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महान योद्धा राजा विजय सिंह गुर्जर, जिन्होंने अंग्रेजों से लिया था लोहा

संघर्ष की एक महान घटना 1824 में घटित हुई, जिसे कुछ इतिहासकारों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रगामी और पुर्वाभ्यास भी कहा है।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Nov 14, 2022, 04:20 pm IST
in उत्तराखंड
प्रतीकात्मक चित्र

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सन 1757 में प्लासी के युद्व के फलस्वरूप भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ ही भारत में उसका व्यापक स्तर पर विरोध भी प्रारम्भ हो गया और सन 1857 की क्रान्ति तक भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु अनेकों विकट संघर्ष हुए। 10 मई सन 1857 में स्वतंत्रता प्राप्ति को क्रान्ति शुरू हुई थी, जिसको भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और सैनिक विद्रोह का नाम दिया गया और बाद में जन विद्रोह में परिवर्तित हो गया था। इसी प्रकार संघर्ष की एक महान घटना सन 1824 में घटित हुई। कुछ इतिहासकारों ने इन घटनाओं के समय के आधार पर सन 1824 की क्रान्ति को सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का अग्रगामी और पुर्वाभ्यास भी कहा है।

सन 1824 में सम्पूर्ण हरिद्वार क्षेत्र में स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम की ज्वाला अन्य स्थानों की तुलना में अधिक तीव्र थी। वर्तमान हरिद्वार जनपद के रुड़की शहर के पूर्व में लंढौरा नाम का एक कस्बा है, यह कस्बा सन 1947 तक पंवार गुर्जर वंश के राजाओं की राजधानी रहा है। अपने शासन काल के चरमोत्कर्ष में लंढौरा रियासत में 804 गांव थे और यहां के शासकों का प्रभाव समूचे पश्चिम उत्तर प्रदेश में था। हरियाणा के करनाल क्षेत्र और उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भी इस वंश के शासकों का व्यापक प्रभाव था।

सन 1803 में अंग्रेजों ने ग्वालियर के सिंधिया राजा को परास्त कर समस्त उत्तर प्रदेश को उनसे युद्व हर्जाने के रूप में प्राप्त कर लिया था। अब इस क्षेत्र में स्थापित रही पंवार गुर्जर वंश की लंढौरा, नागर गुर्जर वंश की बहसूमा मेरठ, भाटी गुर्जर वंश की दादरी गौतम बुद्व नगर, जाटो की कुचेसर गढ़ क्षेत्र इत्यादि सभी ताकतवर रियासतें अंग्रेजों की आँखों में कांटे की तरह चुभने लगीं। सन 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह गुर्जर की मृत्यु हो गयी। उनके उत्तराधिकारी के प्रश्न पर राज परिवार में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गए। स्थिति का लाभ उठाते हुये अंग्रेजी सरकार ने रियासत को भिन्न दावेदारों में बांट दिया और रियासत के बडे हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया।

लंढौरा रियासत का ही ताल्लुका था कुंजा बहादरपुर, जोकि सहारनपुर रुड़की मार्ग पर भगवानपुर के निकट स्थित है। इस ताल्लुके में कुल 44 गांव थे, सन 1819 में विजय सिंह गुर्जर यहां के ताल्लुकेदार बने। विजय सिंह लंढौरा राज परिवार के निकट संबंधी थे। विजय सिंह के मन में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीतियों के विरूद्व भयंकर आक्रोश था। वह लंढौरा रियासत के विभाजन को कभी भी मन से स्वीकार न कर सके थे। दूसरी ओर इस क्षेत्र में शासन के वित्तीय कुप्रबन्ध और कई वर्षों के अनवरत सूखे ने स्थिति को किसानों के लिए अति विषम बना दिया। बढ़ते राजस्व और अंग्रेजों के अत्याचार ने उन्हें विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया। क्षेत्र के किसान अंग्रेजों की शोषणकारी कठोर राजस्व नीति से त्रस्त थे और संघर्ष करने के लिए तैयार थे। किसानों के बीच में बहुत से क्रान्तिकारी संगठन जन्म ले चुके थे, जो ब्रिटिश शासन के विरूद्व कार्यरत थे। ये संगठन सैन्य पद्वति पर आधारित फौजी दस्तों के समान थे, इनके सदस्य भालों और तलवारों से सुसज्जित रहते थे, तथा आवश्यकता पड़ने पर किसी भी छोटी-मोटी सेना का मुकाबला कर सकते थे।

