वीर सपूत गजेंद्र सिंह बिष्ट, जिन्होंने 26/11 मुंबई हमले में आतंकियों के नापाक इरादों को नहीं होने दिया था कामयाब
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वीर सपूत गजेंद्र सिंह बिष्ट, जिन्होंने 26/11 मुंबई हमले में आतंकियों के नापाक इरादों को नहीं होने दिया था कामयाब

मुठभेड़ के समय घायल होने के बावजूद गजेंद्र सिंह पीछे नहीं हटे और गोलियों की बौछार में टीम को एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। इस हमले में वह गंभीर रूप से घायल हुए और अंततः बाद में उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Nov 28, 2022, 12:37 pm IST
in भारत, उत्तराखंड
गजेंद्र सिंह बिष्ट (फाइल फोटो)

गजेंद्र सिंह बिष्ट (फाइल फोटो)

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मुम्बई में 26/11 के आतंकी हमले में उत्तराखण्ड के वीर सपूत हवलदार गजेंद्र सिंह बिष्ट ने अदम्य साहस से आतंकियों के नापाक इरादों को कामयाब नहीं होने दिया था। भारत के गणतंत्र दिवस के अवसर पर 26 जनवरी सन 2009 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने शांतिकाल के सर्वोच्च सैनिक अलंकरण अशोक चक्र प्रदान कर उनकी बहादुरी का सम्मान किया गया।

देवभूमि उत्तराखण्ड के देहरादून स्थित गणेशपुर में गजेंद्र सिंह बिष्ट का जन्म हुआ था। गजेंद्र सिंह ने नया गांव स्थित जनता इंटर कॉलेज से शिक्षा–दीक्षा प्राप्त की थी। उन्हें आज भी शिक्षकों द्वारा बेहद अनुशासित छात्र के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने शिक्षा प्राप्त करते समय स्कूल में आयोजित प्रत्येक खेल एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लिया था। गजेन्द्र सिंह की मुक्केबाजी में विशेष रुचि थी। वह 1990 में भारतीय सेना में सम्मिलित हुए। भारतीय सेना में 10 पैरा के हवलदार गजेंद्र सिंह बिष्ट ने बतौर कमांडो राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड में ज्वाइन किया था। सन 2008 में गजेंद्र सिंह राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के 51 विशेष कार्य समूह के सदस्य रहे।

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26 नवम्बर सन 2008 को मुम्बई में योजनाबद्ध तरीके से पाकिस्तानी आतंकवादियों ने कई स्थानों पर हमला किया था। उक्त भयानक आतंकवादी हमले का एक केन्द्र नरीमन हाउस भी था, जिसमें यहूदी लोग रहते थे। आतंकवादियों ने वहां उपस्थित लगभग 6 लोगों को बंधक बना लिया था। आतंकवादियों द्वारा बंधक बनाएं गए यहूदी लोगों को छुड़ाने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड को दी गई थी। भारतीय सेना के 51 विशेष दस्ते में शामिल हवलदार गजेंद्र सिंह बिष्ट ने नरीमन हाउस में जमे आतंकियों के खिलाफ जवाबी हमला बोला। उन्हें मुम्बई आतंकवादी हमले में आतंकियों से उनका महत्वपूर्ण ठिकाना बना नरीमन हाउस मुक्त करवाना था।

नरीमन हाउस की छत पर जिस समय गजेंद्र सिंह दूसरे कमांडों सहित उतरे तो 6 यहूदी नागरिक आतंकवादियों के कब्जे में थे। सेना की टीम का नेतृत्व करते हुए गजेंद्र सिंह उस बहुमंजिला भवन में दाखिल हुए तो घात लगाए बैठे आतंकियों ने उन पर ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी थी। सेना की टीम को आतंकियों तक पहुंचने के लिए एक ऐसा सुरक्षित स्थान चाहिए था, जहां से वह जवाबी हमला बोल कर आतंकवादियों को ढेर कर सकते थे। गजेंद्र सिंह बिष्ट ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए भारी गोलीबारी के बीच खुद को आगे करके आतंकवादियों पर गोलीबारी करते हुए उनके पास पहुंच गए। इस घटनाक्रम में उन्होंने आतंकवादियों में से एक को घायल कर दिया और दूसरों को एक कमरे के अंदर पीछे हटने के लिए मजबूर किया।

गजेन्द्र सिंह आमने–सामने की भयानक मुठभेड़ की स्थिति पर हावी होने की कोशिश करते हुए निरंतर आगे बढ़ रहे थे। वह भारी गोलीबारी के बीच सेना की टीम को आगे बढ़ने में सहयोग कर रहे थे। आतंकवादियों ने उनको निशाना बनाकर कई ग्रेनेड फेंके। भयानक मुठभेड़ में गजेंद्र सिंह के पास अपनी टीम से पीछे हटने का अवसर और विकल्प भी था, लेकिन उन्हें एहसास था कि आतंकवादियों पर हावी होने के लिए और आगे बढ़ने के लिए कोई भी अवसर को छोड़ना नहीं है। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का पूर्ण अहसास था इसलिए अन्य साथी कमांडो के लिए ग्रेनेड फेक कर एक मार्ग बनाया। ऐसा करते हुए कई गोली लगने से गम्भीर रूप से घायल होने के बावजूद, वह आगे बढ़ते गए।

मुठभेड़ के समय अचानक दुश्मन का एक हथगोला ठीक उनके पास फटा, घायल होने के बावजूद वह पीछे नहीं हटे और गोलियों की बौछार में टीम को एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। इस हमले में वह गंभीर रूप से घायल हुए और अंततः बाद में उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। नि:संदेह बहादुर सैनिक ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी टीम मुठभेड़ में एक विजयी स्थिति को प्राप्त हासिल कर ले। उन्होंने मुठभेड़ तब तक जारी रखी जब तक वह गम्भीर रुप से घायल होकर परम वीरगति को प्राप्त नहीं हो गए। हवलदार गजेन्द्र सिंह बिष्ट ने सबसे विशिष्ट साहस का प्रदर्शन किया था और आतंकवादियों से मुकाबला करने के लिए राष्ट्र के लिए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान दिया था।

देश के लिए सर्वोच्च बलिदान करने पर भारत के गणतंत्र दिवस के अवसर पर 26 जनवरी सन 2009 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा शांतिकाल का सर्वोच्च सैन्य वीरता अलंकरण अशोक चक्र प्रदान किया गया।

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