केरल के कासरगोड में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी और पली—बढ़ी ओ. श्रुति के मन में इस्लामी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान हिंदू धर्म के प्रति ऐसी नफरत भरी गई कि उसे पता नहीं चला कि वह कब इस्लाम के रास्ते पर बढ़ गई। उसने कन्वर्जन कराकर इस्लाम कबूल कर लिया। जब उसकी इस्लामी तालीम चल रही थी, तब उसमें दूसरे मत—पंथों विशेषकर हिन्दू धर्म के प्रति नफरत का बीच बोया गया। आखिरकार, उसके माता—पिता, विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं और आर्ष विद्या समाजम के सद्प्रयासों से श्रुति न सिर्फ स्वधर्म में लौटीं, बल्कि अब उन्होंने किसी भी भुलावे या लालच से कन्वर्ट होने वालों की स्वधर्म वापसी कराने को ही अपना जीवन समर्पित किया हुआ है। पाञ्चजन्य के केरल संवाददाता टी. सतीशन ने श्रुति से इन सभी विषयों पर बातचीत की जिसके प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं-
आप इस्लाम की तरफ कैसे और कब आकर्षित हुई? इस्लाम में कन्वर्ट क्यों हुई थीं?
मैं साल 2008 में राष्ट्र-विरोधी इस्लामी विचारधारा से प्रभावित हुई थी। मैंने अपनी पढ़ाई एक मुस्लिम कॉलेज से पूरी की थी। अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रम में मेरे साथ ज्यादातर मुस्लिम लड़कियां ही पढ़ती थीं। उनके लगातार हिंदू धर्म पर सवाल उठाने, उसे कमतर बताने से आखिरकार मुझमें एक प्रकार की हीन भावना पैदा हुई। इसने मुझे धीरे-धीरे स्वधर्म छोड़कर इस्लाम का अध्ययन करने को प्रेरित किया। तब मैंने पांच साल इस्लाम का अध्ययन किया। फिर इस्लाम के करीब होती गई। मैंने नमाज पढ़ी, रोजे रखे। मेरा चेहरा—मोहरा और व्यवहार का तरीका, सब बदल गया। मैं एक मुस्लिम महिला की तरह रहती थी। ‘ईमान का सच्चा’ मुसलमान होने के लिए मेरा कानूनी रूप से इस्लाम में कन्वर्ट होना जरूरी था। फिर बुर्का और हिजाब पहनना अनिवार्य हो गया। मैंने इंटरनेट और दोस्तों से कन्वर्जन केंद्रों के बारे में पूछा तो पता चला कि केरल में केवल दो वैध कन्वर्जन केंद्र हैं- कोझिकोड में थेरबियाथुल इस्लाम सभा और पोन्नानी में मौनाथ-उल-इस्लाम सभा। मैं पोन्नानी में मौनाथ-उल-इस्लाम सभा में कन्वर्ट हो गई।
मौनाथ-उल-इस्लाम सभा का कैसा अनुभव रहा? इस्लाम में कन्वर्ट होकर क्या आपको तसल्ली हुई?
