प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय, हर श्लोक अत्यंत सटीक और महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। इन सूत्रों से न केवल करियर में वांछित सफलता प्राप्त हो सकती है बल्कि सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में भी उन्नति हो सकती है
अर्जुन को मोह, भ्रम व अनिश्चय से मुक्त कर युद्घ के कर्तव्य पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देने वाली श्रीमद्भगवद्गीता में आधुनिक प्रबंधन के अनेक सिद्धांत सूत्रबद्ध हैं। डेढ़ गुनी से भी अधिक कौरव सेना तथा भीष्म, द्रोण व कर्ण जैसे अजेय योद्धाओं पर विजय पाने के एकनिष्ठ लक्ष्य के प्रति सन्नद्ध कर देने वाले गीता के उपदेश आज के चुनौतीपूर्ण व्यावसायिक प्रबंध में भी कारगर हैं। आज दुनिया के वही देश समृद्धि के शिखर पर हैं, जो अपने व्यावसायिक उपक्रमों का कुशलता से प्रबंध कर रहे हैं।
विश्व के 200 से अधिक देशों के सकल औद्योगिक उत्पादन में से 60 प्रतिशत पर उन 4 देशों का ही नियंत्रण है, जो अपनी अर्थव्यवस्था, उद्योग, व्यापार व वाणिज्य का कुशल प्रबंधन कर रहे हैं। कुल वैश्विक महानुमाप उत्पादन के 80 प्रतिशत पर भी मात्र 10 देशों का नियंत्रण है।
आज कुल वैश्विक उत्पादन में चीन का 28.7 प्रतिशत, अमेरिका 17 प्रतिशत, जापान 8 प्रतिशत और जर्मनी का नियंत्रण 5.5 प्रतिशत है, जबकि विश्व जनसंख्या में इनकी भागीदारी क्रमश: 17.7 प्रतिशत, 4.07 प्रतिशत, 1.58 प्रतिशत व 1.05 प्रतिशत ही है।
वहीं, कुल वैश्विक उत्पादन के आधार पर 5वें से 8वें स्थान पर क्रमश: भारत (3.1 प्रतिशत) द. कोरिया (3 प्रतिशत), इटली (2 प्रतिशत) व फ्रांस (1.9 प्रतिशत) हैं। ऐसे में भारत में सामान्य जनता व संस्थागत स्तरों पर उच्च लक्ष्य तय कर अपने को कर्तव्य-पथ पर समर्पित करने की प्रेरणा देने हेतु श्रीमद्भगवद्गीता का सर्वोच्च महत्व है।
वैज्ञानिक प्रबंधन को परिभाषित करते हुए आधुनिक विद्वान कहते हैं कि प्रबंध यह जानने की कला है कि आप लोगों से क्या कराना चाहते हैं तथा यह देखना कि वे इसे सर्वोत्तम और सस्ते ढंग से करते हैं। यही संदेश गीता के ‘योग: कर्मसुकौशलम्’ के सूत्र में है
प्रबंधन वस्तुत: मनुष्य के विचारों, कार्यों, लक्ष्य तथा उनकी प्राप्ति की योजना के क्रियान्वयन का शास्त्र है। यह व्यावसायिक उपक्रमों, क्रय-विक्रय उत्पादन तथा विपणन में भी साम्य स्थापित करता है। यह लक्ष्य प्राप्ति हेतु भौतिक प्रयत्नों, तकनीकी या मानवीय क्रियाओं, विद्यमान कमियों, चुनौतियों एवं विसंगतियों के निवारण हेतु उपलब्ध न्यूनतम संसाधनों व प्रक्रियाओं का अनुकूलनतम प्रयोग करने की कला व विज्ञान है।
प्रबंधन की अकुशलता व न्यूनता हमेशा अव्यवस्था, भ्रम, अपव्यय, विलंब तथा हताशा को जन्म देती है। सफल प्रबंधन हेतु मानव, संसाधन, धन, पदार्थ, उपकरण आदि संसाधनों का विद्यमान परिस्थितियों तथा वातावरण में सर्वोत्तम संभव उपयोग अनिवार्य है। किसी भी प्रबंधन योजना में मनुष्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक होता है।
कार्यों में कुशलता ही गीता का सार
