भले ही दुनिया के सबसे ज्यादा बारिश वाले देशों में भारत का नाम हो, लेकिन संसाधनों के शोषण और नदियों के प्रदूषण में अगर आज हम आगे हैं तो ये थोड़ा थमने का वक्त है। आज से 50 साल पहले एक व्यक्ति को 5000 घन मीटर पानी मुहैया था और जो आज 1500 घन मीटर रह गया है। यानी हम पानी के मामले में उल्टे पांव चल रहे हैं
पंचमहाभूत की अवधारणा को आत्मसात करते सुधीजन
ऋग्वेद में उल्लेख है कि सृष्टि पर सिर्फ़ जल ही था और वहीं सबसे पहले जीवन का अंश बना। आकाशीय, सतही, कुएं और बहते जल का भेद भी इस वेद में दर्ज है। पंचतत्वों में शामिल ‘अपस’ यानी पानी के सांस्कृतिक और वैज्ञानिक पक्ष का ऋषियों-मनीषियों ने सूक्ष्म अवलोकन किया है।
वैदिक काल की सिंधु-सरस्वती सभ्यता या हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो सहित सभी भारतीय सभ्यताओं में पानी को लेकर समोया विवेचन आधुनिक विज्ञान के पैमानों पर तो खरा है ही, तकनीक, वास्तु और लोक-संस्कृति और जल-संरक्षण की खनखनाती परंपराओं की जीवंत मिसालों के साथ पूरी मजबूती से पांव जमाए खड़ा है। फिर भी भारत में पानी को लेकर घोर संकट है तो इसे सिरे से समझना होगा और इसके समाधान के लिए जोर- शोर से जुटना होगा।
‘सुमंगलम्’ में जल-जीवन
हम प्रकृति की सार-सम्भाल में हमारी ज्ञान परम्पराओं को रेखांकित कर पाएं, यह जिÞम्मा देश की कुछ दिग्गज सामाजिक संस्थाओं ने लिया है। पंचमहाभूत के पांचों तत्व यानी वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश और जल में ‘सुजलाम्’ की बात करने के लिए भारत रत्न नाना जी देशमुख द्वारा स्थापित दीन दयाल शोध संस्थान जुटा है। पानी के प्रबंधन के लिए ‘दौड़ते को चलता करने और चलते हुए को रोकने’ की दृष्टि वाले नाना जी ने एकात्म मानव दर्शन के विचार से हर कार्य को साधा। उसी भाव के साथ जल शक्ति मंत्रालय के सहयोग से देश भर के जल सारथियों को साथ लेकर जो बुनावट शुरू हुई है, उससे सीखने और उस पर अमल करने की तैयारी हम सबकी होनी चाहिए।
पानी की चर्चा में शामिल होकर मैंने देखा कि जल की बात कुओं-बावड़ियों-तालाबों और नदियों के किनारे बैठ कर घर-परिवार जैसे माहौल में होनी शुरू हुई और इस दौरान आध्यात्मिक और धार्मिक पक्ष खुलकर सामने आया। लोक संस्कृति के नजरिए को देश भर के शिक्षार्थियों और गुजरात विद्यापीठ जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के विद्यार्थियों ने जिस तरह पेश किया, उसमें जल-जंगल-जमीन-जानवर की रखवाली में वनवासियों के योगदान को ही अव्वल रखा। जमीनी काम करने वाले लोगों ने जाजम पर बैठकर पानी-पहाड़-पेड़ के साथ बुने लोकगीतों, प्रथाओं, जीवन शैली की बात छेड़ी तो शहरी दौड़ में रौंदी गई गांवों की मिट्टी और मिठास का दर्द भी जाहिर हुआ।
मध्य भारत की जल-विरासत
जल व्यवस्थापन के बारे में सम्राट विक्रमादित्य के शासन काल में हुए ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता’ में उदकार्गल यानी पानी के संचय पर करीब सवा सौ श्लोक लिखे। उज्जैन में रहकर इस महर्षि ने भूगर्भ में पानी की खोज और उसके निरीक्षण के अचूक तरीके बताए हैं। वहां उपजने वाले पेड़-पौधे, आस पास बांबियों, उनकी दिशा, वहां बसे जीव जंतु, जमीन का रंग आदि कई पैमानों के आधार पर पानी की मौजूदगी बताने वाले वराह-मीहिर के बताए तरीकों को जब आधुनिक विज्ञान ने परखा तो उससे पानी की खोज 95 फीसदी सटीक निकली। लेकिन जन-मानस में इस ज्ञान सम्पदा की पूछ और साख कायम करने की कोशिशों में हमारी ओर से अब भी ढिलाई है।
मध्य प्रदेश में ‘जन अभियान परिषद’ के बूते सैकड़ों जल-संरचनाओं का संरक्षण और जल-जागरूकता पर खूब काम हुआ है। जल जीवन मिशन के तहत मध्यप्रदेश के बुरहानपुर, जिसके 256 गांवों में बने ‘पानी-परिवार’ हजार फीट गर्त में पहुंच चुके पानी को उठाने की ठान रहे हैं, तो वजह सैकड़ों बरस पुराने और सूखे एक कुएं का फिर से छलकना भी है। पानी की आहट यानी जीवन का संगीत, बहाव, और धरती के लाड़-प्यार की बौछार।
ग्रामीण समुदाय, प्रशासन और अर्चना चिटनिस जैसी नेत्रियों की कमान में ‘पानी एप’ के जरिए जल-संरक्षण के कामों की निगरानी और संवाद की प्रक्रिया के बारे में जानकर लगा कि अब तथ्यों की तह में जाकर असल काम की ललक भी है। यहां भले ही ‘हर घर नल’ का लक्ष्य हासिल हो चुका है, लेकिन धरती की कोख खाली तो नल के मायने भी क्या। ये फिक्र अब साझी है, क्योंकि भारत जल-संकट के मुहाने पर है, और स्थिति बेहद गम्भीर है।
नल के नाते, बिछड़ते पनघट
देश के जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ‘सुजलाम्’ के ही मंच से जब ये बात उठाते हैं कि ‘हर घर नल’ तो आ जाएगा लेकिन पानी से रिश्ता कैसे कायम रहेगा? ये साफगोई वहां से उपजती है जब हम देखते हैं कि पानी के संकट वाले इलाकों में नहरी पानी या बांधों के भराव की खूब आवक हो गई तो हमारे आस-पास के ‘जल-स्रोत’ सिर्फ़ साल भर में एक आध पूजा-अर्चना के प्रतीक भर रह गए। और ज्यादातर तो अनदेखी के ऐसे शिकार हुए कि उनका नामो निशान ही मिट गया।
आज कस्बों और गांवों में पुरानी जल संरचनाओं की तरफ नई पीढ़ी को झांकने की जरूरत ही नहीं पड़ती। कभी तालाब और सरोवरों के नाम हुआ करते थे, उनकी हैसियत और स्वभाव हुआ करता था, उसके बहाव और मिट्टी में उछल कूद और खिलखिलाहट रहा करती थी। वहीं घर की दहलीज पर पहुंची पाइपलाइनों ने सहूलियत तो दे दी लेकिन पानी से वह करीबी रिश्ता खत्म कर दिया। यही जल स्रोत तो धरती की कोख को हरा-भरा रखने में कामयाब हैं, हमारी याददाश्त से यह बात ओझल हो जाना ही सबसे बड़ी त्रासदी है।
सुनकर सुकून हुआ कि पानी का जिम्मा सम्भाले नेताओं को पनघट की प्रथा और मेलजोल की संस्कृति की भी परवाह है। इसीलिए वे यह याद दिलाने से नहीं चूकते कि औरतों पर जो पीने के पानी के इंतजाम का जिÞम्मा है उसके लिए वे हर रोज 7-8 घंटे पानी के लिए दौड़ धूप करती है। यह हमारी श्रमशक्ति के साथ ज्यादती है, उसकी बेकद्री है। और इसके लिए नल को घर तक लाना ही होगा, साफ पानी का जिम्मा लेना ही होगा, मगर कुओं-तालाबों से नाता भी जोड़े रखने का आग्रह दोहराना होगा।
वैज्ञानिक और वैश्विक बहस
वैश्विक मायने में भारत की स्थिति को जिस आईने से देखा जा रहा है उसमें ये बात साफ है कि दुनिया में सबसे प्रदूषित नदियां हमारी हैं। महाराष्ट्र का इलाका सूखे के लिए और दूषित नदियों के लिहाज से देश में सबसे बदतर है। दिल्ली पानी के इस्तेमाल में तो देश में अव्वल है ही, साथ ही यमुना की बदहाली का दाग भी उस पर है जिसे मिटाने के लिए भारत सरकार ने हाल ही दिल्ली सरकार को 2419 करोड़ जारी किए हैं।
स्वास्थ्य एजेंसियां बताती रही हैं कि 70 प्रतिशत बीमारियों की जड़ खराब पानी ही है। हमारे यहां आयुर्वेद जल औषधि और उपचार के लिए कैसे प्रयोग हो, इसकी बात करता है। खान-पान की शुद्धता और चौका-रसोई की स्वच्छता पर हमारे यहां हमेशा जोर रहा है। फिर भी जल में घुली खराबी ने हमें घेर लिया है। जलीय जैव विविधता पर वैज्ञानिक शोध करने वाले मध्यप्रदेश के मांडव इलाके के डॉ. शैलेंद्र शर्मा का पौधों और कीटों की उन प्रजातियों के बारे में खासा अध्ययन है जो पानी को कुदरती तौर पर शुद्ध करने में सक्षम हैं।
‘सुजलाम्’ के सारे सिरों को जोड़ रहे अतुल जैन व्यक्ति, समाज और सरकार तीनों की भूमिका देखते हुए, देश विदेश के कोने-कोने से जल-जानकारों, जमीनी कामों और नई पीढ़ी को संवाद में शामिल कर रहे हैं। पानी के सभी आयामों पर शोध के लिए प्रेरित करने, जल-जीवन को अभिव्यक्त करती लोक संस्कृति और धर्म शास्त्रों में पानी के संदर्भों को संरक्षित करते हुए भारतीय प्रज्ञा को वैश्विक मानदंडों पर तोलने का ये आंदोलन हमारी असल प्यास और अस्तित्व से जुड़ा है।
आयुर्वेद में बताए निर्मली के बीज और झाड़ियां पानी की गंदगी को तलहट में इकट्ठा कर देती हैं, जामुन की लकड़ी हरी काई को उगने का मौका नहीं देती और पानी को सड़ने नहीं देती। जहां पानी, जलीय पौधों और कीट-पतंगों की अच्छी दोस्ती है, वहां कृत्रिम तरीकों से पानी को साफ करने की जरूरत ही नहीं। बाजार की गिरफ़्त में रहकर हम मशीनों के सहारे पानी की सफाई के जो तरीके अपना रहे हैं वे हमें स्वास्थ्य की जिन जटिल चुनौतियों में धकेल रहे हैं, इसके पुख़्ता सुबूत हमारे वैज्ञानिकों से सुने जाने की जरूरत है। फिर भी हम मशीनों को सिरे से खारिज नहीं कर सकते। परम्पराओं और सनातन ज्ञान को आधुनिक संदर्भ में रखना और उन्हें वैज्ञानिक पैमानों पर टटोलना और बेहतर करना भी इस दौर की बड़ी कामयाबी हो सकती है।
संकट और समाधान
भारत में भूगर्भ जल के खाली होने से देश का 17-18 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ की चपेट में और करीब इतना ही भूभाग सूखे की चपेट में रहता है। आधुनिक दौर में नदी के बहाव वाले इलाकों का रास्ता साफ करने, उन्हें खाली कराने और सैकड़ों साल पुरानी और कुदरती जल-संरचनाओं को सहेजने की मुहिम बड़ी है। भले ही दुनिया के सबसे ज्यादा बारिश वाले इलाकों में भारत का नाम आता हो लेकिन संसाधनों के शोषण की दौड़ में अगर आज हम भी शामिल हैं तो ये थोड़ा थमने का वक्त है। आज से 50 साल पहले पीछे लौटें तो एक व्यक्ति को 5000 घन मीटर पानी मुहैया था और जो आज 1500 घन मीटर रह गया है। यानी हम पानी के मामले में उल्टे पांव चल रहे हैं।
पानी की खपत में जो शहर और गांव के बीच की या कहें आम और खास की जो फासला है उसे जानकर भी हम खामोश रहें तो खामियाजा तो मिलाकर ही भुगतेंगे। मोटा-मोटा अनुमान है कि भारत का एक आम नागरिक करीब 3500 लीटर, अभिजात्य-जन 7500 लीटर और पूंजीपति 21000 लीटर सालाना पानी का इस्तेमाल करता है जो उपभोग की तरफ झुकी जीवन शैली की ओर इशारा है। बेहद करीब दिखाई दे रही जल-विपदा के अहसास से ही समाधान की छटपटाहट होगी। खयाल इतना रखना है कि जितना खींच रहे उतना भर शुद्ध रूप में लौटा देने की आदत बनानी है। जो कुछ कुदरत दे रही उसे सहेजने की व्यवस्था बनानी है।
‘सुजलाम्’ के सारे सिरों को जोड़ रहे अतुल जैन व्यक्ति, समाज और सरकार तीनों की भूमिका देखते हुए, देश विदेश के कोने-कोने से जल-जानकारों, जमीनी कामों और नई पीढ़ी को संवाद में शामिल कर रहे हैं। पानी के सभी आयामों पर शोध के लिए प्रेरित करने, जल-जीवन को अभिव्यक्त करती लोक संस्कृति और धर्म शास्त्रों में पानी के संदर्भों को संरक्षित करते हुए भारतीय प्रज्ञा को वैश्विक मानदंडों पर तोलने का ये आंदोलन हमारी असल प्यास और अस्तित्व से जुड़ा है। विज्ञान की पारखी नजर से खुद को खंगालते हुए, खेत की मेड़ पर लगे पेड़ से, तालाबों और सरोवरों की सार सम्भाल, गोचर की भूमि को हरा भरा रखकर, दौड़ते पानी की रफ़्तार कम कर और रेंगते पानी को थामकर ही हम पंचमहाभूतों के समन्वय को कायम रख पाएंगे।
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