‘मुंबई संकल्प’ कार्यक्रम में फिल्म निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने भारत पर विदेशी आक्रांताओं के हमलों, ज्ञान परंपरा और दर्शन पर खुलकर अपना पक्ष रखा। उन्होंने कहा कि पहले हिंदी सिनेमा पश्चिम की तरफ नहीं देखता था। आज भी पूरी जिम्मेदारी से फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक बहुत कम हैं
पाञ्चजन्य के आयोजन ‘मुंबई संकल्प’ का एक सत्र विभिन्न विदेशी आक्रांताओं और उनसे भारत का बचाव करने वाली भारत की ज्ञान परम्परा और भारत के दर्शन पर केन्द्रित था। सत्र को संबोधित किया फिल्म निदेशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने। उनसे मंच पर बातचीत की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। सत्र के आरम्भ में द्विवेदी ने भारत पर हुए आक्रमणों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि भारत पर आक्रमण का इतिहास बहुत पुराना है। पहला आक्रमण मैसेडोनिया के शासक अलेक्जेंडर ने किया। इसके बाद सन् 712 या 715 में पहला इस्लामिक आक्रमण हुआ। फिर 1191, 1192 और उसके बाद लगातार आक्रांताओं के हमले हुए। प्रश्न यह है कि हमें समस्या किससे है? इन आक्रमणों का भारत पर क्या असर पड़ा?
देश को बाहर और भीतर से चुनौती
चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने कहा कि इन आक्रमणों से भारत को तब तक अंतर नहीं पड़ा, जब तक आक्रांताओं ने इसकी आस्था, विश्वास, इसके मानस व दर्शन को नहीं छुआ। जब छुआ तो उसका विरोध हुआ। जब-जब इस मानसिकता के साथ भारत पर आक्रमण हुआ कि उनकी सभ्यता-संस्कृति श्रेष्ठ है और भारत की या हिंदू संस्कृति श्रेष्ठ नहीं है, तब हमारा उन आक्रांताओं से जबरदस्त संघर्ष हुआ, जो अभी भी जारी है। दुर्भाग्य से, पहले आक्रांता बाहरी थे और अब तो भीतर भी मौजूद हैं, जो बार-बार देश और देश के लोगों को चुनौती देते हैं। उन्होंने कहा कि 17 साल के चंद्रगुप्त ने अलेक्जेंडर का सामना किया।
फिल्म निर्माता के तौर पर हम यह नहीं समझ पाते कि हमारे दर्शक, हमारा देश, हमारा समाज हम से क्या अपेक्षा रखता है। अति प्रगतिशीलवादी और आधुनिक बनने के चक्कर में लोग अपनी जमीन से कट जाते हैं। बॉलीवुड में सफलता का मापदंड बॉक्स आफिस है। बॉलीवुड में सबसे बड़ा कलाकार वही है, जो सबसे अधिक पैसे लेता है।
21 की उम्र में वह भारत का पहला ऐतिहासिक सम्राट बना और तीन वर्ष के भीतर भारत से ग्रीक साम्राज्य को समूल उखाड़ फेंका। बाद में सन् 305 में सेल्युकस निकेटर आक्रमण के उद्देश्य से आया, पर उसने आक्रमण नहीं किया। कहने का तात्पर्य यह है कि वह दर्शन और विचार कैसा था, जिसने भारत को सुरक्षित रखा! यदि राष्ट्र की व्यवस्था, समाज की व्यवस्था अच्छी है और सुरक्षित है, तभी वह इन आक्रांताओं से लड़ पाएगा। यदि समाज व्यवस्थित नहीं है, समाज की सुरक्षा व्यवस्थित नहीं है तो समाज आक्रांताओं से नहीं लड़ पाएगा। आश्चर्य है कि अक्सर आक्रांताओं को बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से मदद मिली।
ईसा पूर्व 400 साल पहले की व्यवस्था
