उत्तर-दक्षिण के कल्पित एवं आरोपित भेद-भाव के बीच 'काशी तमिल समागम' की रचनात्मक पहल
May 19, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम विश्लेषण

उत्तर-दक्षिण के कल्पित एवं आरोपित भेद-भाव के बीच ‘काशी तमिल समागम’ की रचनात्मक पहल

काशी-तमिल समागम’ में भारतीय संस्कृति की इन दो प्राचीन केंद्रों के विभिन्न पहलुओं पर विशेषज्ञों-विद्वानों के बीच शैक्षिक आदान-प्रदान, संगोष्ठी, परिचर्चा आदि आयोजित किए जाएंगे, जहां दोनों के बीच संबंधों और साझा मूल्यों को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

by प्रणय कुमार
Nov 20, 2022, 03:37 pm IST
in विश्लेषण
'काशी-तमिल समागम'

'काशी-तमिल समागम'

FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

उत्तर और दक्षिण के बीच कल्पित एवं आरोपित भेदभावों की ख़बरें आए दिन सुर्खियां बटोरती रहती हैं। कितना अच्छा होता कि प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर एक महीने तक काशी में चलने वाले ‘काशी तमिल समागम’ पर विस्तृत चर्चा होती और उससे निकलने वाले संदेशों को सभी माध्यमों से देश-दुनिया में प्रचारित-प्रसारित किया जाता। यह समागम उत्तर और दक्षिण के साझे मूल्यों व साझी संस्कृति को सामने लाने वाली अनूठी पहल है। इस समागम में तमिलनाडु के तीन केंद्रों से 12 समूहों में लगभग 2500 से 3000 लोगों के सम्मिलित होने की संभावना है। काशी-तमिल समागम’ में भारतीय संस्कृति की इन दो प्राचीन केंद्रों के विभिन्न पहलुओं पर विशेषज्ञों-विद्वानों के बीच शैक्षिक आदान-प्रदान, संगोष्ठी, परिचर्चा आदि आयोजित किए जाएंगे, जहां दोनों के बीच संबंधों और साझा मूल्यों को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। इसमें भाषा, साहित्य, प्राचीन ग्रंथों, दर्शन, अध्यात्म, संगीत, नृत्य, नाटक, योग, आयुर्वेद से लेकर हस्तकला, हस्तशिल्प जैसे तमाम अन्य विषयों पर भी चर्चा होगी। स्वाभाविक है कि यह भारतीय संस्कृति के दो महान केंद्रों के मध्य संपर्क व संवाद को गति एवं प्रगाढ़ता प्रदान करेगा। वैसे भी भारतीय संस्कृति विवाद से अधिक संवाद में विश्वास करती है। उसकी यात्रा संवाद से सहमति तथा सहमति से समाधान की रही है। ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ के पीछे की मूल भावना संवाद, सहमति और समन्वय की ही है।

परंतु दुर्भाग्य से विभाजन की विष-बेल को सींचने वाली शक्तियों को कदाचित ऐसी भावना व भूमिका रास नहीं आती। वे सदैव विभाजन की रेखा को कुरेदने व गहरा करने वाले कारक ढूंढ़ते रहते हैं और उसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं।  नए-नए अनुसंधान एवं तमाम  पुरातात्त्विक शोध के निष्कर्षों  द्वारा ‘आर्य-द्रविड़ संघर्ष के सिद्धांत’ को खारिज़ किए जाने के बावजूद आज भी विभाजनकारी एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित तमाम बुद्धिजीवी आए  दिन उसका राग अलापते रहते हैं। पुख़्ता प्रमाण व तमाम तर्कों-तथ्यों को प्रस्तुत किए जाने पर भी वे इस सत्य को स्वीकार करने को बिलकुल तैयार नहीं होते कि आर्य कोई प्रजातिसूचक शब्द नहीं, अपितु गुण एवं श्रेष्ठतासूचक शब्द है। रामायण एवं महाभारत ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं कि भारतीय स्त्रियां अपने पतियों को आर्यपुत्र या आर्यश्रेष्ठ कहकर संबोधित करती थीं। आर्य और दस्युओं का उल्लेख भी मानवीय गुणों या प्रकृति-प्रवृत्ति पर आधारित है। आर्य यहाँ के मूल निवासी थे, इसीलिए भारत वर्ष का एक नाम आर्यावर्त्त भी है। द्रविड़ भी प्रजाति का द्योतक न होकर स्थान का परिचायक है। मनु ने द्रविड़ का प्रयोग उन लोगों के लिए किया है, जो द्रविड़ देश में बसते थे। महाभारत में राजसूय यज्ञ से पूर्व सहदेव के दिग्विजय के समय द्रविड़ देश का वर्णन आता है।  कृष्णा और पोलर नदियों के मध्यवर्ती जंगली भाग के दक्षिण में स्थित कोरोमंडल का समस्त समुद्री तट, जिसकी राजधानी कांची अर्थात कांजीवरम थी, (मद्रास से 42 मील दक्षिण-पश्चिम में) उसके निवासी भी द्रविड़ कहलाते थे। जैसे पंजाब, बंगाल, बिहार के सभी लोग पंजाबी, बंगाली, बिहारी कहे जाते हैं।