वैज्ञानिक प्रबंधन को परिभाषित करते हुए आधुनिक विद्वान कहते हैं कि प्रबंध यह जानने की कला है कि आप लोगों से क्या कराना चाहते हैं तथा यह देखना कि वे इसे सर्वोत्तम व सस्ते ढंग से करते हैं। यही संदेश गीता के ‘योग: कर्मसु कौशलम’ के सूत्र में है। अर्थात् कार्यों में कुशलता ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
बुद्घियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥
यानी समबुद्धि युक्त व्यक्ति जब पुण्य-जन्य अनुकूलता व पाप रूपी बाधाओं या प्रतिकूलताओं से अविचलित रहकर अपने कर्मों में लग जाए तो सफलता तय है। यही बात आधुनिक वैज्ञानिक प्रबंध के प्रणेता फ्रेड्रिक डब्ल्यू टेलर ने कही है। टेलर ने कार्य नियोजन पर जोर देते हुए कहा है कि उत्पादकता बढ़ने से कर्मचारी और नियोक्ता, दोनों को लाभ होता है। इस तरह से एक मानसिक क्रांति संपन्न होती है।
अत: गीता को कार्य के प्रति समर्पण की मानसिक क्रांति का जनक कहा जा सकता है। यह ध्येय के लिए पूर्ण समर्पण पर अधिक जोर देती है। गीता में ध्येय साधना अर्थात् ‘मैनेजमेंट बाई आब्जेक्टिव’ का श्रेष्ठतम निरूपण है। कार्य दक्षता के प्रति टेलर का जैसा उद्देश्यपरक दृष्टिकोण था, वैसी ही ध्येयनिष्ठता गीता के कर्मसुकौशलम् के सूत्र में है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को निज स्वार्थों की अपेक्षा समाज हित व सामूहिक भलाई के लिए युद्ध की सलाह देते हैं। यानी संगठन के नेतृत्वकर्ता को अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज के हित या लाभ के लिए काम करना चाहिए। संगठन में व्यक्ति को निजी हित को संगठनात्मक हित के अधीन रखकर काम करना चाहिए।
पग-पग पर प्रबंधन के सूत्र
प्रबंधन के क्षेत्र में गीता का हर अध्याय व हर श्लोक सटीक व महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। युवाओं को पढ़ाई के बाद रोजगार के लिए परिश्रम करना पड़ता है। उन्हें जीवन में या निजी उपक्रम स्थापित करने में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए उन्हें वांछित कौशल या सफलता हेतु आवश्यक युक्तियों का उपयोग व उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के लिए नियोजन करना होता है। अच्छे प्रबंध के लिए गीता के निम्न उपदेश बहुत सार्थक हैं:-
आलस्य व कायरता का त्याग : श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में कहते हैं ‘क्लैव्यं मा स्म गम:’ अर्थात् आलस्य और दुर्बलता का त्याग करो। ऐसा कह कर वे अपने सामर्थ्य के प्रति आत्मविश्वास जगाने की प्रेरणा देते हैं। आगे यह भी कहते हैं ‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं व्यक्लोतिष्ठ परंतप’। यानी हृदय में व्याप्त तुच्छ दुर्बलता को त्यागे बिना सफलता के सोपानों पर पग रखना संभव नहीं है। यही सफलता का मूलमंत्र है।
अविचलित रहना : हालात अनुकूल या प्रतिकूल हों, उनसे विचलित नहीं होना चाहिए। ‘गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिता:’ यानी हर्ष-शोक से परे हर स्थिति में तटस्थ रह कर आगे बढ़ना चाहिए। ‘सम दु:ख-सुख धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पत’ अर्थात् असफलताजनित दुख या सफलताजनित हर्ष को समभाव से ग्रहण करने पर ही अभीष्ट सफलता की प्राप्ति संभव है।
