उत्तराखंड की लोक गाथाओं में कई वीर भड़ों अर्थात वीर योद्धाओं का वर्णन आता है। इन्हीं वीर योद्धाओं में से एक वीर भड़ हैं माधो सिंह भंडारी, जिनका पहाड़ी लोकगाथाओं में अपना अलग विशेष स्थान है। माधो सिंह भंडारी गढ़वाल के महान योद्धा, सेनापति और कुशल इंजीनियर थे, वो गढ़वाल की लोक कथाओं का अहम हिस्सा रहे हैं। माधो सिंह का जन्म सन 1595 के लगभग उत्तराखंड के टिहरी जिले के मलेथा गाँव में हुआ था। इसलिए उन्हें माधो सिंह मलेथा भी कहा जाता है। मलेथा गाँव उत्तराखंड के बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ है। लगभग चार सौ वर्ष पूर्व पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी सुरंग बनाकर अपने गाँव मलेथा तक लेकर आने का काम महान योद्धा माधो सिंह भंडारी ने ही किया था।
माधो सिंह के पिता का नाम कालो भंडारी था, जो अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। दिल्ली में मुग़ल शासक अकबर का शासन था। उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में राजा गरुड़ ज्ञानचंद और सिरमौर के राजा मौलिचंद ने तपोवन स्थित उपजाऊ भूमि के लिए तत्कालीन गढ़वाल राजा मानसिंह के साथ सन 1591 से 1610 के बीच टकराव शुरू किया था। ये तीनों ही राजा इस उपजाऊ भूमि पर अपना अधिकार चाहते थे। राजा मानसिंह ने उनकी इस माँग को ठुकरा दिया। दिल्ली और चम्पावत के शासकों को यह बात पसंद नहीं आई और दोनों जगह के शासकों ने अपने बलवान और युद्धकला में पारंगत सिपाहियों को गढ़वाल भेज दिया। राजा मानसिंह ने माधो सिंह भंडारी के पिता कालो सिंह भंडारी से मदद मांगी थी। युद्ध में कालो सिंह भंडारी ने अकेले ही इन सभी को परास्त कर दिया। राजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर कालो भंडारी को सौण बाण अर्थात स्वर्णिम विजेता की उपाधि प्रदान की थी। उसी समय से वो ‘सौण बाण कालो भण्डारी’ कहलाए जाने लगे। उनकी बुद्धिमता और वीरता से प्रभावित होकर तत्कालीन गढ़वाल नरेश ने ‘सोणबाण’ कालो भंडारी को एक बड़ी जागीर भेंट की थी।
माधो सिंह भी अपने पिता की तरह ही वीर और स्वाभिमानी थे। माधो सिंह भंडारी कम उम्र में ही श्रीनगर के शाही दरबार की सेना में भर्ती हो गए और अपनी वीरता और युद्ध कौशल के बल पर तत्कालीन राजा महीपति शाह सन 1631-35 जो पंवार वंश के 46वें राजा थे, की सेना के सेनाध्यक्ष के पद पर पहुंच गए। सेनाध्यक्ष के रूप में माधो सिंह दुश्मनों के लिए साक्षात यम के दूत बन गए थे। माधो सिंह के नेतृत्व में महीपति शाह ने तिब्बत के दावा क्षेत्र से होने वाले लगातार हमलों से राज्य को सुरक्षित करने के साथ ही दावा क्षेत्र और अपने राज्य के बीच सीमा का निर्धारण किया था। इस कारण महीपति शाह ‘गर्भ-भंजक’ नाम से भी जाने जाते थे। लगातार हमलों से नींद उड़ाने वाले तिब्बत के दावा क्षेत्र के दुश्मनों से लड़ाई में विजय हासिल करने के बाद माधो सिंह भंडारी का विवाह उदीना के साथ हुआ था। सेना से अवकाश के समय अपने गाँव में खेती-बाड़ी और उसर भूमि के हालात देखकर माधो सिंह का मन बहुत दुखी हुआ। मलेथा गाँव के अलकनंदा और चंद्रभागा नदियों से घिरे होने के बावज़ूद भी वहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। गाँव की खेती सिर्फ़ वर्षा के पानी पर निर्भर थी। कभी-कभी अकाल पड़ने तक की नौबत भी आ जाती थी। पानी की कमी के कारण स्थानीय लोगों का खेती करके फ़सल और सब्ज़ी उगाना भी बेहद मुश्किल था।
माधो सिंह ने इस विकट समस्या पर गंभीर विचार किया कि किस प्रकार से गाँव में पानी और सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। माधो सिंह ने निश्चय किया कि वो किसी भी तरह से मलेथा गाँव में पानी लेकर आएंगे। मलेथा गाँव के सबसे नजदीक चंद्रभागा नदी बहती है, लेकिन नदी और गाँव के बीच बहुत बड़े पहाड़ और चट्टानों के कारण यहाँ नदी का पानी पहुँचाना बहुत ही दुरह कार्य था। माधो सिंह ने विचार किया की यदि पहाड़ों के बीच से किसी तरह सुरंग बनाई जा सके तो पानी को गाँव तक पहुँचाना संभव हो सकेगा। कठोर चट्टानों के बीच से लगभग 2 किलोमीटर लम्बी सुरंग किस प्रकार मलेथा तक पहुँचाई जाए यह कार्य बेहद कठिन था। सोलहवीं सदी में नहर और सुरंग के ज़रिए सिंचाई के लिए पानी खेतों तक पहुँचाना एक दिवास्वप्न जैसी बात थी। माधो सिंह ने तुरंत ही एक स्थानीय विशेषज्ञों का दल बुलाकर और गाँव के लोगों को साथ लेकर सुरंग बनाने का काम शुरू कर दिया। पाँच साल तक चले इस हिमालयी परिश्रम के बाद स्थानीय भाषा में जिसे कूल या गूल कहा गया अर्थात सुरंग बनकर तैयार हो गई। इसके ऊपर के हिस्से को मजबूत लोहे और कीलों का आवरण दिया गया था, जिससे कि भविष्य में आने वाली किसी आपदा और भूस्खलन से इसे सुरक्षित रखा जा सके। यह सुरंग अपने आप में आधुनिकतम इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है।
स्थानीय कहानियों एवं प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार माधो सिंह ने अपने पुत्र गजे सिंह का इस सुरंग के लिए बलिदान कर दिया था। जब सुरंग बनकर तैयार हो गई थी तो नदी के पानी को सुरंग से गुज़ारने के बहुत प्रयास करने के बावज़ूद भी नदी का पानी सुरंग में नहीं पहुँचाया जा सका था। उक्त विकट परिस्थितियों में माधो सिंह के साथ ही सारा गाँव भी बहुत परेशान हो गया था। एक रात माधो सिंह को स्वप्न आया कि देवी उनसे अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान करने को कह रही है। यह बात उन्होंने परिवार के साथ गाँव के लोगों को बताई कि सुरंग से पानी लाने के लिए उन्हें अपने एकमात्र बेटे गजे सिंह की बलि देनी होगी। माधो सिंह इस विचार के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन गजे सिंह लोकहित के लिए इस बलिदान के लिए खुद ही राज़ी हो गए।