भारत के राष्ट्रगान में ‘द्रविड़’ शब्द पंजाब, सिंध, गुजरात आदि की तरह स्थानवाची है, जातिवाचक नहीं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व, एक भी ऐसा वृतांत-दृष्टांत, स्रोत-साहित्य, ग्रंथ-आख्यान नहीं मिलता, जिसमें आर्य-द्रविड़ संघर्ष का उल्लेख-मात्र भी हो। क्या यह संभव है कि विजितों-विजेताओं में से किसी के भी ग्रंथ, लोक-कथा या सामूहिक स्मृतियों में इतने महत्त्वपूर्ण व निर्णायक युद्ध का उल्लेख-मात्र न हो? आर्य यदि कथित रूप से बाहरी या आक्रांता जाति हैं तो क्या यह तर्कसंगत एवं स्वाभाविक है कि उनकी सांस्कृतिक चेतना, पुरातन स्मृतियों एवं उनसे जुड़े किसी भी ग्रंथ में उनके मूल स्थान की रीति-परंपरा-मान्यता-विश्वास आदि की झलक भर भी न हो और अपने मूल स्थानों के प्रति कोई श्रद्धा या कृतज्ञता की भावाभिव्यक्ति तक न हो? चाहे यूनानी हों या इस्लामिक आदि बाहरी व विदेशी आक्रांता, उनके नाम इतिहास में दर्ज हैं, क्यों कोई वामपंथी इतिहासकार आज तक यह नहीं बता सका कि आर्य यदि आक्रांता थे तो उनका नेतृत्वकर्त्ता कौन था?

सत्य यह है कि निहित उद्देश्यों की पूर्त्ति के लिए आर्य-द्रविड़ संघर्ष की संपूर्ण अवधारणा ही अंग्रेजों द्वारा विकसित की गई। वे इस सिद्धांत को स्थापित कर बांटो और राज करो कि अपनी चिर-परिचित नीति के अलावा ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध व्याप्त देशव्यापी विरोध की धार को कुंद करना चाहते थे। वे भारतीय स्वत्व एवं स्वाभिमान को कुचल यह प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे थे कि इस देश का कोई मूल समाज है ही नहीं, यहां तो काफ़िले आते गए और कारवां बसता गया, इसलिए भारत पर अंग्रेजों के आधिपत्य में आपत्तिजनक और अस्वाभाविक क्या है! बल्कि यह तो उनका ईसाइयत-प्रेरित कथित नैतिक कर्त्तव्य है कि वे असभ्यों को सभ्य बनाएं, पिछड़े हुओं को आगे लाएं! वामपंथियों एवं औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने इसे हाथों-हाथ इसलिए लिया, क्योंकि इस एक सिद्धांत के स्थापित होते ही प्राचीन एवं महान भारत वर्ष की समृद्ध ज्ञान-परंपरा पर से  भारतीय भूभाग से संतानवत जुड़े सनातन समाज का पुरातन, परंपरागत व ऐतिहासिक संबंध व अधिकार, मान व गौरव नष्ट होता है। इसके स्थापित होते ही बाहरी बनाम मूल, विदेशी बनाम स्वदेशी, आक्रांता बनाम विजित,  उत्पीड़क बनाम पीड़ित, परकीय बनाम स्वकीय का सारा विमर्श ही कमज़ोर पड़ जाता है।