चाणक्य की बात होती है। कौटिल्य, चाणक्य या विष्णुगुप्त तीनों एक ही व्यक्ति हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र के रचयिता हैं। कौटिल्य को कभी चाणक्य नहीं कहा गया। वास्तव में यह एक राजा के लिए लिखी गई पुस्तक थी, जिसमें बहुत सारे विषय हैं। अर्थशास्त्र उसका एक छोटा-सा हिस्सा है। इस पुस्तक में राज्य संचालन की व्यवस्था का उल्लेख है। इसी में एक अध्याय है-कंटक शोधन। यानी समाज में मौजूद कांटे को ढूंढने के लिए एक बड़ी व्यवस्था थी। उन्होंने राज्य के खर्च पर चोरों को नियुक्त किया था ताकि किसी भी तरह अपराधियों की योजनाओं का पता लगाया जा सके। कौटिल्य की गुप्तचर व्यवस्था में साधु-संन्यासी से लेकर बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियां तक थीं, क्योंकि उस समय नए-नए पंथ आ रहे थे। उन पंथों में क्या हो रहा है, उसकी सूचना के लिए उनकी नियुक्ति की गई थी।
उन्होंने कहा कि समाज के कंटकों को नियंत्रण में रखने की जिम्मेदारी समाहर्ता यानी कलेक्टर की होती थी, ताकि राज्य की आंतरिक सुरक्षा और व्यवस्था बनी रहे। इसके लिए प्रत्येक ग्राम का वर्गीकरण कर उनकी छोटी से छोटी जानकारी रखी जाती थी। इसी तरह, बाहर से पाटलिपुत्र में आने वाले व्यक्ति के लिए एक व्यवस्था थी। जिस तरह आज पासपोर्ट कार्यालय है, नगर प्रवेश पर टोल लिया जाता है। उस समय पाटलिपुत्र में नगर प्रवेश से पहले आगंतुक के लिए मुद्रा अध्यक्ष के कार्यालय में जाना अनिवार्य था। यह व्यवस्था नकली मुद्रा पकड़ने के लिए भी थी। यही नहीं, आगंतुक के पास क्या-क्या सामान है, इसकी सूची भी बनती थी ताकि यह पता रहे कि वह अपने साथ क्या लेकर आया, कहां-कहां गया और किस-किस शहर में मुद्रा विनिमय किया। यह व्यवस्था ईसा के 400 साल पहले थी।
राष्ट्रवादी विचार यानी हिन्दू विचार
बॉलीवुड में हिंसा, अपराधी व आतंक का महिमामंडन करने वाली फिल्मों के निर्माण व उन्हें पुरस्कृत किए जाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि हिंदी सिनेमा या भारतीय सिनेमा में सभी राष्ट्रविरोधी हैं। हाल ही में एक प्रसिद्ध अभिनेत्री ने ‘हाय गलवान’ लिख दिया। जहां कुछ लोग प्रतिक्रिया देने में सतर्कता बरतते हैं, वहीं पहला विरोध अक्षय कुमार ने किया। लेकिन ट्वीट करते ही कई राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं ने उन पर हल्ला बोल दिया। अक्षय ने इस देश के सैनिकों के सम्मान की रक्षा के लिए कहा, जो सबका दायित्व है। यह सच्चाई है कि राष्ट्रवादी विचारों को रखने का अर्थ है, आप हिंदू विचार को रख रहे हैं। लोग हिंदू शब्द से बहुत डरते हैं। उन्हें यह डर है कि यदि वे ऐसा कुछ करते हैं और कल को भाजपा सत्ता में नहीं आती है तो सत्ता का उनके प्रति व्यवहार कैसा होगा? मेरा मानना है कि सरकारें सफल लोगों का सम्मान करती हैं, असफल लोगों का नहीं।
हमारे चरित्र, हमारी गतिविधियों, हमारे व्यवहार का निर्णय हमारा अतीत, 3,000 साल पुरानी परंपरा, देश का इतिहास व पुराण करेंगे या वर्तमान? मापदंड क्या होगा? मैं पुराणों, काव्यों के दर्शन को सामने रखकर निर्णय लेने की कोशिश करूंगा। यही सिनेमा था, जो पश्चिम की तरफ नहीं देखता था। आज जिम्मेदारी से फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक बहुत कम हैं।