अत्याचारी विदेशी शासन अपने विरूद्व उठ खड़े होने वाले इन सैनिक ढंग के क्रान्तिकारी संगठनों को अंग्रेज डकैतों का गिरोह कह कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया करते थे, लेकिन अंग्रेजी राज्य में शोषण से त्रस्त जनता का भरपूर समर्थन इन संगठनों केा प्राप्त होता रहा। इन संगठनों में एक क्रान्तिकारी संगठन का प्रमुख नेता कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर था। यह संगठन उस समय देहरादून क्षेत्र में सक्रिय था और यहां उसने अंग्रेजी राज्य की चूले हिला रखी थी। वहीं दूसरे एक और क्रांतिकारी संगठन के प्रमुख कुँवर गुर्जर और भूरे सिंह गुर्जर थे, यह संगठन सहारनपुर क्षेत्र में सक्रिय था और अंग्रेजों के लिए बड़ा सिरदर्द बना हुआ था। सहारनपुर-हरिद्वार-देहरादून क्षेत्र इस प्रकार से बारूद का ढेर बन चुका था, जहां कभी भी ब्रिटिश विरोधी संघर्ष का विस्फोट हो सकता था। कुंजा-बहादरपुर के ताल्लुकेदार विजय सिंह स्थिति पर बड़ी पैनी नजर रखे हुए थे, विजय सिंह ने अपनी तरफ से पहल कर वर्तमान समय के पश्चिम उत्तर प्रदेश के सभी अंग्रेज विरोधी जमीदारों, ताल्लुकेदारों, मुखियाओं, क्रान्तिकारी संगठनों से सम्पर्क स्थापित किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से अंग्रेजों को खदेड़ देने की योजना उनके समक्ष रखी।

विजय सिंह के आह्वान पर किसानों की एक आम सभा भगवानपुर जिला सहारनपुर में बुलायी गयी। सभा में सहारनपुर, हरिद्वार, देहरादून, मुरादाबाद, मेरठ और यमुना पार हरियाणा के किसानों ने भाग लिया। सभा में उपस्थित सभी किसानों ने हर्षोउल्लास से विजय सिंह की क्रान्तिकारी योजना को स्वीकार कर लिया। किसान सभा ने विजय सिंह को भावी मुक्ति संग्राम का नेतृत्व सभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। समाज के मुखियाओं ने विजय सिंह को भावी स्वतन्तत्रा प्राप्ति संग्राम में पूरी सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया। कल्याण सिंह उर्फ कलुआ गुर्जर ने भी विजय सिंह का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। अब विजय सिंह अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के लिए किसी अच्छे अवसर की ताक में थे। सन 1824 में बर्मा के युद्व में अंग्रेजो की हार के समाचार ने विजय सिंह के मन में उत्साह पैदा कर दिया, तभी बैरकपुर में अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजी सरकार के विरूद्व विद्रोह कर दिया। अब समय को अपने अनुकूल समझ विजय सिंह की योजनानुसार क्षेत्रीय किसानों ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम के आरम्भिक दौर में कल्याण सिंह अपने सैन्य दस्ते के साथ शिवालिक की पहाड़ियों में सक्रिय रहा और देहरादून क्षेत्र में उसने अच्छा प्रभाव स्थापित कर लिया था। उस समय नवादा गांव के शेखजमां और सैयाजमां अंग्रेजों के खास मुखबिर थे और क्रान्तिकारियों की गतिविधियों की गुप्त सूचना अंग्रेजों को देते रहते थे। कल्याण सिंह गुर्जर ने नवादा गांव पर आक्रमण कर इन गद्दारों को उचित दण्ड प्रदान किया और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। नवादा ग्राम की इस घटना नें तत्कालीन सहायक मजिस्ट्रेट के लिए चेतावनी का कार्य किया और उसे अंग्रेजी राज्य के विरूद्व एक पूर्ण सशस्त्र क्रान्ति के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। 30 मई सन 1824 को कल्याण सिंह ने रायपुर ग्राम पर आक्रमण कर दिया और रायपुर में अंग्रेज परस्त गद्दारों को गिरफ्तार कर देहरादून ले गया तथा देहरादून के जिला मुख्यालय के निकट उन्हें कड़ी सजा दी। कल्याण सिंह के इस चुनौतीपूर्ण व्यवहार से सहायक मजिस्ट्रेट बुरी तरह बौखला गया और स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए उसने सिरमोर बटालियन बुला ली। कल्याण सिंह के फौजी दस्ते की ताकत सिरमौर बटालियन से काफी कम थी, अतः कल्याण सिंह ने देहरादून क्षेत्र छोड़ दिया और उसके स्थान पर सहारनपुर, ज्वालापुर और करतापुर को अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। कल्याण सिंह नें 7 सितम्बर सन 1824 को करतापुर पुलिस चौकी को नष्ट कर हथियार जब्त कर लिये और पांच दिन पश्चात उसने भगवानपुर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। सहारनपुर के ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट ग्रिन्डल ने घटना की जांच के आदेश कर दिए। जांच में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कुंजा के किले से संचालित होने का तथ्य प्रकाश में आया। अब ग्रिन्डल ने विजय सिंह के नाम सम्मन जारी कर दिया, जिस पर विजय सिंह ने कोई ध्यान नहीं दिया और निर्णायक युद्व की तैयारी आरम्भ कर दी।