2013 की बात है। मैं हिम्मत करके वहां गई। मन में दुविधा तो थी। वहां एक मौलवी ने कहा कि यहां कई जगहों के लोग हैं इसलिए कोई कीमती सामान लेकर अंदर मत जाना। उन्होंने मेरे सभी प्रमाण-पत्र, गहने, पैसे और यहां तक कि इस्लाम से संबंधित साहित्य भी अपने पास रख लिया। (बाद में मेरे पिता को उन्हें वहां से वापस लेने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी)। फिर मुझे महिलाओं वाले हिस्से में भेज दिया गया। एक लड़की मुझे अंदर एक मौलवी के पास ले गई।
वह अक्खड़ और गुस्सैल थी, अजीब बर्ताव था उसका। फिर भी, मैंने उसे सहन किया। उसने मेरे बैग से सब चीजें (कपड़े, कंघी और सैनिटरी पैड सहित) निकालकर फर्श पर रख दीं। वह बोली, ‘‘यहां सेनेटरी पैड की अनुमति नहीं है, केवल कपड़े के टुकड़े चलते हैं। यहां केवल वही पुस्तकें पढ़ें, जो हमें दी जाएं। बाकी को यहीं छोड़ दो।’’ इस्लाम के पैरोकार एक अनजान लड़की के साथ कैसा अजीब बर्ताव कर रहे थे! उस पल दिमाग में मेरे पिता, मां और मेरे प्रियजनों के चेहरे कौंध गए। मन किया यहां से भाग जाऊं। लेकिन दिमाग पर इस्लाम का गहरा प्रभाव होने के कारण पैर थमे रह गए।
पाथु नाम की एक महिला ने मेरे सिर पर तीन बार पानी डाला। फिर कुछ अरबी आयतें दोहराने को कहा। मैंने रहमत नाम स्वीकार किया। इस प्रकार, माता-पिता का दिया नाम ‘श्रुति’ हट गया। मुस्लिम बनने के बाद मैंने कलमा पढ़ा। फिर जो देखा, उसके बारे में सोचकर आज भी सिहर उठती हूं। वहां 16 साल की लड़की से बुजुर्ग तक करीब 65 महिलाएं कन्वर्जन के लिए आई थीं। सबके पास कन्वर्जन की अपनी-अपनी वजहें थीं। जोर—जबरदस्ती से पैसे के लालच तक। जब मैंने यह सुना, तो लगा कि ‘इस्लाम तो अच्छा है, पर लोग गलत करते हैं, क्योंकि वे इस्लाम को नहीं जानते।’
उसके बाद आपकी जो तालीम हुई, उसके बारे में बताएं।
मैंने जिन मजहबी कक्षाओं में भाग लिया, उनमें अन्य मत—पंथों का तिरस्कार होता था। ईमान की पहली मान्यता तौहीद यानी अन्य मत—पंथों की निंदा करना ही है। वहां मौलवियों ने सिखाया, ‘‘हिंदू ऐसा धर्म है जो इबलीस की पूजा करता है और हिंदू मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। हिंदू इस्लाम में शामिल होने वालों को जादू-टोना करके और उन्हें कुछ तरल पदार्थ पिलाकर परेशान करते हैं। इस्लाम जानवरों की पूजा करने वाले धर्म से कहीं बेहतर है। अल्लाह उन लोगों को पसंद नहीं करता जो इस्लाम के अलावा अन्य मत—पंथों को मानते हैं। ऐसा करना अक्षम्य पाप है, जो कयामत के दिन सजा दिलाता है।’’ एक-एक दिन करके हमारे मन में दूसरे मत—पंथों के लिए नफरत बोई जाती रही। मौलवियों ने यह भी कहा कि ‘इस्लाम को छोड़कर किसी भी अन्य मत—पंथ में महिलाओं को इतना ज्यादा सम्मान नहीं मिलता।’ हर शुक्रवार को होने वाली मौलवी की तकरीर ने मुझमें एक जिहादी भाव भर दिया जो इस्लाम के लिए लड़ने—मरने के लिए तैयार रहना सिखाता था।
मौनाथ-उल-इस्लाम सभा में इस्लामी कानूनों और नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता था। महिलाओं को बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। बस, दीवार के बाहर से गुजरती गाड़ियों का शोर ही सुन सकते थे। खुद को सिर से पांव तक न ढको तो मौलवी डांट लगाता था। बुर्का और हिजाब पहनकर ही कोई महिला बाहर निकल सकती थी। सप्ताह में केवल एक बार फोन करने की अनुमति थी।
