकास, उनके संरक्षण पर जोर न देकर एक प्रकार से अंग्रेजी राज का अनुगमन किया। इससे हम भारत को जानना-पहचानना-मानना भूल गए, भारत का बनना एवं बनाना भूल गए और पाश्चात्य सभ्यता के प्रति हमारा आकर्षण उत्तरोत्तर बढ़ता गया। भारत की प्रामाणिक ज्ञान परंपरा की मुहर पश्चिम से लगने लगी।

वे तो यहां तक कहते थे कि अंग्रेजी व्यवस्था में जो शिक्षा दी जा रही है, उससे हम अपने अतीत व वर्तमान की सच्चाई और भविष्य के लक्ष्य के प्रति कोई सृजनात्मक-सकारात्मक दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ने भी नवजीवन में लिखा था, ‘‘वही सही शिक्षा है जो स्वतंत्रता का मार्गदर्शन करती है, केवल वही उच्च शिक्षा है जो हमें अपने धर्म का संरक्षण करने के लिए समर्थ बनाती है।’’ पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के अंधानुकरण से विद्यार्थियों में मूल्यबोध का ह्रास हो रहा है। परिणामत: भारत का सर्वांगीण विकास बाधित हो रहा है।

विडंबना यह रही कि स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने भारतीय भाषाओं के विकास, उनके संरक्षण पर जोर न देकर एक प्रकार से अंग्रेजी राज का अनुगमन किया। इससे हम भारत को जानना-पहचानना-मानना भूल गए, भारत का बनना एवं बनाना भूल गए और पाश्चात्य सभ्यता के प्रति हमारा आकर्षण उत्तरोत्तर बढ़ता गया। भारत की प्रामाणिक ज्ञान परंपरा की मुहर पश्चिम से लगने लगी।

इसका दुष्परिणाम यह है कि ‘कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ वाले देश में बीते 50 साल में करीब 20 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो गई और कई विलुप्तता के कगार पर हैं। हमारी भाषाएं विलुप्त न हों, उनमें निहित ज्ञान-संपदा सुरक्षित रहकर भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहें, इस निमित्त अब भारतीय भाषाओं की स्वीकृति एवं सम्मान की बात जोर पकड़ने लगी है। सदियों से हमारी सभ्यता की अविरल धारा हमारी भाषा, संस्कृति व लोकजीवन में संरक्षित रही है। स्थानीय भाषाओं ने हमारी संस्कृति की प्राणवायु बनकर उसे विकसित होने में अतुलनीय योगदान दिया है।

भारत भाषाई दृष्टि से दुनिया का सर्वाधिक समृद्ध देश है। यहां की प्रमुख भाषाएं संस्कृत, हिंदी (अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, संथाली, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली, रिमही, मारवाड़ी, गढ़वाली), पंजाबी, बांग्ला, ओडिया, असमिया, बोडो, गुजराती, मराठी, कोंकणी, सिंधी, उर्दू, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, तुलु, मलयालम, कश्मीरी, ब्राहुई, डोगरी एवं नेपाली हैं। ये भाषाएं व बोलियां इंडो-आर्यन, द्रविड़, तिब्बती-बर्मी, आस्ट्रो-एशियाटिक व ताई-कादाई भाषाई परिवारों की हैं। भाषाई संपन्नता के मद्देनजर संविधान निर्माताओं ने शुरू में 8वीं अनुसूची में 14 भाषाएं रखी थीं, जो बढ़कर 22 हो गई हैं।

राष्ट्रपति द्वारा ओडिया में इंजीनियरिंग की पुस्तकें, तकनीकी शब्दावली व ई-कुंभ (भारतीय भाषाओं में ज्ञान) पोर्टल का अनावरण क्षेत्रीय भाषाओं के संवर्धन की दिशा में उल्लेखनीय पहल है। राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी ने 13 भारतीय भाषाओं में विश्वविद्यालयीय संयुक्त प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी-यूजी) आयोजित कर भाषा विकास के क्षेत्र में नया अध्याय जोड़ा है। शिक्षाविदों का प्रयास है कि संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो।

इसके लिए ‘भारतीय अनुवाद एवं व्याख्या संस्थान’ की स्थापना करनी होगी। शुरुआत भले ही अनुवाद से हो, पर लक्ष्य भारतीय भाषाओं में मूल पुस्तकें लिखने का हो। ‘राष्ट्रीय अनुवाद मिशन’ को अधिक संपन्न बनाया जाए, जिससे वह गुणवत्तापरक अनुवाद की दिशा में अधिक सघनता से कार्य कर सके। अंग्रेजी को सिर्फ पाठ्यक्रम से बाहर करना नहीं, बल्कि मातृभाषा में पाठ्यक्रम विकसित करने, दूसरी भाषाओं को समझने व उनके प्रति सम्मान का भाव विकसित करना भी जरूरी है।
(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)

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