आधुनिक स्त्रियां

समानता के नाम पर एक मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को जन्म दिया गया है। इसे एक साधारण बात से समझा जा सकता है कि आज भी बहुत सारी लड़कियां सफल होकर भारतीय जीवनबोध से भरी हुई हैं। यह जीवनबोध उन्हें अपने माता-पिता से ही मिला है। उन्होंने अपनी पुत्रियों से यह नहीं कहा कि जाओ! मेरी परियो, तुम बेलगाम उड़ो!

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देवांशु झा की फेसबुक वॉल से

संपूर्ण उत्तर भारत के बड़े शहरों में पापा की परियां दिनोंदिन ऐसे पहनावे की ओर झुक रही हैं? पिछले दिनों एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें महिलाएं एक गार्ड को पीटते हुए दिख रही थीं।

कुछ दिन पहले मैं नोएडा फिल्म सिटी से गुजर रहा था। दिन ढलने वाला था। एक चर्चित मीडिया और फिल्म इंस्टीट्यूट से विद्यार्थी बाहर निकल रहे थे। झुंड में 20-21 साल की कुछ लड़कियां भी थीं। देखने में न तो वे आकर्षक थीं और न ही उनमें से किसी ने भारतीय पोशाक पहनी थी। उनके कपड़े विचित्र थे, जो तन ढकने के लिए पर्याप्त नहीं थे। वहां का ड्रेस कोड यही है! फैशन परेड करती हुई छात्राएं शिक्षण संस्थान की गरिमा का भी ख्याल नहीं रखतीं। उनके शिक्षक भी उन्हें इस बारे में नहीं समझाते।

आखिर क्या कारण है कि लगभग संपूर्ण उत्तर भारत के बड़े शहरों में पापा की परियां दिनोंदिन ऐसे पहनावे की ओर झुक रही हैं? पिछले दिनों एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें महिलाएं एक गार्ड को पीटते हुए दिख रही थीं। इनके लिए गाली-गलौज आज मामूली बात है। इस शहर में कार चलाने वाली कितनी ही महिलाएं आए दिन बदतमीजी करती हुई नजर आती हैं। वे खुद गलत होकर भी सामने वाले को अंग्रेजी में गाली देती हैं। सामने वाला अधिक प्रतिकार कर पाने की स्थिति में नहीं होता। मैं स्वयं दो-तीन बार भुगत चुका हूं।

दो-तीन माह पहले दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक वैवाहिक कार्यक्रम में जाना हुआ था। लड़की उत्तर भारत की थी। उसकी कुछ सहेलियां और बहिनें साड़ी पहन कर आई थीं, लेकिन साड़ी पहनने का अंदाज पूरी तरह फिल्मी था। उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहा कि वैवाहिक कार्यक्रम मंदिर में था। कुछ देर बाद वे फोटो सेशन में शामिल हुर्इं और गर्भगृह के बाहर प्रदक्षिणा पथ पर अपनी पीठ आदि के विशेष कोण से फोटो उतरवाने लगीं। मैं उनकी मूर्खता पर हतप्रभ था। कई बार मयूर विहार के सिद्धि विनायक मंदिर में स्थानीय महिलाएं-लड़कियां जिम वाले कपड़े पहन कर पहुंच जाती हैं। उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से रोका जाता है तो वे भिनभिनाती हैं। मंदिर प्रशासन को कोसती हैं, पर आत्मावलोकन नहीं करतीं।

पुरुषों ने अपने आचरण से कोई आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया हो, बल्कि मेरा तो यही मत है कि उन्होंने स्त्री समानता के जिस अनियंत्रित और अस्वस्थ पैमाने को गढ़ा, उसके कारण ही स्थिति बेकाबू होने लगी है। पापा की परियां अगर अपने पापा से भारतीयता, नारी धर्म की महत्ता, जीवन को बांधे रखने में उनकी विराट भूमिका को समझ पातीं तो उनमें यह भौंडापन न आता। समानता के नाम पर एक मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को जन्म दिया गया है। इसे एक साधारण बात से समझा जा सकता है कि आज भी बहुत सारी लड़कियां सफल होकर भारतीय जीवनबोध से भरी हैं

धारावाहिक अनुपमा में जो दिखाया जा रहा है, वह धीरे-धीरे भारतीय समाज में दिख रहा है। संबंधों का अंत हो रहा है। उस अंत में एक नए प्रारम्भ का उत्सव मनाया जा रहा है। स्वयं संततियां अपने माता-पिता में विच्छेद करवा रही हैं तो माता-पिता अपनी पुत्रियों के जीवन में ताक-झांक कर उनके जीवन को नष्ट कर रहे हैं। पापा की परियां वैवाहिक जीवन प्रारंभ करने के बाद अपने नैहर से उस करुणामय विलगाव को अब स्वीकार नहीं कर पातीं। नैहर और ससुराल साथ-साथ हैं। तटस्थ होकर विवाह आश्रम को स्वीकार करने का भाव समाप्त होता जा रहा है। लेकिन वे भूल रही हैं कि उनकी माताओं के भी मम्मी-पापा थे। उनकी माताएं उनसे बहुत प्रेम करती थीं, लेकिन उन्होंने संबंधों की गरिमा का निर्वाह बहुत अच्छे से किया।

मोहाली की घटना एक डरावना संकेत है कि यौन उन्मुक्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार यह पीढ़ी कहां जा रही है। कोई लड़की अपनी सहेलियों के नहाने के वीडियो सार्वजनिक करती रही। यह कैसा पागलपन है? कैसी डरावनी स्वच्छंदता! काम वासना के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण खुला रहा है। यहां मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियां इसका प्रमाण हैं। लेकिन पश्चिम की पशुवत नकल नई पीढ़ी को नष्ट कर रही है। जब यौनाचार सारे कायदे-कानून तोड़ने को आगे बढ़ता है, तब मनुष्य धीरे-धीरे पशु होने लगता है। उसके लिए अन्य पारिवारिक और सामाजिक संस्थाएं अर्थहीन हो जाती हैं।

ऐसा नहीं कि इन बीते वर्षों में पुरुषों ने अपने आचरण से कोई आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया हो, बल्कि मेरा तो यही मत है कि उन्होंने स्त्री समानता के जिस अनियंत्रित और अस्वस्थ पैमाने को गढ़ा, उसके कारण ही स्थिति बेकाबू होने लगी है। पापा की परियां अगर अपने पापा से भारतीयता, नारी धर्म की महत्ता, जीवन को बांधे रखने में उनकी विराट भूमिका को समझ पातीं तो उनमें यह भौंडापन न आता। समानता के नाम पर एक मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को जन्म दिया गया है। इसे एक साधारण बात से समझा जा सकता है कि आज भी बहुत सारी लड़कियां सफल होकर भारतीय जीवनबोध से भरी हैं। यह जीवनबोध उन्हें अपने माता-पिता से ही मिला है। उन्होंने अपनी पुत्रियों से यह नहीं कहा कि जाओ! मेरी परियो, तुम बेलगाम उड़ो!

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