वीर सावरकर ने कहा था, “कष्ट ही तो वह चाक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और उसे आगे बढ़ाती है!” सावरकर के बलिदानों की असलियत और सच्चाई जाने बिना, बिना उनकी कोशिशों की गहराई को समझे और बिना उन पर अध्ययन किए, कोई भी कांग्रेसी, वामपंथी व विपक्षी उन के ऊपर झूठे आरोप लगाते चले आए हैं। अर्से से उनको अपमानित किया जाता रहा है, अर्थात ऐसे व्यक्ति को जिसका पूर्ण जीवन भारत की आज़ादी के लिए दी गई कुर्बानियों की सच्ची मिसाल है।
ऐसा व्यक्ति जिसको जहरीला भोजन और पानी देकर उसे कांटे की तरह सूखा दिया गया हो, जब उस पर झूठा लांछन लगाया जाता है तो किसी भी सच्चे भारतीय का मन विचलित, मस्तिष्क दुखी और आत्मा तड़प जाती है। लेखक का किसी भी राजनीतिक पार्टी अथवा संगठन से कोई संबंध नहीं है, मगर सावरकर के प्रति उसके मन में आज भी उतनी ही आस्था है, जैसी कि किसी भी स्वतन्त्रता सेनानी के प्रति। उसने “सावरकर प्रतिष्ठान”, मुंबई के स्टेज से ब-बांग-ए-दहल (पुरजोर शब्दों में) एलान किया था कि सरकार वीर सावरकर द्वारा दिए गए बलिदानों के लिए उनको भारत रत्न प्रदान करे। सावरकर का कथन है, “कर्तव्य की निष्ठा संकटों को झेलने में, दुख उठाने में और जीवन भर संघर्ष करने में ही समाविष्ट है; यश-अपयश तो योगायोग की बातें हैं!”
यह तमाम हिंदुस्तानियों के लिए खेद का ही नहीं बल्कि चिंता का विषय है और जैसे अग्रेज़ी में कहते हैं कि “इट इज़ हाई टाइम”, अब इसे रोकना होगा और इसके लिए जनता को ही नहीं बल्कि सरकार को भी आगे आना होगा। जहां, अभी हाल ही में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने उनका, एक चिट्ठी को लेकर अनादर किया, वहीं कुछ समय पूर्व अरविंद केजरीवाल ने एक रैली में भाजपाइयों को सावरकर की औलादें कह कर अपनी मंशा प्रकट की थी। आखिर यह कब तक चलेगा? अब तो इस पर रोक लगनी चाहिए।
हैरानी की बात है कि वीर सावरकर की जन्मस्थली व कर्मस्थली महाराष्ट्र में राहुल ने उन्हें अंग्रेजों का नौकर बताकर लांछन लगाया है, हालांकि उनकी दादी इन्दिरा गांधी ने एक खत में सावरकर की तारीफ की थी और पंडित जवाहर लाल नेहरू, उनके परदादा ने भी एक गणतन्त्र दिवस पर दिल खोलकर आरएसएस की प्रशंसा की थी। 1998 में भारत के दसवें प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हैदराबाद में मुस्लिमों के लिए भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम से गचिबावली में 200 एकड़ के अंदर एक उर्दू विश्वविद्यालय का तोहफा दिया था। आरएसएस एक राष्ट्र समर्पित, राष्ट्रवादी व सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास करने वाली हितैषी संस्था है।
जहां तक राहुल गांधी और केजरीवाल साहब और तमाम दूसरे विपक्षियों का प्रश्न है, वे इस बात को गांठ में बांध लें कि ब्रिटिश राज में चिट्ठियों के अंत में सावरकर ही नहीं, गांधीजी, नेहरुजी, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल, सी राजगोपालाचारी आदि सभी इस प्रकार से लिखते थे, “आई बैग टू रिमेन, सर, योर हंबल सरवेंट”, अर्थात, मैं आपकी सेवा में सदैव समर्पित, आपका सेवक” (I beg to remain, sir, your humble servant) या, “आई हेव दी ऑनर टू बी योर सरवेंट”, अर्थात, “यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपकी सेवा करने का अवसर मिला (I have the honour to be your servant) आदि। उस समय फिरंगियों सभी ब्रिटिश कालोनियों में इसी प्रकार पद्धति चला और बना रखी थी कि लोग अपने अंग्रेज़ आकाओं को इस प्रकार से लिखें, जिसका मतलब वास्तव में नौकर होना नहीं बल्कि अपने अफसरों को अत्यंत सम्मान देना था।
जो कांग्रेसी, वामपंथी व विपक्षी सावरकर पर इल्ज़ाम लगाते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों को माफीनामे लिखे, सरासर झूठ है, क्योंकि जब 1913 में कुछ स्वतन्त्रता सेनानियों को रिहा किया गया, तो सावरकर को यह कहकर, नहीं छोड़ा गया कि यह बहुत खरतनाक व्यक्ति है और इसको न छोड़ा जाए, क्योंकि यह किसी भी प्रकार से भारत को आज़ाद कराना चाहता है।
हां, इसी सोच के अंतर्गत सावरकर को “डी” कैटेगिरी अर्थात श्रेणी की जेल में रखा जाता था। गांधीजी और पंडित जवाहर लाल नेहरू को सदैव ही “ए” श्रेणी की क़ैद में रखा जाता था। उनकी एक चिट्ठी को लेकर उन पर निशाना साधा जाता है। वास्तव में सावरकर ने इस चिट्ठी को चाणक्य नीति और जिसके बारे में भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा है कि “हिकमत-ए-अमली” (तरकीब) को अपनाते हुए चिट्ठी को लिखा गया, जिसका अभिप्राय था कि किसी भी प्रकार से वह जेल से बाहर आएं और भारत को आज़ाद कराने के अपने अभियान पर अग्रसर हों। वास्तव में सावरकर के मुखालिफीन जिसको माफीनामा कहते हैं, वह एक तुरुप का पत्ता था, जिसे ये कांगेसी, वामपंथी और विपक्षी अपनी वोट बैंक की सियासत के चलते कभी नहीं समझना चाहेंगे।
सावरकर को गाली देने वाले इस बात को समझ लें कि भारत की आज़ादी में उनका क़द अगर महात्मा गांधी से ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं है, क्योंकि जो कुर्बानियां सावरकर ने 10 साल काला पानी व अन्य जेलों में गंदा पानी पीकर, कॉकरोच, छिपकली, मच्छरों, कीड़ों आदि के साथ पकाए गए खाने खाकर और बैल की जगह दिन में दस किलो तिल का तेल निकालने के लिए जेल में बैल की जगह जुतकर या पानी के जहाज़ से कूदकर फ़्रांस पहुँचकर दी थीं, गांधीजी या नेहरुजी ने ऐसा कुछ नहीं झेला था। लिहाजा, इस स्तम्भ के ज़रिए लेखक कहना चाहेगा कि आज के बाद से सावरकर के पर गलतबयानी न की जाए। भारत माता की जय!
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