तुर्किए का भारत विरोधी रवैया कभी छुपा नहीं है। राष्ट्रपति एर्दोगन की नीतियों में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ और ‘मुस्लिम जगत का खलीफा’ होने की चाहत भी सर्वविदित है। लेकिन इधर कुछ समय से तुर्किए के अनेक कदम ऐसे देखे गए हैं जिससे आभास होता है कि वह पाकिस्तान की भारत विरोधी साजिशों में उसकी मदद कर रहा है।
बात चाहे अफगानिस्तान की हो या जम्मू—कश्मीर की। तुर्किए के बयान और कूटनीति भारत के सकारात्मक प्रयासों के विरुद्ध ही देखने में आए हैं जिससे आभास होता है कि वह पाकिस्तान की मंशाओं में सहयोगी बन रहा है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी इन दोनों ही देशों के वक्तव्यों में भारत के संदर्भ में कुछ सामंजस्य ही देखा गया है। तुर्किए में राष्ट्रपति एर्दोगेन सरकार के राज में वहां पाकिस्तान परस्ती तथा भारत विरोध के अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं।
अभी सितंबर माह में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और तुर्किए के विदेश मंत्री मेवलुत कालुसोगलू के बीच वार्ता हुई थी। उस वक्त ऐसा आभास हुआ था कि कश्मीर को लेकर जो दोनों देशों के बीच मतभेद चल रहे थे उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाएगा, लेकिन स्पष्ट है वैसा नहीं हुआ। वार्ता के बाद भी तुर्किए से आ रहे संकेत बताते हैं कि कश्मीर को लेकर उसकी नीतियों में अब भी पाकिस्तानी मंसूबे जोर मार रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि जिस प्रकार 1980 और 1990 के दशकों में दुबई भारत विरोध का नया गढ़ बनकर उभर रहा था, आज तुर्किए भी उसी राह पर चल रहा है। पिछले कुछ माह में जिस तरह से अफगानिस्तान तथा मध्य एशियाई देशों में तुर्किए ने अपनी गतिविधियों को तेज किया है, उससे संदेह होता है कि वह वहां भारत द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों को चोट पहुंचाना चाहता है। इस तरफ भारत की सुरक्षा एजेंसियों की निगाहें चौकन्नी हो गई हैं।
जैसा पहले बताया, भारत के सामरिक विशेषज्ञों और एजेंसियों को कश्मीर और अफगानिस्तान के संदर्भ में यह पक्के तौर पर पता चला है कि पाकिस्तान अपने ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के साथी मुस्लिम देश तुर्किए के माध्यम से दोनों ही जगह भारत के हितों के विरुद्ध तानाबाना बुनने में लगा हुआ है।
तुर्किए के भारत विरोधी मंसूबे का एक और उदाहरण उज्बेकिस्तान में दिखाई देता है। पिछले दिनों तुर्किए तथा उज्बेकिस्तान के मध्य सैन्य सहयोग के संदर्भ में एक करार हुआ। इस बारे में भी भारत के रणनीति विशेषज्ञ गंभीरता से नजर रख रहे हैं। सब जानते हैं, उज्बेकिस्तान मध्य एशिया में एक महत्वपूर्ण देश है। लेकिन वहां भी संभवत: पाकिस्तान के इशारे पर तुर्किए एक मजबूत सैन्य रिश्ता कायम करने की कोशिश में जुट गया है। भारत को इससे खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आज स्थितियां ऐसी हैं कि वहां भारत का हित भी जुड़ा हुआ है। भारत ने उज्बेकिस्तान और ईरान के साथ मिलकर चाबहार बंदरगाह को विकसित करने तथा उसके माध्यम से मध्य एशिया की राह बनाने के प्रयास तेज किए हैं।
इस संदर्भ में भारत, ईरान और उज्बेकिस्तान के बीच दिसंबर, 2021 में एक अहम बैठक संपन्न हुई थी। परन्तु इधर उज्बेकिस्तान के साथ तुर्किए के नए समझौते के होने से, दोनों देशों के बीच अब सैन्य स्तर पर गोपनीय जानकारियां साझा करना तय है। निश्चित ही भारत के रक्षा विशेषज्ञों को इस बात की फिक्र होनी ही हुई। उनके मन में इसे लेकर संदेह है कि कहीं चाबहार से जुड़ी जानकारियां तुर्किए होते हुए पाकिस्तान तो नहीं पहुंच जाएंगी? अभी गत अक्तूबर माह में एक खबर आई थी कि तुर्किए ने पाकिस्तान में भारत के विरुद्ध साइबर आर्मी का गठन करने में मदद की है। उस देश के आंतरिक मंत्री सुलेमान सोएलु ने खुद एक टेलीविजन कार्यक्रम में इस बात को स्वीकार किया था कि उनके देश ने पाकिस्तान की साइबर आर्मी खड़ी करने में सहयोग किया है।
यही नहीं, तुर्किए की कई अन्य गतिविधियां भी भारत के सामरिक विशेषज्ञों के लिए चिंता का सबब बनी हुई हैं। गुप्तचर एजेंसियों को यह पता है कि इस्तांबुल में मौजूद कुछ कट्टर इस्लामी गुटों के केरल तथा कश्मीर के मजहबी गुटों से तार जुड़े हुए हैं। भारत में कट्टर इस्लाम के प्रसार में तुर्किए की ऐसी एजेंसियों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। भारत ने कूटनीतिक स्तर पर इसे मुद्दे को सबके सामने रखा है।
भारत से वैर भाव रखने वाले कई तालिबानी तत्वों को तुर्किए से कथित सहयोग मिल रहा है। बेशक, भारत का मानना है कि इसमें भी पाकिस्तान का ही हाथ है। तुर्किए के राष्ट्रपति एर्दोगेन कई मौकों पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर का मुद्दा उठा ही चुके हैं। हालांकि भारत ने हर बार हर मंच पर इस पर कड़ी प्रतिक्रिया करके स्थिति स्पष्ट की है। लेकिन तुर्किए के रवैए में कोई खास बदलाव आता नहीं दिखा है।
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