मैं वहां बिल्कुल खुश नहीं थी। इस्लामी रीति-रिवाजों के आधार पर इस्लाम तो स्वीकारा, लेकिन कई चीजें गले से नहीं उतरीं। अगर कभी मेरे शरीर का कोई छोटा सा हिस्सा, चाहे हाथ ही सही, उघड़ता तो मौलवी यह कहकर बहुत अपमानित करते कि ‘तुम्हारी यह आदत इसलिए बनी है क्योंकि तुम ऐसी संस्कृति में पैदा हुई, जिसमें महिलाएं अपने शरीर का प्रदर्शन करती हैं।’ वहां मेरे अंदर देश-विरोधी और हिंदू-विरोधी भावनाएं भरी गई।
हिंदू संस्कृति के बारे में बहुत बुरा—भला कहा जाता। उनकी कोशिश यही थी कि मैं हिंदू धर्म से नफरत करने लगूं। मुझे नमाज, रोजा रखना सिखाया गया। जकात के बारे में समझाते हुए भी उन्होंने हिंदुओं की आलोचना की। उन्होंने कहा कि ‘इस्लाम लोगों को एक-दूसरे का साथ देना सिखाता है। अमीरों को गरीबों की मदद करनी चाहिए, खासकर मुसलमानों की।’ उन्होंने हमें बताया कि हिंदू हमेशा गरीबों की उपेक्षा करते हैं।’ एक बार एक मौलवी ने यहां तक कहा कि ‘हिंदू पुरुष और महिलाएं मंदिरों और पवित्र स्थानों पर प्रार्थना करने के लिए नहीं, मिलने और आनंद लेने के लिए जाते हैं।’ इस्लाम पर मेरे पहले के अध्ययन, मुस्लिम प्रसारकों, खासकर जाकिर नाइक के जिहादी भाषणों और कन्वर्जन की उस तालीम ने मुझे एक महिला जिहादी बना दिया था।
आप मौनाथ-उल-इस्लाम सभा से बाहर कैसे निकलीं?
मैं करीब दो महीने वहां रही। मेरे साथ ये सब चल ही रहा था कि माता-पिता ने मेरे लापता होने की शिकायत पुलिस में की। पुलिस की मदद से मेरे मोबाइल फोन के आईएमईआई नंबर से मेरा पता लगाया गया। उन सूचनाओं और मेरे पहले के संदिग्ध व्यवहार की वजह से उन्होंने समझ लिया कि मैं शायद पोन्नानी में थी। पुलिस और हिंदू संगठनों की मदद से मेरे पिता और भाई मुझे अपने साथ वापस ले जाने के लिए पोन्नानी पहुंचे। विजयादशमी की पूर्व संध्या पर वे वहां पहुंचे थे। मुझे आज भी याद है, जब मैंने काले बुर्के और हिजाब में पुलिस से बात की थी। पुलिस ने पिता की शिकायत और अदालत में पेश होने का आदेश मुझे दिखाया।
आखिरकार मौलवी ने दो दिन की छुट्टी की अर्जी लिखवाई और वादा लिया कि मैं वापस लौटूंगी। मौलवी ने कहा, ‘‘डरो मत। अल्लाह, दीन और हम सब आपके साथ हैं। जाओ और बहादुरी से वापस आओ। आपका परिवार और हिंदू आप पर काला जादू करेंगे। वे आपका मन बदलने की कोशिश करेंगे। अदालत को दृढ़ता से बताना कि तुम यहां वापस आना चाहती हो। चाहे जो हो जाए, फैसला मत बदलना।’’
इस घटना का आपके परिवार पर क्या असर हुआ?
अगले दिन सुबह 6 बजे के आसपास जब हम अपने शहर कासरगोड पुलिस स्टेशन पहुंचे तब तक हर तरफ इस बात की खबर पहुंच चुकी थी कि लापता हुई एक लड़की पोन्नानी कन्वर्जन केंद्र में मिली है। थाने के सामने ही नहीं, बल्कि आसपास के इलाकों में भी काफी भीड़ थी। थाने में मेरे रिश्तेदारों ने मुझे मनाने की बहुत कोशिश की। वे बहुत रोए। जब मैंने अपनी मां को पुलिस थाने में देखा तो मैं अंदर से हिल गई। मुझे हिजाब पहने देखकर मां बेहोश हो गर्इं। थाने में मेरा बयान लेने के बाद मुझे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। वह क्षण निर्णायक था। मैं दृढ़ता से कह रही थी, ‘‘मैं इस्लाम नहीं छोड़ूंगी, चाहे जो हो।’’
मजिस्ट्रेट के सामने एक पल के लिए (शायद भगवान की मर्जी थी) मैंने मां के चेहरे की ओर देखा। वह रोते हुए बोलीं, ‘‘ऐसा मत करो मेरी बच्ची! मुझे छोड़कर मत जाओ।’’ लेकिन मैंने कहा, ‘‘मैं दो दिन बाद पोन्नानी वापस जाना चाहती हूं और इस्लामिक अध्ययन फिर से शुरू करना चाहती हूं।’’
आचार्य मनोज और आर्ष विद्या समाजम से आपका संपर्क कैसे हुआ?
