जसवंत सिंह रावत : 1962 के भारत-चीन युद्ध में हुए थे बलिदान, लेकिन आज भी सीमा पर करते हैं ड्यूटी
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जसवंत सिंह रावत : 1962 के भारत-चीन युद्ध में हुए थे बलिदान, लेकिन आज भी सीमा पर करते हैं ड्यूटी

जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं, जिन्हें बलिदान के पश्चात प्रमोशन मिलना शुरू हुआ था। भारतीय सेना में जसवंत सिंह रावत पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुंच चुके हैं।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Nov 27, 2022, 02:06 pm IST
in भारत, उत्तराखंड
जसवंत सिंह रावत

जसवंत सिंह रावत

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उत्तराखण्ड राज्य में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया है, जो आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक, देश की रक्षा एवं सुरक्षा जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्वप्रसिद्ध हुए हैं। इन्हीं महान विभूतियों की कतार में स्थान प्राप्त करने वाले एक विख्यात प्रतिष्ठित सैनिक जसवंत सिंह रावत थे। भारत-चीन युद्ध सन 1962 में लगातार तीन दिन अर्थात 72 घंटे तक अकेले ही भारतीय सीमा पर लड़कर युद्ध की दिशा व दशा बदलने वाले महान बलिदानी भारतीय सैनिक जसवंत सिंह रावत आज भी अमर हैं। देश के लिए प्राणों की आहुति देने के पश्चात भी राइफल मैन जसवंत सिंह रावत अपनी पोस्ट पर तैनात हैं और आज भी ड्यूटी कर रहे हैं।

देवभूमि उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल जिले के बदयूं गांव मे 19 अगस्त सन 1941 को गुमान सिंह रावत के घर जसवंत सिंह रावत का जन्म हुआ था। विकट देशप्रेम के कारण सेना में भर्ती होने की इतनी ललक थी कि 17 वर्ष की उम्र में ही भारतीय सेना में भर्ती होने चले गए थे। कम उम्र के चलते उन्हें भारतीय सेना में नहीं लिया गया था। निरंतर प्रयास के पश्चात 19 अगस्त सन 1960 को जसवंत सिंह को भारतीय सेना में बतौर राइफल मैन सम्मिलित कर लिया गया था। भर्ती के बाद 14 सितंबर सन 1961 को उनकी ट्रेनिंग पूरी हुई थी। एक साल बाद ही सन 1962 में विस्तारवादी चीन ने भारत के अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने के लिए भारत पर भीषण आक्रमण कर दिया था। भारतीय सैनिकों के जबरदस्त जवाब से हर बार विफल चीनी सेना अपने तीसरे हमले में तवांग स्थित महात्मा बुद्ध की मूर्ति के हाथों को काटकर ले गई थी। 17 नवंबर सन 1962 के दिन अभी सूरज की पहली किरण धरती पर पड़ी ही थी कि चीनी सेना ने भारत के सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश पर कब्जे करने के लिए अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित होकर अपना चौथा और सबसे जोरदार आक्रमण कर दिया था।

समुद्र तट से 14 हजार फीट की ऊंचाई पर करीब एक हजार किलोमीटर के विशाल क्षेत्र में फैली अरुणाचल प्रदेश स्थित भारत-चीन सीमा उस भयानक युद्ध का मैदान बनी थी। यह दुर्गम इलाका जमा देने वाली कड़क ठंड और खतरनाक पथरीले इलाके के लिए बदनाम है। आक्रमणकारी चीनी सैनिक भारत की सीमावर्ती जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार करते हुए अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र से आगे तक पहुंच गए थे। चीनी सैनिकों की सबसे बड़ी ताकत उस समय का अत्याधुनिक हथियार उनकी मीडियम मशीन गन थी। भारतीय सैनिकों के पास पुराने परंपरागत हथियार थे, उसके बावजूद वीर पराक्रमी भारतीय सैनिक चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे, लेकिन हथियार और रसद की भारी कमी होने की वजह से भारतीय सेना के अफसरों ने युद्ध क्षेत्र में तैनात गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया था। बदली हुई परिस्थितियों और विपरीत हालात के बाद भी गढ़वाल राइफल्स के तीन जवानों ने भारतीय चौकी छोड़ कर वापस आने से मना कर दिया था।