द्विवेदी ने आगे कहा कि जब ‘चाणक्य धारावाहिक आया था, तब एक बड़े अखबार ने चाणक्य के विरोध में एक आलेख छापा था, जिसका शीर्षक था ‘सैफ्रॉन फॉर ब्रेकफास्ट’। लेकिन देर से ही सही, उन्हें अब राष्ट्र हित में सोचना पड़ रहा है। मैं यहां के मुस्लिम समाज को भी इससे अलग नहीं करता। दुनिया को बताना होगा कि इस्लामी आतंकवाद, इस्लाम के नाम पर हो रहा आतंकवाद है। इस देश में जिसने भी जन्म लिया है, वह हिंदू है। हमारी दो प्रकार की नागरिकता है। एक, सांस्कृतिक नागरिकता और दूसरी, राजनीतिक नागरिकता। जिस तरह मेरी राष्ट्रीयता भारतीय है।
अक्षय के संदर्भ में उनकी राष्ट्रीयता फिलहाल कनाडा की हो सकती है, लेकिन उनकी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को समझना जरूरी है। जब अमेरिका में कमला हैरिस उपराष्ट्रपति चुनी जाती हैं, तो पूरे देश में उत्साह होता है, जबकि उनका जन्म भारत में नहीं हुआ। उसी प्रकार, ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक का भारत से सीधा संबंध नहीं है। लेकिन इस देश ने उत्सव मनाया, क्योंकि गाय की पूजा करते देख भारतीय मानस में उनकी एक छवि बनी। कहने का तात्पर्य है कि हम अपनी संतानों, देश के बेटों से मुंह नहीं मोड़ सकते, भले ही वे कोई गलती करें। शायद यही भारतीयता है। यही हिंदुत्व है।
बॉक्स आफिस सफलता का मापदंड
यह पूछने पर कि कौन, किसे खारिज कर रहा है, उन्होंने कहा कि फिल्म निर्माता के तौर पर हम समझ नहीं पाते कि हमारे दर्शक, हमारा देश, हमारा समाज हम से क्या अपेक्षा रखता है। अति प्रगतिशीलवादी के तौर पर दुनिया में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करने और आधुनिक बनने के चक्कर में लोग अपनी जमीन से कट जाते हैं। मैंने भी यह अपराध किया है। बॉलीवुड में कुछ लोगों के दबदबे के संदर्भ में उन्होंने कहा कि यह सही है कि वे सफल हैं, लेकिन उनसे अधिक प्रतिभाशाली कलाकार फिल्म उद्योग में हैं। बॉलीवुड में सफलता का मापदंड बॉक्स आफिस है। चूंकि वे इसमें सफल नहीं हैं, इसलिए लोग उन्हें नहीं पूछते। बॉलीवुड में सबसे बड़ा कलाकार वही माना जाता है, जो सबसे अधिक पैसे लेता है।
हमें फिल्म उद्योग का 60-70 साल का अनुभव है। ये लोग अपने हिसाब से पटकथा में बदलाव करते हैं। मेरी फिल्म ‘पृथ्वीराज’ के साथ यही हुआ। इसमें कई चरित्र पटकथा से धीरे-धीरे बाहर होते गए। एक प्रभावशाली व्यक्ति जो नहीं चाहता वह हो तो फिल्म ही नहीं बनती। एक व्यक्ति ने तो यहां तक कह दिया कि फिल्म में चंद बरदाई के चरित्र की क्या जरूरत है, संयोगिता और पृथ्वीराज का प्रेम ही काफी है। दरअसल, बॉलीवुड में प्रेरणा पश्चिम से आ रही है। आधुनिक और प्रगतिशील बनने के चक्कर में निर्माता जमीन से ही कट जाते हैं।