मेरे माता-पिता मुझे कलूर, एर्नाकुलम में विश्व हिंदू परिषद के कार्यालय में ले गए। वहां तीन लोगों ने मुझसे विस्तार से बात की, मुझे दो दिन तक समझाते रहे। उनमें से एक, सुरेश सर (बदला हुआ नाम) ने मेरे माता-पिता को मुझे त्रिपुनिथुरा के एक योग केंद्र में ले जाने को कहा। उन्होंने बताया, ‘‘वहां मनोज जी नाम के एक योगाचार्य हैं। योग और हिंदू धर्म के बारे में कुछ बातें जानने के बाद मैं एक उचित निर्णय लेने में सक्षम हो पाऊंगी। मैंने विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं को मेरे माता-पिता को यह कहते हुए सुना कि आचार्य जी से बात करके मेरी सभी समस्याओं और शंकाओं का समाधान हो जाएगा। आचार्य मनोज मुझे बेहद शिष्ट लगे। मुझे उनके असाधारण होने का आभास हुआ।’’
संघर्ष और स्वधर्म में वापसी की कहानी
पुस्तक ‘स्टोरी आफ ए रिवर्जन’ नि:संदेह ओ. श्रुति के जीवन का आईना है। श्रुति ने ‘अज्ञानतावश’ स्वधर्म छोड़कर इस्लाम को अपना लिया था। यह सब कैसे और क्यों हुआ, उसे क्या-क्या सहना पड़ा, वह किन पड़ावों से गुजरी उन्होंने अपनी पुस्तक में यह विस्तार से बताया है। उन्हें कब, कैसे उस गलती का अहसास हुआ? कैसे वह स्वधर्म में वापस आई? यूट्यूब पर उनकी इस दारुण कथा और अनुभवों को 40 लाख से अधिक लोग देख—जान चुके हैं। यह पुस्तक कन्वर्जन और उसके पीछे के वास्तविक कारणों को सामने रखती है। श्रुति के अनुसार, पुस्तक लिखने का आशय भी यही है कि कोई और ऐसी गलती न दोहराए और उन कष्टों से न गुजरे, जो उन्होंने और उनके परिवार ने सहन किए हैं।
मूल रूप से मलयालम में लिखी गई यह पुस्तक उन असंख्य हिंदू लड़कियों की कहानियों का एक झरोखा है, जो लव जिहाद या कन्वर्जन की शिकार होकर इस्लामी कट्टवाद के भयावह जाल में फंस गई। यह निमिषा, अखिला और मेरीन जैसी युवतियों के माता-पिता की दुर्दशा को सामने रखती है। कह सकते हैं कि यह पुस्तक मुस्लिम कन्वर्जन पर लगाम लगाने के लिए एक ताकतवर हथियार साबित हो सकती है।
केरल के कासरगोड नगर के एक ब्राह्मण परिवार की लड़की (लेखिका) अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर कर रही थी। अपनी कहानी में उसने बताया है कि कैसे उसके साथ की छात्राएं और कॉलेज के साथी हिंदू धर्म का उपहास करते थे व इस्लाम को बढ़ा—चढ़ाकर पेश करते थे। हिंदू धर्म के बारे में उनके ऐसे विचारों और इस्लाम की तारीफों ने लेखिका के मन में इस्लाम के प्रति आकर्षण पैदा किया और उसे भी लगा कि ‘उसका धर्म कितना पिछड़ा है।’ इस प्रकार, वह इस्लामी कन्वर्जन के लिए पोन्नानी के इस्लामी केंद्र में जा पहुंची। वहां मजहबी कट्टरपंथियों ने उसे मजहब की पट्टी पढ़ाई और उसके दिमाग में हिंदू धर्म तथा देश के प्रति विष बोया। पुस्तक इस पूरे प्रकरण पर विस्तार से प्रकाश डालती है। इस्लामवादी मौलवी किस प्रकार वहां फुसलाकर, डरा कर या लालच देकर कन्वर्जन करते हैं और कैसे अन्य हिंदू महिलाओं को ऐसी स्थितियों में ला छोड़ते हैं, जहां उनके पास मजहब को अपनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।
कन्वर्जन केंद्र में उसे मजहब से जुड़ी हर चीज की तालीम देने की कोशिश की गई। साहित्य दिया गया, सुनने को सीडी दी गर्इं। उसके दिमाग में यह बैठाया गया कि ‘अल्लाह ही एकमात्र पैगम्बर है और मोहम्मद उसका अंतिम दूत।’ इस्लाम व उसके इतिहास को पढ़ने के बाद लेखिका को लगा कि इस्लाम में उपासना का तरीका कहीं आसान है। इस्लाम कबूलने के बाद उसने नमाज पढ़ना, रोजा रखना सीखा। कपड़े भी मजहबी रीति से पहनने लगी। बिंदी लगानी छोड़ दी। उसके लिए पूजा, मंदिर, प्रसादम्, मंत्र आदि पिछड़ेपन की निशानियां हो गए। मौलवियों ने उसके मन में उसके माता-पिता के प्रति भी नफरत पैदा कर दी, क्योंकि ‘वे काफिर थे’, इसलिए उनसे कोई मतलब न रखने को कहा।
इधर, मां का रो—रो कर बुरा हाल था। इकलौती बेटी माता-पिता, भाइयों-बहनों से दूर होती गई। पुस्तक में एक जगह बताया गया है कि कैसे इस्लाम के ख्यालों में खोई लेखिका हिंदू परिवार में ‘मन से इस्लामवादी’ होकर रही थी। उसे घर में लगीं भगवान शिव और अन्य देवताओं की तस्वीरों से चिढ़ होने लगी थी। उसने लिखा है कि कैसे उसने एक बार एक मंदिर में शिवलिंग के प्रति अपमानजनक शब्द कहे और मंदिर का अपमान किया था।
पुलिस में शिकायत के बाद उसे कन्वर्जन केंद्र से पावक्कुलम महादेव मंदिर, एनार्कुलम में विश्व हिंदू परिषद के कार्यालय में लाया गया। वहां उसे काफी समझाया गया, फिर लेखिका को आर्ष विद्या समाजम में आचार्य से मिलवाया गया। बस, यहीं से जीवन में बदलाव आना शुरू हुआ। आज वह आर्ष विद्या समाजम की समर्पित कार्यकर्ता है। उसने आचार्य से दीक्षा ग्रहण की। उसके जीवन का एक ही ध्येय है कि कन्वर्ट हुए हिंदुओं को स्वधर्म में वापस लाना।
सही और सकारात्मक रास्ता दिखाने के लिए पुस्तक की लेखिका ओ. श्रुति विश्व हिंदू परिषद, हिंदू एक्य वेदी, आर्ष विद्या समाजम और अपने गुरु आचार्य मनोज का आभार प्रकट करती हं।
—समीक्षा: टी. सतीशन
आप फिर से सनातन धर्म की ओर कैसे लौटीं?