वो तीन जाँबाज़ भारतीय सैनिक राइफलमैन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह और राइफलमैन गोपाल सिंह थे। इसके बाद युद्ध क्षेत्र में जो हुआ उसने इतिहास और युद्ध की दिशा ही बदलकर रख दी थी। तीनों भारतीय सैनिक चट्टानों और झाड़ियों में छिपते हुए भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज 10 ग़ज़ की दूरी से हैंडग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारते हुए मशीन गन छीन ली। त्रिलोक और गोपाल मशीन गन को लेकर जमीन पर रेंगते हुए भारतीय खेमे में सुरक्षित पहुंचने ही वाले थे कि भारतीय सेना के आक्रमण से घबराई चीनी सेना की गोलियों का निशाना बन गए, हमले में दोनों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। उक्त आक्रमण में गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी जसवंत सिंह ने मशीन गन को भारतीय बंकर में पहुंचा ही दिया था। इसके बाद जसवंत सिंह रावत साहस और शौर्य का परिचय देते हुए रणनीति के अनुसार ने स्थानीय निवासी मोनपा जनजाति की दो युवतियों नूरा और सेला के सहयोग से एक फायरिंग ग्राउंड बनाया और तीन स्थानों पर मशीनगन और तोप रखी। उन्होंने ऐसा चीनी सैनिकों को भ्रम में रखने के लिए किया था, ताकि चीनी सैनिक यह समझते रहे कि उक्त क्षेत्र में भारतीय सेना बड़ी संख्या में है और तीनों स्थान से हमला कर रही है। दोनों युवतियों नूरा और सेला को साथ लेकर जसवंत सिंह तीनों जगह से चीनी सेना पर आक्रमण करते रहे।

जसवंत सिंह रावत के इन हमलों में भारी संख्या में चीनी सैनिक मारे गए थे। इस तरह जसवंत सिंह रावत 72 घंटे अर्थात तीन दिनों तक चीनी सैनिकों को चकमा देने में कामयाब रहे। उक्त नायाब तरीके की युद्ध रणनीति से चीनी आक्रमण की दिशा ही बदल गई और चीन सेना का भारत के अरुणाचल प्रदेश को जीतने का सपना पूरा नहीं हो सका। दुर्भाग्य से राशन की आपूर्ति करते समय युवती नूरा को चीनी सैनिकों ने पकड़ ली गई। भयानक टॉर्चर के बाद उसने चीनी सैनिकों को जसवंत सिंह रावत के बारे में सारी बातें बता दीं। इस समय अंतराल में चीनी सेना के तीन सौ से अधिक सैनिक मारे जा चुके थे। यह तथ्य जानकर कि चीनी सेना का इतना अधिक नुकसान अकेले जसवंत सिंह रावत ने किया है, गुस्से में भरी चीनी सेना की टुकड़ी ने चारों तरफ से जसवंत सिंह को घेरकर ग्रेनेड से हमला कर दिया। इस आक्रमण में दूसरी युवती सेला भी मारी गई। चीनी सेना के लक्षित एकीकृत भयानक आक्रमण के बाद जब गम्भीर घायल जसवंत सिंह को लगा कि वह दुश्मन सेना द्वारा पकड़ लिए जाएंगे तो उन्होंने अपने पास बची आखिरी गोली खुद को मार कर देश के लिए सर्वोच्च बलिदान कर दिया था। जसवंत सिंह रावत के सर्वोच्च बलिदान के पश्चात भी बेहद क्रोधित रहें चीनी सैनिकों ने उनका सिर काट लिया और अपने साथ चीन ले गए।