दुर्भाग्य से स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू से पर्याप्त संरक्षण व प्रोत्साहन पाकर वामपंथियों एवं औपनिवेशिक  मानसिकता से ग्रस्त बुद्धिजीवियों ने और जोर-शोर से इसका प्रचार-प्रसार किया ताकि अपने मानबिंदुओं, जीवन-मूल्यों, जीवनादर्शों के लिए लड़ने-मरने वाला इस देश का मूल समाज भविष्य में भी कभी सीना तान, सिर ऊंचा कर खड़ा न हो सके। उन्होंने भारत के मूल एवं बहुसंख्यक समाज को आर्य-द्रविड़ में बांटने की कुचेष्टा कर जहां एक ओर उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के तल पर दुर्बल करने का प्रयास किया तो वहीं सभ्यता के पथ-प्रदर्शक एवं विश्वगुरु के उसके स्वाभाविक दावे को भी खारिज़ करने की कोशिशें लगातार जारी रखीं। वस्तुतः वामपंथी विषबेल परकीय-औपनिवेशिक-खंडित विचार-भूमि पर ही पल-बढ़ सकती है, इसलिए उन्होंने सदैव उन सिद्धांतों का समर्थन किया, जो भारत की सांस्कृतिक एकता एवं अखंडता के मार्ग में बाधक हों।

द्रविड़ यदि कथित तौर पर हारी हुई जाति थी, तो उत्तर में पैदा हुए अवतारों-चरित्रों का दक्षिण व दक्षिण के संतों-दार्शनिकों का उत्तर में समान रूप से लोकप्रिय,स्वीकार्य एवं आदृत होना भला कैसे संभव होता? क्या यह सत्य नहीं कि कण्व, अगस्त्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, शंकराचार्य आदि ऋषि वैदिक संस्कृति के सर्वमान्य आचार्यों, उन्नायकों व दार्शनिकों में सर्वप्रमुख थे? बल्कि आदिगुरु शंकराचार्य ने तो मात्र 32 वर्ष की अवस्था में संपूर्ण भारतवर्ष का तीन-तीन बार भ्रमण कर पूरे देश को धार्मिक-सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोया था। सुदूर दक्षिण में जन्म लेकर भी वे संपूर्ण भारतवर्ष की रीति-नीति-प्रकृति-प्रवृत्ति को भली-भाँति समझ पाए। उन्होंने सनातन संस्कृति के भीतर काल-प्रवाह में आए भ्रम-भटकाव, भेद-संशय, द्वंद्व-द्वैत-द्वेष-दूरी आदि का निराकरण कर तत्कालीन सभी मतों-पंथों-जातियों-संप्रदायों को ऐक्य एवं अद्वैत भाव से जोड़ने का दुःसाध्य कार्य किया। उन्होंने एक ऐसी समन्वयकारी-सुनियोजित-सुसंगत धार्मिक-सांस्कृतिक व्यवस्था दी कि वेश-भूषा, खान-पान, जाति-पंथ, भाषा-बोली की बाहरी विविधता कभी हम भारतीयों को आंतरिक रूप से विभाजित करने वाली स्थाई लकीरें नहीं बनने पाईं। यह उनकी दी हुई दृष्टि ही थी कि बुद्ध भी विष्णु के दसवें अवतार के रूप में घर-घर पूजे गए। उन्होंने ऐसा राष्ट्रीय-सांस्कृतिक बोध दिया कि दक्षिण के कांची-कालड़ी-कन्याकुमारी-शृंगेरी आदि में पैदा हुआ व्यक्ति कम-से-कम एक बार अपने जीवन में उत्तर के काशी-केदार-प्रयाग-बद्रीनाथ की यात्रा करने की आकांक्षा रखता है तो वहीं पूरब के जगन्नाथपुरी का रहने वाला पश्चिम के द्वारकाधीश-सोमनाथ की यात्रा कर स्वयं को कृतकृत्य अनुभव करता है। देश के चार कोनों पर चार मठों एवं धामों की स्थापना कर उन्होंने एक ओर देश को मज़बूत एकता-अखंडता के सूत्रों में पिरोया तो दूसरी ओर विघटनकारी शक्तियों एवं प्रवृत्तियों पर लगाम लगाया। तमाम आरोपित भेदभावों के बीच आज भी गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्वरम में चढ़ाना पुनीत कर्त्तव्य समझा जाता है तो जगन्नाथपुरी में खरीदी गई छड़ी द्वारकाधीश को अर्पित करना परम सौभाग्य माना जाता है।

