स्वतंत्रता के बाद से ही महापुरुषों का एकपक्षीय आकलन होता आया है। निश्चित रूप से यह प्रवृत्ति न सिर्फ उस महापुरुष के साथ अन्याय है, बल्कि ऐसा करने वालों की राष्ट्र के प्रति ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है और भावी पीढ़ियों के आत्मगौरव को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
भारत में आज किसी महापुरुष को बड़ा दिखाने के लिए अन्य महापुरुर्षों को नीचा दिखाने का षड्यंत्र चल रहा है। असल तथ्यों को नेपथ्य में डालकर तोड़े-मरोड़े या गलत ढंग से निरूपित तथ्यों को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। असल तथ्य दबाने के पीछे महापुरुषों को खंडित करके देखने वाली दृष्टि है और यही दृष्टि भारत को भी खंडित करके देखती है। स्वतंत्रता के बाद से ही महापुरुषों का एकपक्षीय आकलन होता आया है। निश्चित रूप से यह प्रवृत्ति न सिर्फ उस महापुरुष के साथ अन्याय है, बल्कि ऐसा करने वालों की राष्ट्र के प्रति ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है और भावी पीढ़ियों के आत्मगौरव को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
देश के नागरिक होने के नाते हम सभी उनके प्रति कृतज्ञ हैं। महज राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी महापुरुष को खंडित दृष्टि से देखना देश को तोड़ने के समान है। सावरकर इस देश के अनेकानेक क्रांतिकारियों की प्रेरणा थे। यदि वे आज आपकी आंख की किरकिरी हैं, तो आप उस पूरी विरासत को नकार रहे हैं जो उस महापुरुष से प्रेरित लोगों की दृष्टि और संघर्षों से बनी है। समाज भी महापुरुषों को बांटने के इस षड्यंत्र को समझ रहा है।
चाहे बाबा साहेब की बात हो, चाहे नेताजी की बात हो, चाहे सावरकर की बात हो, किसी को भी वर्ग, खांचे और अपनी राजनीति के हित में देखने की जो कोशिश है, उस षड्यंत्र को पहचानने का समय आ गया है।
हाल ही में महाराष्ट्र के बुलढाणा में संवाददाता सम्मेलन में राहुल गांधी ने वीर सावरकर को अंग्रेजों का मददगार और एक डरा हुआ व्यक्ति बताया। राहुल यह कौन नया सा इतिहास लिख रहे हैं?
भगत सिंह की प्रेरणा
इतिहास बताता है कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी वीर सावरकर से प्रेरणा पाते थे। क्रांति के पथ पर चलने के लिए भगत सिंह ने उनसे मार्गदर्शन लिया था। सावरकर द्वारा लिखित ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ क्रांतिकारियों के लिए उत्प्रेरक था। भगत सिंह ने भी इसका एक संस्करण छपवाया। भगत सिंह के सहयोगी समाजवादी नेता राजाराम शास्त्री ने ‘अमर शहीदों के संस्मरण’ पुस्तक लिखी। इसमें उल्लेख है कि सावरकर की पुस्तक से भगत सिंह बहुत प्रभावित थे।
वे गुप्त रूप से इसका पंजाबी संस्करण छापना चाहते थे। इसके लिए सावरकर की अनुमति लेने भगत सिंह रत्नागिरी स्थित उनके घर भी गए। प्रकाशित पुस्तक की पहली प्रति राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को बेची गई। एक प्रति सावरकर को भी भेजी गई।
भगत सिंह ने जेल में सावरकर की पुस्तक हिंदू पदपादशाही का भी अध्ययन किया। भगत सिंह की जेल डायरी में जहां-तहां हिंदू पदपादशाही के उद्धरण मिलते हैं।
सावरकर की देशभक्ति के कायल गांधी
महात्मा गांधी भी सावरकर की देशभक्ति के कायल थे। उन्होंने काला पानी की सजा से सावरकर को मुक्त कराने की कोशिशें भी कीं। सावरकर के भाई को 25 जनवरी, 1920 को लिखे एक पत्र में गांधी जी ने लिखा था, ‘मेरी राय है कि आप एक विस्तृत याचिका तैयार कराएं, जिसमें मामले से जुड़े तथ्यों का जिक्र हो कि आपके भाइयों द्वारा किया गया अपराध पूरी तरह राजनीतिक था। जैसा कि मैंने आपसे पिछले एक पत्र में कहा था मैं इस मामले को अपने स्तर पर भी उठा रहा हूं।’
गांधी जी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया (महात्मा गांधी : कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम 20, पृष्ठ 368) में लिखा, ‘भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों के चलते, कई कैदियों को शाही माफी का लाभ मिला है। लेकिन कई प्रमुख राजनीतिक अपराधी हैं, जिन्हें अब तक रिहा नहीं किया गया है। मैं इनमें सावरकर बंधुओं को गिनता हूं। … सावरकर बंधु हों या भाई परमानंद… जहां तक सरकार का सवाल है, उसके लिए सभी एक जैसे दोषी हैं, क्योंकि सभी को सजा सुनाई गई थी। … अगर देश समय पर नहीं जागता है तो भारत पर अपने दो वफादार बेटों को खोने का खतरा है।
दोनों भाइयों में से एक विनायक सावरकर को मैं अच्छी तरह से जानता हूं। वह बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं और स्पष्ट रूप से क्रांतिकारी थे। भारत को बहुत प्यार करने के कारण ही वे काला पानी की सजा भुगत रहे हैं। मैं उनके और उनके भाई के लिए दुख महसूस करता हूं और इसीलिए ऐसी सरकार से मैं असहयोग करता हूं।’
राहुल जेल से रिहा किए जाने के प्रार्थनापत्र पर सावरकर के हस्ताक्षर करने के आधार पर उन्हें डरा हुआ व अंग्रेजों का दोस्त बता रहे हैं। राहुल को शायद अपने पिता के नाना जवाहरलाल नेहरू की नाभा जेल से रिहाई की कथा नहीं मालूम, जब मोतीलाल नेहरू ने वायसराय तक सिफारिश लगा दी थी और जवाहरलाल नेहरू 12 दिन में बांड भरकर रिहा हो गए थे।
इंदिरा ने बताया था महान सपूत
राहुल ने अपने बयान से अपनी दादी इंदिरा गांधी तक को झुठला दिया। सावरकर के निधन पर इंदिरा गांधी ने शोक जताया था और 1970 में उनकी याद में भारत सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया था। इंदिरा जी ने 20 मई, 1980 को पंडित बाखले, सचिव, स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के नाम से संबोधित चिट्ठी में सावरकर के योगदान का जिक्र किया। इसमें लिखा था, ‘वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मजबूत प्रतिरोध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए काफी अहम है। मैं आपको देश के महान सपूत (रिमार्केबल सन आफ इंडिया) के शताब्दी समारोह के आयोजन के लिए बधाई देती हूं।’
देश के नेताओं, नागरिकों को ध्यान रखना होगा कि इस देश को स्वतंत्र कराने में अनेकानेक महापुरुषों का योगदान है। कई ऐसे भी हैं जिनका नाम इतिहास में कहीं दर्ज नहीं होगा। देश के नागरिक होने के नाते हम सभी उनके प्रति कृतज्ञ हैं। महज राजनीतिक स्वार्थ के लिए किसी महापुरुष को खंडित दृष्टि से देखना देश को तोड़ने के समान है। सावरकर इस देश के अनेकानेक क्रांतिकारियों की प्रेरणा थे। यदि वे आज आपकी आंख की किरकिरी हैं, तो आप उस पूरी विरासत को नकार रहे हैं जो उस महापुरुष से प्रेरित लोगों की दृष्टि और संघर्षों से बनी है। समाज भी महापुरुषों को बांटने के इस षड्यंत्र को समझ रहा है।
@hiteshshankar
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