आचार्य के.आर. मनोज के साथ हुई बातचीत ने मेरी आंखें खोल दीं और मैं इस्लाम छोड़ सकी। इस्लाम में अनेक विसंगतियों के बारे में आश्वस्त होने के बाद, जिसे मैंने अपनी पुस्तक ‘स्टोरी आॅफ ए रिवर्जन’ में विस्तार से दिया है (देखें बाक्स), मैंने गंभीरता से सनातन धर्म का अध्ययन शुरू किया। आर्ष विद्या समाजम सनातन धर्म के प्रसार के लिए प्रतिबद्ध संस्था है। जैसे-जैसे मैंने सनातन धर्म की महानता और गुरु परंपराओं के बारे में जाना, मुझे अपने में दोष का पता चला। पहले मैं मजहबी उन्माद की अवस्था में थी। मुझे कुछ भी होश नहीं था कि मैं क्या कर रही थी, क्या सोच रही थी या क्या कह रही थी।
आचार्य मनोज से दीक्षा लेने के बाद मैंने साधिका के रूप में जीवन प्रारंभ किया। मैंने अपने गलत कामों के लिए प्रायश्चित करने का फैसला किया। संकल्प लिया कि जिन बुरे अनुभवों से मैं गुजरी हूं, उनसे अब किसी और को नहीं गुजरना चाहिए। मैंने निश्चिय किया कि जो लोग गलत धारणाओं के कारण कन्वर्जन करा चुके हैं या जो इसकी कगार पर हैं, उन्हें वापस सही रास्ते पर लाने के लिए काम करूंगी। मेरा जीवन इसका एक उदाहरण है। ईश्वर ने हमें इतने महान धर्म में जन्म दिया है, फिर भी हम उसकी महानता को समझ नहीं पा रहे हैं।
आचार्य मनोज ने सिखाया कि हिंदूधर्म में सर्वोच्च आध्यात्मिक महिमा व दार्शनिक शक्ति है जो मंदिर के दर्शन, प्रसाद व पूजा से परे अविनाशी है। समाजम में आकर पहली बार ‘सनातन धर्म’ शब्द सुना। बचपन से मन में जो शंकाएं पाल रखी थीं, उनके उत्तर मिलने लगे। साधना, स्वाध्याय व सत्संग से मुझे ईश्वर की महानता का बोध होने लगा। इस प्रकार स्वधर्म में लौट आई।
आर्ष विद्या समाजम में आपकी क्या जिम्मेदारियां हैं?
वर्तमान में मैं छात्रों को आध्यात्मिका शास्त्रम यानी बुनियादी पाठ्यक्रम पढ़ा रही हूं। मैं यहां परामर्शदाता, उप निदेशक और मुख्य जनसंपर्क अधिकारी की भूमिका भी निभा रही हूं।
समाजम और अपनी उपलब्धियों के बारे में कुछ बताना चाहेंगी?
पिछले 23 वर्षों से हम विभिन्न पाठ्यक्रमों (आध्यात्मिका शास्त्रम्), योग विद्या द्वारा शिवशक्ति योग विद्या केंद्र, विज्ञान भारती विद्या केंद्र, मनीषा संस्कारिका वेदी जैसे संस्थानों के जरिये हम भारतीय संस्कृति को सबके सामने रखते हैं। 6,500 से अधिक लोगों की सनातन धर्म में वापसी कराई है। नशीली दवाओं और शराब के आदी हजारों लोगों को सही रास्ते पर लाए हैं। आनलाइन माध्यम से सात भाषाएं (मलयालम, संस्कृत, हिंदी, कन्नड़, तमिल, तेलुगु और अंग्रेजी) सिखा रहे हैं। सनातन धर्म के प्रचार के साथ समाज कल्याण गतिविधियों के रूप में कई सेवा-सशक्तिकरण परियोजनाएं शुरू की हैं। इंडियन रेड क्रॉस सोसाइटी, आट्टुकल देवी अस्पताल, श्रीनेत्र आई केयर और हर्ष क्लिनिक के सहयोग से मुफ्त चिकित्सा शिविर का सफलतापूर्वक आयोजन किया है। जरूरतमंद परिवारों के लिए साप्ताहिक भोजन, स्कूली बच्चों के लिए नोटबुक, चिकित्सा सहायता, कोविड के बाद जरूरतमंदों को स्वच्छता किट वितरण, साप्ताहिक सामाजिक सत्संग, अन्नदान व विभिन्न उपयोगी नि:शुल्क पाठ्यक्रम संचालित किया है।
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