ये चारों मठ एवं धाम न केवल हमारी आस्था एवं श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्रबिंदु हैं, अपितु ये आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के सबसे बड़े संरक्षक एवं संवाहक भी हैं। यहाँ से हमारी चेतना एवं संस्कृति नया जीवन पाती है, पुनः-पुनः जागृत एवं प्रतिष्ठित होती है। उन्होंने द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं 52 शक्तिपीठों के प्रति उत्तर-दक्षिण के लोगों में समान श्रद्धा विकसित की। उन्होंने हर बारह वर्ष के पश्चात महाकुंभ तथा छह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होने वाले अर्द्धकुंभ मेले के अवसर पर भिन्न-भिन्न मतों-पंथों-मठों के संतों-महंतों, दशनामी संन्यासियो के मध्य विचार-मंथन, शास्त्रार्थ, संवाद, सहमति की व्यवस्था दी। अवसर व नाम चाहे भले ही भिन्न हो, पर प्रकृति, स्वरूप एवं भावनाओं के तल पर प्रधानमंत्री मोदी ने भी ‘काशी-तमिल समागम’ कार्यक्रम के माध्यम से आदिगुरु शंकराचार्य की परंपरा व सीख को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। यह भी हर्ष व गौरव का विषय है कि भारत की सांस्कृतिक नगरी काशी एक बार पुनः उसकी साक्षी ही नहीं, अपितु दोनों के मध्य संपर्क-संबंध स्थापित करने का माध्यम भी बनने जा रही है।

Topics: Indian Cultureकाशी-तमिल समागमकाशी-तमिल समागम का महत्वकाशी-तमिल समागम पर लेखKashi-Tamil SamgamImportance of Kashi-Tamil SamgamArticles on Kashi-Tamil Samgamभारतीय संस्कृति
Share29TweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

उत्तर-दक्षिण भारत के सांस्कृतिक सेतु

‘ऑपरेशन सिंदूर’ : सेना का गर्वीला अभियान, लेकिन फेमिनिस्टों को सिंदूर नाम से परेशानी, कर रहीं ‘विलाप’

हल्दी घाटी के युद्ध में मात्र 20,000 सैनिकों के साथ महाराणा प्रताप ने अकबर के 85,000 सैनिकों को महज 4 घंटे में ही रण भूमि से खदेड़ दिया। उन्होंने अकबर को तीन युद्धों में पराजित किया

दिल्ली सल्तनत पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों?

संस्कृत मजबूत होगी तो बाकी भाषाएं भी मजबूत होंगी : अमित शाह

आदि शंकराचार्य

राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के सूत्रधार आदि शंकराचार्य

एनसीईआरटी किताब से मुगलों की जानकारी हटाई,

NCERT किताबों में बदलाव: मुगल और दिल्ली सल्तनत हटा, भारतीय संस्कृति को मिला स्थान

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

PM मोदी पर फर्जी आरोपों वाली AI जनित रिपोर्ट वायरल, PIB ने बताया झूठा

डार वहां के विदेश मंत्री वांग यी (दाएं) से मिलकर घड़ियाली आंसू बहाने वाले हैं

भारत से पिटे जिन्ना के देश के विदेश मंत्री इशाक डार आज चीन जाकर टपकाएंगे घड़ियाली आंसू, मुत्तकी से भी होगी बात

सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: हाई कोर्ट के सभी जजों को पूर्ण पेंशन का अधिकार

NIA

भुवनेश्वर में खुलेगा एनआईए का कार्यालय, गृह विभाग ने जारी की अधिसूचना

Mystirous cave found in Uttrakhand

उत्तराखंड: बेरीनाग के पास मिली रहस्यमय गुफा, वैज्ञानिक शोध की जरूरत

Operation Sindoor: पाकिस्तान को फिर से हराने के लिए रहें तैयार

एस जयशंकर

ऑपरेशन सिंदूर पर बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया: PIB ने राहुल गांधी के दावे का किया खंडन

Pakistan Targeted Golden Temple

Operation Sindoor: पाकिस्तान के निशाने पर था स्वर्ण मंदिर, एयर डिफेंस ने ड्रोन, मिसाइलों को हवा में ही बना दिया राख

प्रतीकात्मक चित्र

बांग्लादेश से भारत में घुसे 3 घुसपैठिए गिरफ्तार, स्थानीय एजेंटों की तलाश

Pakistan Spy Shehzad arrested in Moradabad

उत्तर प्रदेश: मुरादाबाद में ISI जासूस शहजाद गिरफ्तार, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लिए करता था जासूसी

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies