देवभूमि उत्तराखण्ड में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया हैं, इन्हीं महान विभूतियों में से एक कुंवर सिंह नेगी जिन्होंने राह बदल कर समाज के एक विशिष्ट क्षेत्र दिव्यांग सेवा में योगदान किया था। इन्होंने ब्रेल लिपि के संवर्धन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य करने के साथ ही कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का ब्रेल लिपि में लिप्यंतरण कर उसे दिव्यांग दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए सुगम बनाया था।
कुंवर सिंह नेगी का जन्म 20 नवम्बर सन 1927 को पौड़ी के अयाल गांव के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई, पढ़ाई में इनका मन जरा भी नहीं लगता था। राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के समयकाल में कुंवर सिंह ने भी प्रत्यक्ष भागीदारी की थी जिसके फलस्वरूप उनको भी जेल जाना पड़ा था। जेल से रिहाई के पश्चात इन्होंने पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने का निश्चय किया। सन 1944 में गढ़वाल रायफल्स में भर्ती हो गए और ट्रेनिंग पूरी करने के तुरंत बाद इन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ाई का अवसर प्राप्त हुआ। कुंवर सिंह नेगी ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय बर्मा में लड़ाई का मोर्चा लिया था। युद्धक्षेत्र में इन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया था। कुंवर सिंह नेगी को लगता था कि वह इन सब परिस्तिथियों के लिए नहीं बने हैं और भविष्य का रास्ता भी उनके सामने अभी स्पष्ट नहीं था। इसी बेचैनी और छटपटाहट से भरे माहौल में उन्होंने जल्द ही ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़कर दोबारा से पढ़ाई करने का मन बनाया मगर पारिवारिक निर्धनता की वजह से यह संभव न हो सका था।
शिक्षा प्राप्त करने की प्रबल इच्छा मन में पाले सन 1947 में इन्होंने देहरादून की एक प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी शुरू कर दी थी। नौकरी के कुछ समय बाद प्रेस कम्पोजीटर के रूप में दिल्ली की एक प्रेस में तथा इसके बाद सेना की प्रेस में नौकरी करने लगे थे। तीन साल बाद अंतरजातीय विवाह का साहसपूर्ण निर्णय लेने की वजह से परिवार तथा समाज से बहिष्कृत हो गए और मजबूरन ससुराल में ही रहने को बाध्य हुए थे। कुंवर सिंह नेगी ने इन विकट विपरीत परिस्थितियों के बावजूद नौकरी के साथ-साथ पुनः पढ़ाई भी शुरू कर दी। इस समयकाल के मध्य उन्होंने हाईस्कूल और इंटर मीडिएट की पढ़ाई करने के साथ ही भारत के कई प्रांतीय भाषाओं का भी अध्ययन किया था। स्नातक की पढ़ाई के दौरान उन्हें ब्रेल लिपि और भारत में उसकी दुर्दशा की प्रारंभिक जानकारी मिली थी। कुंवर सिंह नेगी को जब यह जानकारी प्राप्त हुई कि अंग्रेजी भाषा की तरह हिंदी भाषा में दृष्टिहीनों के लिए ब्रेल लिपि के विकास की दिशा में अब तक कोई ठोस कार्य नहीं हुआ है। कुंवर सिंह नेगी को यहां से वह रास्ता प्राप्त हुआ जिसकी तलाश में वह छटपटा रहे थे और अपनी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता तलाश रहे थे। उन्होंने ब्रेल लिपि और इसके साहित्य को अपने जीवन का सारतत्व बनाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ विजुअली हैंडीकैप्ट देहरादून में ब्रेल लिपि में अनुवादक के रूप में नई नौकरी शुरू कर दी। कुंवर सिंह नेगी ने यह नौकरी ब्रेल लिपि और नेत्रहीनों के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन के जुनून को ध्यान में रखकर शुरू की थी। यह नौकरी उनके लिए साध्य नहीं बल्कि साधन थी, इस समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जरिया था।
