बाबा मोहन उत्तराखंडी : सेना की नौकरी छोड़ कर, पर्वतीय राज्य आंदोलन के नायक बने

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उत्तराखंड ब्यूरो

उत्तराखंड की स्थाई राजधानी गैरसैंण को बनाने के जाने के अडिग संकल्प को लेकर बाबा मोहन उत्तराखंडी ने 38 दिनों के भीषण आमरण अनशन के बाद अपने प्राणों का बलिदान किया था। पहाड़ के लोगों को उत्तराखंड राज्य तो मिल गया लेकिन प्रबल जन भावनाएं आज भी उपेक्षित हैं। उत्तराखण्ड राज्य की नई पीढ़ियों को अपने पूर्वजों के महान संघर्ष के विषय में सम्पूर्ण जानकारी हो, इसके लिए धरातल पर ठोस प्रयास होने चाहिए। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण और गैरसैंण राजधानी की मांग को लेकर बाबा मोहन उत्तराखंडी के महान संघर्ष को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। उत्तराखंड के जनमानस को बाबा मोहन उत्तराखंडी के बलिदान से प्रेरणा लेकर सशक्त उत्तराखंड की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। बाबा मोहन उत्तराखंडी के बलिदान को 18 वर्ष उपरान्त भी देश और उत्तराखण्ड राज्य की नई पीढ़ी उक्त महान आंदोलनकारी के संघर्ष की गाथा से बिल्कुल अंजान है।

जन्म – 3 दिसंबर सन 1948 ग्राम बैठोली, एकेश्वर, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड

बलिदान पर्व – 9 अगस्त सन 2004 कर्णप्रयाग, उत्तराखण्ड.

बाबा मोहन उत्तराखंडी के नाम से विख्यात मोहन सिंह नेगी का जन्म सन 1948 को उत्तराखंड राज्य के पौड़ी गढ़वाल में एकेश्वेर ब्लॉक के ग्राम बैठोली में हुआ था। मोहन सिंह के पिता का नाम मनवर सिंह नेगी और माता नाम कमला देवी था। इंटरमीडिएट के बाद मोहन सिंह भारतीय सेना के बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप में क्लर्क के रूप में भर्ती हो गए। सेना की नौकरी में वह ज्यादा दिन नहीं रहें इसका प्रमुख कारण तब तक उत्तराखंड राज्य की पृथक मांग के लिए वृहद आंदोलन शुरू हो गया था। अपने पहाड़ी राज्य के प्रति उत्कट प्रेम उनके मन में कूट कूट कर भरा हुआ था। इसके वशीभूत होकर मोहन सिंह सन 1994 में पृथक राज्य आंदोलन में उतर गए थे।

2 अक्टूबर सन 1994 को उत्तर प्रदेश के रामपुर तिराहे पर राज्य आंदोलनकारियों के साथ हुई वीभत्स घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। मोहन सिंह ने इस जघन्य कांड के दोषियों को सजा न मिलने तक आजीवन बाल ना कटाने, गेंहुआ वस्त्र धारण करने तथा दिनभर में एक बार ही भोजन करने की कठोर शपथ ली थी। कठोर शपथ और संकल्प के पश्चात ही मोहन सिंह नेगी बाबा उत्तराखंडी के नाम से प्रसिद्ध और विख्यात हुए थे। बाबा मोहन उत्तराखंडी अपना परिवार छोड़ कर उत्तराखंड आंदोलन में कूद गए थे। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए आन्दोलन हेतु बाबा मोहन उत्तराखंडी ने वर्ष 1997 से आमरण अनशन से संघर्ष शुरू किया और इसके पश्चात उन्होनें 13 बार आमरण अनशन कर सम्पूर्ण पहाड़ को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने तत्कालिक केंद्र व उत्तर प्रदेश की सरकारों को उत्तराखंड राज्य निर्माण के विषय पर बार-बार सोचने पर मजबूर किया था। उन्होनें सरकारी नौकरी के साथ घर–परिवार को छोड़कर पहाड़ में उत्तराखण्ड आंदोलन की एक नई रूपरेखा रची थी। नवंबर 2000 को उत्तराखंड देश के नक्शे में नए राज्य के रूप में अस्तित्व में तो आया, लेकिन गैरसैंण राजधानी का सपना साकार होना अब भी शेष हैं। उत्तराखण्ड राज्य के बनने के तुरंत बाद उनका मोहभंग हो गया था। उनको तत्काल अहसास हो गया था कि केवल राज्य का नाम बदला है बाकि सभी परिस्तिथियां जस की तस हैं। उनकी बाल ना काटने की शपथ की कठोरता का पता सभी को तब लगा जब उन्होंने अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए बाल कटवाने से भी इंकार कर दिया था। बाबा मोहन उत्तराखंडी ने अलग उत्तराखंड राज्य और गैरसैण को उत्तराखंड की स्थाई राजधानी बनाने के साथ अनेक प्रमुख मुद्दों के लिए अनेक बार आमरण अनशन किया था। बाबा उत्तराखंडी एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिए सबसे अधिक अनशन किये।

उत्तराखण्ड राज्य के केंद्र सरकार की घोषणा के पश्चात गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी ने 9 फरवरी सन 2001 से 5 फरवरी 2001 तक तथा इसके बाद 2 जुलाई सन 2001 से 4 अगस्त सन 2001 तक नंदाठोंक में प्रखर आंदोलन किया था। 31 अगस्त सन 2001 को पौड़ी बचाओ आन्दोलन के माध्यम से अनशन किया और उसके पश्चात दिसम्बर सन 2002 से फरवरी सन 2003 तक चाँदकोट गढ़ी में गैरसैण को स्थाई राजधानी घोषित कराने के लिए जबरदस्त आंदोलन किया। बाबा मोहन उत्तराखंडी ने पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी जनभावनाओं के अनुकूल गैरसैंण को घोषित कराने के लिए थराली में अगस्त सन 2003 को इसके पश्चात दोबारा फरवरी सन 2004 को कोडियाबगड़ में विशाल जन आंदोलन किया। अंततः बाबा मोहन उत्तराखंडी ने बेहद सोच समझ कर बेनीताल क्षेत्र को अपने आमरण अनशन के रूप में चुना, यह स्थान गैरसैण के ठीक ऊपर स्थित है। बेनीताल क्षेत्र पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड के लोकाचार का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करता है, जनभावनाओं के अनुरुप गैरसैंण को स्थाई राजधानी घोषित कराने के लिए अनशन करना संकल्पित किया गया था। पूर्वनिर्धारित तय योजनाओं के अनुरुप 2 जुलाई सन 2004 को बाबा मोहन उत्तराखंडी ने अनशन करना प्रारम्भ किया तो प्रशासनिक अधिकारियों में हलचल शुरु हो गई थी। 8 अगस्त सन 2004 के दिन बाबा मोहन उत्तराखंडी को स्थानीय प्रशासन ने उनके खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर अनशन स्थल जबरन उठा लिया। वहां से अनशनकारी बाबा को जबरन कर्णप्रयाग के स्वास्थ्य केन्द्र पर ले जाया गया था। 9 अगस्त सन 2004 को प्रातःकाल बाबा मोहन उत्तराखंडी को मृत अवस्था में पाया गया था।

बाबा मोहन उत्तराखंडी के इस आमरण अनशन के समर्थन में स्थानीय बेनीताल लोगों ने राजधानी निर्माण संघर्ष समिति का गठन करके बाबा की प्रथम पुण्यतिथि 9 अगस्त 2005 को बलिदानी स्मृति मेले का आयोजन किया था। तबसे प्रतिवर्ष 9 अगस्त को बाबा मोहन उत्तराखंडी की पुण्यतिथि पर बलिदानी स्मृति मेला आयोजित किया जाता है।

“हमने जिस शिद्दत से एक लौ जलाई थी। सोचा था हम रहे न रहे, लेकिन ये जलती रही।।” उक्त पंक्तियां बाबा मोहन उत्तराखंडी के महान संघर्षों को वर्णित तो करती है लेकिन इन पंक्तियों के निहितार्थ शब्दार्थ वर्तमान जनप्रतिनिधियों के साथ उत्तराखण्ड की सरकार के लिए भी धुमिल सी हो गई हैं।

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