गजे सिंह ने पिता माधो सिंह से कहा कि अगर ऐसा करने से मलेथा गाँव के लोगों को पानी मिल सकता है और यहाँ की बंज़र भूमि उपजाऊ हो सकती है तो उन्हें यह बलिदान देना ही चाहिए। सर्वसम्मति से गजे सिंह की बलि दी गई और उनके सिर को सुरंग के मुँह पर रखा दिया गया। इसके बाद जब नदी के पानी को सुरंग की ओर मोड़कर गुज़ारा गया तो पानी सुरंग से होते हुए गजे सिंह के सिर को अपने साथ बहा कर ले गया और गजे सिंह के सिर को खेतों में स्थापित कर दिया। वहीं अन्य प्रचलित जनश्रुतियों के अनुसार ये भी माना जाता है कि माधो सिंह भंडारी किन्हीं कारणों से यह नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र गजे सिंह सुरंग निर्माण के कार्यस्थल पर आए। परंतु एक दिन जिद करके गजे सिंह वहाँ पहुंच गया और पहाड़ से बड़ा सा पत्थर लुढ़ककर उसके सिर पर लगा जिससे उसकी मौत हो गयी। बाद में जब सुरंग में पानी आया तो वह उस जगह तक पहुँच गया था जहाँ पर गजे सिंह की मौत हुई थी। पुत्र के बलिदान से आहत गजे सिंह की माता उदीना ने श्राप दिया था कि अब से इस परिवार अब कोई ‘भड़’ अर्थात वीर पैदा नहीं होगा।
सुरंग से नदी का पानी मलेथा गाँव तक पहुँचाने के बाद माधो सिंह वापस श्रीनगर राजा महीपति शाह के पास चले गए और फ़िर कभी गाँव लौटकर न आने का फ़ैसला किया। मलेथा गाँव में सुरंग बनाने की घटना के बाद माधो सिंह सेना में वापस लौटे तो उन्हें तिब्बत की सेना से लड़ने के लिए भेजा गया, जो उस वक़्त दावा क्षेत्र में लगातार हमला कर रही थी। छोटा चीनी नामक स्थान पर भीषण युद्ध के समय उनकी मृत्यु हो गई थी। राजा महीपति शाह ने माधो सिंह की मदद से गढ़वाल और तिब्बत के बीच सीमा तय करने का काम किया था। उनकी मृत्यु को लेकर गढ़वाल के लेखक पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल का इतिहास’ में लिखते हैं कि तिब्बत के सैनिक माधो सिंह के नाम से भी घबराते थे। अपने विजय रथ को जब वे आगे बढ़ा रहे थे तो इसी बीच रोगग्रस्त होने के कारण उनकी मृत्यु हुई थी। पुस्तक के अनुसार मृत्यु से पहले माधो सिंह ने अपनी सेना से कहा था कि – “तिब्बतियों को यह पता नहीं चलने देना कि माधो सिंह मर चुका है, वरना वो फ़िर से हमला करेंगे।” पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार माधो सिंह ने कहा था, “लड़ते हुए पीछे होते जाना और मेरे शव को भूनकर और कपड़े में लपेटकर, बक्शे में रखकर, हरिद्वार ले जाना और वहाँ दाह-संस्कार कर देना।” एक अन्य लेखक शिवप्रसाद डबराल ने अपनी पुस्तक “उत्तराखंड का इतिहास” में भी यह माना है कि माधो सिंह भण्डारी की मौत छोटा चीनी नामक स्थान में हुई थी। शिवप्रकाश डबराल के अनुसार उनकी मौत 1635 में हुई, लेकिन कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध 1640 के बाद लड़ा गया था और माधोसिंह की मौत इसी के बाद हुई थी।
“एक सिंह रैंदो बण, एक सिंह गाय का। एक सिंह माधो सिंह और सिंह काय का ।।” उत्तराखंड में प्रसिद्ध इस लोकोक्ति का अर्थ है- एक सिंह वन में रहता है, एक सींग गाय का होता है। एक सिंह माधो सिंह है, इसके अलावा बाकी सिंह बेकार हैं। वर्तमान में मलेथा गाँव का सम्पूर्ण इलाका हरा-भरा और कृषि सम्पदा से पूर्ण है। माधो सिंह भंडारी के त्याग, परिश्रम और दृढ इच्छाशक्ति द्वारा बनाई गई यह नहर आज तक भी गाँव में पानी पहुँचा रही है।
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