संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का पूरा नाम है-भीमराव रामजी आंबेडकर, लेकिन एक षड्यंत्र के तहत कुछ लोग उनके नाम के साथ ‘रामजी’ नहीं लगाते। इसे समझने की आवश्यकता है
यह हम सबका अनुभव है कि अधिकतर लोग डॉ. आंबेडकर का अधूरा नाम लिखते हैं। इसलिए सबसे पहले यह जानिए कि उनका पूरा नाम क्या है। उनका पूरा नाम है- भीमराव रामजी आंबेडकर। लेकिन कुछ लोग अनजाने में और कुछ लोग एक षड्यंत्र के अंतर्गत उनके नाम के साथ ‘रामजी’ नहीं लगाते।
पिछले चार-पांच दशक से देखने में आ रहा है कि डॉ़ आंबेडकर के नाम के सही रूप और उनके नाम की पूर्णता को बदलने का प्रयास किया जा रहा है। इस मामले में उनके अनुयायियों को भ्रमित किया जा रहा है। विशेषकर कतिपय कारणों से तथाकथित पश्चिमी विकासधारा में पिछड़ जाने वाले वर्गों को यह बताया जा रहा है कि डॉ़ आंबेडकर का पूर्ण नाम भीमराव आंबेडकर (अम्बेडकर या आम्बेडकर लिखना भी गलत है) ही है, उसके साथ ‘रामजी’ नाम नहीं है, जो पूर्णत: गलत है। डॉ़ आंबेडकर के सही और पूर्ण नाम का शोध आधारित तथ्यात्मक प्रमाण हमें भारतीय संविधान (हिंदी भाषा) की मूल प्रति में उनके द्वारा किए गए हस्ताक्षर में मिलता है। उन्होंने अपने हस्ताक्षर ‘भीमराव रामजी आंबेडकर’ के नाम से दर्ज किए हैं।
अत: भीमराव आंबेडकर जैसा अपूर्ण और भ्रमित नाम न केवल ‘डॉ़ भीमराव रामजी आंबेडकर’ के नाम एवं सम्मान के प्रतिकूल है, अपितु यह समाज में एक-दूसरे के प्रति वैमन्यस्ता फैलाने का षड्यंत्र भी प्रतीत होता है। प्रश्न है कि जब डॉ़ भीमराव रामजी आंबेडकर ने स्वयं अपने नाम को पूरा लिखा है, तो कौन हैं वे लोग जो उनके नाम से उनकी पहचान नहीं कराना देना चाहते और क्यों? क्या केवल इसलिए कि ‘डॉ़ भीमराव रामजी आंबेडकर’ के पूरे नाम में ‘रामजी’ का नाम भी आता है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि रामजी तो उनके पिता का नाम था। अत: उन्हें उनके नाम से पहचाने जाने के लिए उनके पिता का नाम प्रचलन से हटाना जरूरी है, जबकि तार्किक और तथ्यात्मक यह है कि क्षेत्रीय संस्कृति और परंपरानुसार संतान के साथ पिता का नाम लिया जाता रहा है और ‘डॉ़ भीमराव रामजी आंबेडकर’ उसी सनातनी संस्कृति का निर्वहन करते हुए देश के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज ‘भारत के संविधान’ में अपने सही पूर्ण नाम से हस्ताक्षर कर, हम सभी को सार्थक समरसता का संदेश देते हैं।
राम की महिमा
वास्तव में हम सबकी समाज में प्रथम पहचान हमारे नाम से ही होती है। कुछ नगण्य उदाहरणों को छोड़ दें तो हमारे नाम से ही वस्तुत: हमारी पहचान के साथ-साथ हमारे मत, आस्था, अस्मिता, यहां तक कि हमारी सांस्कृतिक व व्यक्तिगत मान्यताएं भी प्रकट हो जाती हैं।
माता-पिता एवं परिवार के सदस्योें द्वारा परिवार में जन्मी संतान के नामकरण संस्कार से भारतीय समाज और सनातन संस्कृति की पहचान होना प्रारंभ हो जाता है। माता-पिता कई बार तो अपनी संतानों के नाम चयन में गंभीर चिंतन एवं खोज भी करते हैं, ताकि वंशज को सही पहचान और सम्मान मिल सके।
सम्मान के लिए हम अपने आदर्शों, युग पुरुषों को उनके नाम के साथ कुछ विशेषण या सम्मानस्वरूप प्यार-दुलार के शब्द नाम के आगे या पीछे पुकारते या लिखते तो हैं, किन्तु किसी भी परिस्थिति में उनके स्वयं के नाम को विकृत या बदलते नहीं हैं।
वास्तव में हम सबकी समाज में प्रथम पहचान हमारे नाम से ही होती है। कुछ नगण्य उदाहरणों को छोड़ दें तो हमारे नाम से ही वस्तुत: हमारी पहचान के साथ-साथ हमारे मत, आस्था, अस्मिता, यहां तक कि हमारी सांस्कृतिक व व्यक्तिगत मान्यताएं भी प्रकट हो जाती हैं। माता-पिता एवं परिवार के सदस्योें द्वारा परिवार में जन्मी संतान के नामकरण संस्कार से भारतीय समाज और सनातन संस्कृति की पहचान होना प्रारंभ हो जाता है। माता-पिता कई बार तो अपनी संतानों के नाम चयन में गंभीर चिंतन एवं खोज भी करते हैं, ताकि वंशज को सही पहचान और सम्मान मिल सके।
हम सभी चाहते हैं कि हमारे नाम को सही-सही लिखा-पढ़ा जाए और दूसरों से यह अपेक्षा भी रखते हैं कि हमारे पूरे नाम को सम्मान के साथ पुकारा जाए। अर्थात् हम चाहते हैं कि जिन शब्दों और मात्राओं के विन्यास से हमारा नाम सुनिश्चित किया गया है, उस नाम को उसी तरह लिखा और उच्चारित किया जाए। यहां तक कि हमारे नाम में छोटी सी बिन्दी भी अगर सही जगह न लगे तो, उसे सुधारने के लिए हम हर संभव प्रयास करते हैं। साथ ही यदि हमें दूसरों द्वारा दिया गया अपना नाम पसंद न हो तो हम कानूनी प्रक्रियानुसार अपना नाम ही बदलने का प्रयास करते हैं।
व्यक्ति सर्वोपरि
डॉ. आंबेडकर के लिए व्यक्ति का स्थान सर्वोपरि था। समाज और राज्य उनके लिए गौण थे। वे व्यक्ति के अधिकार, उसकी नैतिकता और वैधानिक क्रियाकलापों को राज्य के अधिनायकवादी अधिकारों से तथा समाज की त्रुटिपूर्ण संरचना से सुरक्षित रखना चाहते थे। मानव समाज को सामाजिक सेवा और व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलांजलि पर आधारित धर्म द्वारा बेहतर बनाया जा सकता है।
डॉ. आंबेडकर मानते हैं कि समाज में जो पीड़ित, शोषित, उपेक्षित घटक हैं, उनकी दैन्यावस्था को मिटाने वाला अचूक उपाय है शिक्षा। समाज में जो पददलित हैं, उनकी आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान का आंदोलन है शिक्षा।
जब हम अपने नाम के प्रति इतना सजग एवं संवेदनशील रहते हैं, तो क्यों अपने युगपुरुषों के नाम और उनके द्वारा रचित उनके स्वयं के जीवन, इतिहास और उनके नाम से भावी राष्ट निर्माण और विश्व मानवता को सही मार्ग दिखाने वाले उनके पूर्ण नाम नहीं बताना चाहते?
हम क्यों कुछ लोगों को अपने पथप्रदर्शकों के सही नाम के साथ छेड़छाड़ करने या उनके नाम को तोड़-मोड़ कर या उनके आधे-अधूरे नाम का उपयोग करने की मूक सहमति दे देते हैं? क्यों अपने ही इष्ट या मार्गदाता या प्रेरणापुरुष के नाम को किसी स्वार्थवश भ्रमित या अपभ्रंश करने वालों का विरोध नहीं करते? सभी मत-पंथ और संस्कृतियां एक-दूसरे का सम्मान करती हैं और किसी भी प्रकार से अन्य पंथों और उनसे जुड़े पैगंबरों, उनके पुरोधाओं, उनके युगपुरुषों के नाम अपभ्रंश नहीं करते। तो कैसे कुछ लोग स्वयं और उनके बहकावे या झांसे में आए लोग निहित-स्वार्थवश अपने ही महापुरुषों और मार्ग दिखाने वालों के नाम को बदल कर उनके नाम के साथ जुड़ी आस्था-संस्कृति को प्रदूषित करने लगते हैं?
आज समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था की कुरीतियों के विरोध में पूरा देश एकमत है। इसके साथ ही सभी के लिए सामाजिक न्याय, समानता और समरसता हेतु हर संभव प्रयास कर रहा है। किन्तु अधूरे नाम का उपयोग कर षड्यंत्रपूर्वक संभावित बांटने वाली राजनीति को समस्त देशवासियों को समय रहते समझना जरूरी है। चाहे कांशीराम हों, बाबू जगजीवन राम हों, रामविलास पासवान हों, रामसुंदर दास हों, जीतनराम मांझी हों या निवर्तमान राष्टपति रामनाथ कोविंद हों, इन सबके नाम के साथ ‘राम’ शब्द जुड़ा है। यही हमारे देश की, हमारी संस्कृति की, हमारी अस्मिता की असली पहचान है। इस पहचान के साथ किसी को छेड़छाड़ करने का अधिकार नहीं है।
(लेखक डॉ. बी.आर. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, महू के निदेशक हैं)
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