स्थिर बुद्धि: गीता का यह प्रबंधन सूत्र भी अद्भुत है कि जीवन के उतार-चढ़ाव से गर्वित या हताश नहीं होना तथा स्थिर बुद्घि से लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ना चाहिए।
ध्येय साधना : श्रीकृष्ण कहते हैं कि ध्येय साधना से वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करना ही जीवन का सार है। पवित्र मन से किया गया कोई भी काम हमेशा पूरा होता है। इसी तरह, लक्ष्य के प्रति प्रबंधक का उद्देश्य भी स्पष्ट और प्राप्त करने योग्य होना चाहिए, जो उसे दूसरों से अलग करता है।
स्थिर चित्त : श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानव जीवन मन और आत्मा के बीच एक युद्घ की तरह है। वे कहते हैं कि मनुष्य को चित्त स्थिर रखकर स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए, तभी वह प्रभावी निर्णय ले सकता है। यह प्रबंधक पर भी लागू होता है।
पूर्ण समर्पण : इसी तरह, ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन’ श्लोक व्यक्ति को परिणाम की चिंता किए बिना लगातार कर्म करने का संदेश देता है।
संगठन हित में कार्य : श्रीकृष्ण अर्जुन को निज स्वार्थों की अपेक्षा समाज हित व सामूहिक भलाई के लिए युद्ध की सलाह देते हैं। यानी संगठन के नेतृत्वकर्ता को अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज के हित या लाभ के लिए काम करना चाहिए। संगठन में व्यक्ति को निजी हित को संगठनात्मक हित के अधीन रखकर काम करना चाहिए।
कर्म आधारित पहचान : गीता के अनुसार, व्यक्ति की पहचान उसकी जाति, रंग और परिवार से नहीं, बल्कि उसके कार्यों और दूसरों के साथ व्यवहार से पारिभाषित होती है। प्रबंधन के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है।
लगातार प्रयास : गीता के अनुसार, न छोटी-छोटी जीत से अति उत्साहित होना चाहिए और न ही छोटी-छोटी असफलता से उदास। व्यक्ति को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लगातार काम करना चाहिए। इसी तरह, प्रबंधन में तमाम बाधाओं के बावजूद संगठन की बेहतरी के लिए काम जारी रखना चाहिए।
बदलाव को स्वीकार करें : श्रीकृष्ण कहते हैं कि बदलाव से डरने वाला व्यक्ति जीने के सही तरीके (धर्म) से विचलित होकर अनैतिक कार्य करता है। यानी प्रबंधन में व्यक्ति को बदलाव से डरने की बजाय उसे स्वीकार करना चाहिए।
कुशल प्रबंधन जरूरी : रोजमर्रा के जीवन के सभी आयामों में कुशल प्रबंधन जरूरी है। लक्ष्य निर्धारण के लिए समय, सामग्री तकनीक, श्रम, वित्त, यंत्र, उपकरण, नियोजन, प्राथमिकताएं, नीतियां, अभ्यास व उत्पादन आदि का प्रबंधन भी जरूरी है। लक्ष्य के लिए व्यक्ति को समन्वयपूर्वक संलग्न करना ही प्रबंधन है।
निजी जीवन, पारिवारिक समस्याओं, व्यावसायिक प्रतिष्ठान के प्रबंधन सहित राष्ट्र में आने वाली हर चुनौती का हल गीता में है। अत: इसे सर्वकालिक प्रबंध कोश भी कहा जा सकता है।
(लेखक उदयपुर में पैसिफिक विश्वविद्यालय समूह के अध्यक्ष-आयोजना व नियंत्रण हैं)
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