कुंवर सिंह नेगी ने बांग्ला, उड़िया, गुरमुखी पंजाबी, मराठी, गुजराती, उर्दू और रूसी भाषा में कई किताबों का ब्रेल लिपि में लिप्यंतरण किया था। इनके द्वारा 300 से अधिक संख्या में पुस्तकें ब्रेल लिपि में लिप्यन्तरित की गयी या ऐसा करने में योगदान दिया गया था। इनमें सिक्ख पंथ की धार्मिक पुस्तकों के अलावा बौद्ध मत के महत्वपूर्ण ग्रन्थ शामिल हैं। कुंवर सिंह नेगी कई क्षेत्रीय भाषाओं के ब्रेल लिपि में लिप्यंतरण तथा गुरमुखी पंजाबी की ब्रेल लिपि तैयार करने वाले पहले व्यक्ति हैं। उन्होंने सुरजीत सिंह बरनाला की पुस्तक माई अदर टू डाटर्स का भी ब्रेल लिपि में लिप्यंतरण किया था। कुंवर सिंह नेगी ने दिव्यांग नेत्रहीनों के लिए शिशु आलोक तथा नयनरश्मि नामक मासिक पत्रिकाओं का भी ब्रेल लिपि में प्रकाशन किया था। वह दृष्टिहानों के लिए सामजिक कामों में भी निरन्तर सक्रिय रहते थे। वह भारत नेत्रहीन समाज पंजाब, नेशनल फेडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड दिल्ली जैसी सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर दृष्टिहानों के लिए सामाजिक कार्य करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। जब सरकारी विभाग द्वारा गुरमुखी पंजाबी भाषा की किताबों का ब्रेल लिपि में लिप्यान्तरण बंद कर दिया गया तो कुंवर सिंह नेगी ने इस दिशा में आगे काम करने के लिए नौकरी छोड़कर महाराजा रणजीत सिंह ब्रेल प्रेस सोसाइटी की स्थापना की थी। कुंवर सिंह नेगी के उत्कृष्ट सामाजिक कार्यों के लिए बिना किसी विभागीय सिफारिश के भारत सरकार ने श्रेष्ठ नागरिक सम्मान पद्मश्री से सन 1981 में सम्मानित किया था। भारत सरकार ने सन 1990 में इनको पुनः सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित गया था। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा इन्हें सिक्ख गौरव नामक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
सम्पूर्ण जीवन दृष्टिहानों को समर्पित करने वाले उत्तराखण्ड की इस महान विभूति का अंतिम समय बेहद दुखदायी और कष्टकारी बीता था। अंतिम समय उन्होंने उपेक्षित जीवन को प्राप्त किया था। जिस व्यक्ति को हमारे समाज का नायक और प्रेरणास्रोत होना चाहिए था वह बुरे समय में भुला दिया गया था। अपने अंतिम समय में कुंवर सिंह नेगी को उचित इलाज प्राप्त नहीं हो पाया था। सन 2003 में बेहद खराब आर्थिक परिस्थितियों की वजह से तत्कालीन उत्तराखण्ड सरकार ने सरकारी मदद से इनका ऑपरेशन करवाया था। सन 2009 में कुंवर सिंह नेगी फिर मीडिया की सुर्ख़ियों में आये जब यह तथ्य सामने आया कि अपनी अत्यंत खराब आर्थिक स्थिति के कारण से वह एक पेसमेकर का खर्चा भी नहीं उठा सकते थे। निरंतर खराब आर्थिक हालातों के वजह से वह दिल्ली के गोविन्द बल्लभ पन्त अस्पताल में चल रहे अपने इलाज को अधूरा ही छोड़ देने को विवश हो गए थे। अंततः 20 मार्च सन 2014 को लगातार गिरती सेहत के कारण देहरादून में उनका देहावसान हो गया था।
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