20 नवंबर सन 1962 को युद्ध विराम की घोषणा हुई। कुछ समय पश्चात चीनी सेना ने युद्ध क्षेत्र में जसवंत सिंह रावत की बहादुरी से प्रभावित होकर सम्मान के साथ न केवल उनका कटा हुए सिर वापस लौटाया बल्कि उनकी कांसे की मूर्ति भी भारतीय सेना को भेंट की। युद्ध क्षेत्र में बेहद साहस, पराक्रम और शौर्य का प्रर्दशन करने के लिए गढ़वाल राइफल्स के जवान जसवंत सिह रावत को महावीर चक्र, त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह को वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बहादुर भारतीय युवती सेला की याद में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में एक दर्रे का नाम “सेला पास” रखा गया है। जिस चौकी पर जसवंत सिंह रावत ने आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम अब जसवंतगढ़ रख दिया गया है और वहां उनकी स्मृति में एक मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर में चीन की तरफ से दी गई उस बहादुर सैनिक की वह कांसे की मूर्ति भी लगी है। उधर से गुजरने वाला हर शख्स, चाहे वो आम आदमी हो, या फिर सेना का कोई भी अधिकारी या जवान, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित किए बिना आगे नहीं बढ़ता है।

जसवंत सिंह रावत के बलिदान के पश्चात आज भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय, मृतक या बलिदानी नहीं लगाया जाता हैं। मंदिर में उनसे जुड़ीं वस्तुओं को आज भी सुरक्षित रखा गया है। पांच सैनिकों को उनके कमरे की देखरेख के लिए तैनात किया गया है। वे पांच सैनिक रात को उनका बिस्तर ठीक करते हैं, वर्दी प्रेस करते हैं और जूतों की पॉलिश तक करते हैं। सैनिक सुबह के 4:30 बजे उनके लिए ब्रेड टी, 9 बजे नाश्ता और शाम को 7 बजे खाना कमरे में रख देते हैं। कहते हैं कि सुबह बिस्तर पर सलवटें होती हैं और जूते गन्दे और धूल मिट्टी से सने मिलते हैं। वहां रहने वाले जवानों और स्थानीय लोगों का मानना है कि जसवंत सिंह रावत की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है। उन लोगों का मानना है कि वह आज भी भारतीय सैनिकों का मार्गदर्शन करते हैं। जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं, जिन्हें बलिदान के पश्चात प्रमोशन मिलना शुरू हुआ था। भारतीय सेना में जसवंत सिंह रावत पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुंच चुके हैं। उनके परिवार वालों को पूरी तनख्वाह पहुंचाई जाती है। उनके घर में विवाह या धार्मिक कार्यक्रमों के अवसरों पर परिवार वालों को जब भी आवश्यकता होती है, तब उनकी तरफ से छुट्टी का बकायदा आवेदन दिया जाता है और स्वीकृति मिलते ही सेना के जवान उनकी तस्वीर को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड में पुश्तैनी गांव ले जाते हैं। छुट्टी समाप्त होते ही उस तस्वीर को ससम्मान वापस उसी स्थान पर ले जाया जाता है। बेहद सम्मान से सभी लोग उन्हें “जसवंत बाबा” भी बुलाते हैं। उनके गाँव बदयूं पौड़ी गढ़वाल में उनकी पूजा की जाती है। जसवंत सिंह रावत जैसे वीर योद्धाओं की वजह से सम्पूर्ण विश्व में उत्तराखंड ही एक मात्र ऐसा प्रदेश है जहां देवी देवताओं के पश्चात भारतीय सैनिकों को पूजा जाता है।

Topics: वीर सैनिक जसवंत सिंहjaswant singh rawatstory of jaswant singh rawatsacrifice jaswant singh rawatduty after deathuttarakhand newsbrave soldier jaswant singhउत्तराखंड समाचारजसवंत सिंह रावतजसवंत सिंह रावत की कहानीबलिदानी जसवंत सिंह रावतमौत के बाद ड्यूटी
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