एक बात और है, अक्सर मीडिया वैसे लोगों को बड़ा या महान बनाकर पेश करता है। बार-बार जब एक ही झूठ दोहराया जाता है तो लोग उसे सच मानने लग जाते हैं। हमारे पास ऐसा कोई हथियार नहीं है, जिससे इस भ्रामक प्रचार से लड़ा जा सके। फिल्मों की समीक्षा करने वाले पत्रकारों की कुछ समीक्षाओं को देखें तो पता चलेगा कि वे अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग समीक्षा करते हैं। कई तो बिना फिल्म देखे ही समीक्षा लिख देते हैं। दूसरी बात, हम सूची बनाते हैं कि फलां के साथ काम नहीं करना है। हर साल यह सूची बड़ी होती जाती है। हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है। बेलगाम ओटीटी और फिल्म प्रमाणन-बोर्ड की भूमिका पर उन्होंने कहा कि इस घोड़े को और बेलगाम छोड़ दें और देखें कि जो भी देश, समाज और संस्कृति के विरोध में कोई काम करे तो उसे सड़क पर ले आना चाहिए। फिर देखिएगा, कैसे सब आत्मानुशासन मानने लगेंगे।
बॉलीवुड बनाम दक्षिण की फिल्में
दक्षिण में भारतीयता से जुड़े विषयों पर बनने वाली फिल्मों की सफलता पर उन्होंने कहा कि जब तक कहानी भारत की मिट्टी में रची-बसी नहीं होगी, उसकी ग्राह्यता कम होगी। दक्षिण में अभिनेता धोती पहनता है, लुंगी पहनता है उसे उठा भी लेता है। फिल्म ‘पुष्पा’ में नायक ने चप्पल पहनी है, लेकिन बॉलीवुड में डिजाइनर से नीचे बात ही नहीं होती। यहां अधिकतर कलाकारों की वेशभूषा इंग्लैंड से खरीदी जाती है, इसलिए कि वह ब्रांड है, जबकि उस ब्रांड को कोई नहीं देखता। लेकिन वह महंगे वस्त्र देखकर खुश होता है। यह भी सच है कि स्थापित निर्देशकों ने अपने मन में भारत की एक अलग छवि बनाई है। हालांकि उन्होंने न अयोध्या को देखा है, न उत्तर प्रदेश- फैजाबाद। पटना के अलावा बिहार के किसी भी शहर का नाम उनसे पूछें तो 90 प्रतिशत बता नहीं पाएंगे। इसलिए पटना पर बहुत सारी फिल्में बनती हैं। ऐसे लोग हमें निर्देशित करते हैं। इनकी निगाह में अमीर आदमी गोरा होता है और गरीब काला।
दूसरी ओर, फिल्म बनती ही तब है, जब एक अभिनेता हामी भरता है, क्योंकि उसे पता है कि उसके कहने पर ही फिल्म बनने वाली है। वह निर्देशक से कहता है कि उसे 200 फिल्मों का अनुभव है, आपको कितनी फिल्मों का अनुभव है? निर्माता से बात करो तो कहते हैं कि हमें फिल्म उद्योग का 60-70 साल का अनुभव है। ये लोग अपने हिसाब से पटकथा में बदलाव करते हैं। मेरी फिल्म ‘पृथ्वीराज’ के साथ यही हुआ। इसमें कई चरित्र पटकथा से धीरे-धीरे बाहर होते गए। एक प्रभावशाली व्यक्ति जो नहीं चाहता वह हो तो फिल्म ही नहीं बनती। एक व्यक्ति ने तो यहां तक कह दिया कि फिल्म में चंद बरदाई के चरित्र की क्या जरूरत है, संयोगिता और पृथ्वीराज का प्रेम ही काफी है। दरअसल, बॉलीवुड में प्रेरणा पश्चिम से आ रही है। आधुनिक और प्रगतिशील बनने के चक्कर में निर्माता जमीन से ही कट जाते हैं।
सवाल है कि हमारे चरित्र, हमारी गतिविधियों, हमारे व्यवहार का निर्णय हमारा अतीत, 3,000 साल पुरानी परंपरा, देश का इतिहास व पुराण करेंगे या वर्तमान? मापदंड क्या होगा? मैं पुराणों, काव्यों के दर्शन को सामने रखकर निर्णय लेने की कोशिश करूंगा। यही सिनेमा था, जो पश्चिम की तरफ नहीं देखता था। आज जिम्मेदारी से फिल्म बनाने वाले निर्माता-निर्देशक बहुत कम हैं।
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