1 अक्टूबर सन 1824 को आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित 200 पुलिस रक्षकों की कड़ी सुरक्षा में सरकारी खजाना ज्वालापुर से सहारनपुर जा रहा था। कल्याण सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने काला हाथा नामक स्थान पर पुलिस दल पर हमला कर दिया। युद्व में अंग्रेजी पुलिस बुरी तरह परास्त हुई और खजाना छोड़ कर भाग गई। उक्त घटना से उत्साहित विजय सिंह और कल्याण सिंह ने स्वदेशी राज्य की घोषणा कर दी और नए राज्य को स्थिर करने के लिए अनेक आदेश जनता के बीच जारी किए, रायपुर सहित बहुत से गाँवों ने राजस्व देना स्वीकार कर लिया तो अब चारों ओर आजादी, स्वतंत्रता की हवा तीव्र गति से चलने लगी और अंग्रेजी राज्य इस क्षेत्र से सिमटता सा प्रतीत होने लगा। कल्याण सिंह ने स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम को नवीन शक्ति प्रदान करने के उददेश्य से सहारनपुर जेल में बन्द स्वतन्त्रता सेनानियों को जेल तोड़कर मुक्त करने की योजना बनायी। उसने सहारनपुर शहर पर भी हमला कर उसे अंग्रेजी राज से आजाद कराने का फैसला किया। क्रान्तिकारियों की इस आक्रमणकारी योजना की भनक लगने से अंग्रेजी प्रशासन बेहद चिन्तित हो उठा तो बाहर से भारी सेना बुला ली गयी। कैप्टन यंग को ब्रिटिश सेना की कमान सौपी गयी। अंग्रेजी सेना शीघ्र ही कुंजा के निकट सिकन्दरपुर तक पहुंच गयी। विजय सिंह ने किले के भीतर से और कल्याण सिंह ने किले के बाहर से मोर्चा सम्भाला। कैप्टन यंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना जिसमें मुख्यतः गोरखे सैनिक थे, कुंजा के काफी निकट आ चुकी थी। 3 अक्टूबर को ब्रिटिश सेना ने अचानक हमला कर क्रांतिकारियों को चौका दिया। क्रांतिकारी किसानों और जनता ने किसी तरह स्थिति पर नियन्त्रण कर मोर्चा सम्भाल लिया और जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी, अब भयंकर युद्व छिड़ गया था, किन्तु दुर्भाग्यवंश इस संघर्ष में लड़ने वाले क्रान्तिकारियों का सबसे बहादुर योद्वा कल्याण सिंह अंग्रेजों के पहले ही हमले में मातृभूमि की बलिवेदी पर बलिदान हो गया।

सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुंजा में लड़े जा रहे स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम का समाचार जंगल की आग के समान तीव्र गति से फैल गया, मेरठ की बहसूमा और दादरी रियासत के राजा भी अपनी सेनाओं के साथ गुप्त रूप से कुंजा के लिए कूच कर गये। बागपत और मुजफ्फरनगर एवं आस-पास के किसान भी भारी संख्या में इस स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम में विजय सिंह की मदद के लिये निकल पडे। अंग्रेजों को जब इस हलचल का पता लगा तो उनके पैरों के नीचे की जमीन निकल गयी। उन्होंने बड़ी चालाकी से कल्याण सिंह के मारे जाने का समाचार सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैला दिया और साथ ही कुंजा के किले के पतन और क्रांतिकारियों की हार की झूठी अफवाह भी फैला दी। अंग्रेजों की यह चाल एकदम सफल रही और अफवाहों पर विश्वास कर कुंजा युद्ध में अन्य क्षेत्रों से आने वाले किसान, मज़दूर, जनता, क्रांतिकारी हतोत्साहित हो गये और निराश होकर अपने क्षेत्रों को लौट गए। उत्साहित अंग्रेजों ने तोप से बमबारी प्रारम्भ कर दी, तोप से किले को उड़ाने का प्रयास किया। किले की दीवार कच्ची मिट्टी की बनी थी, जिस पर तोप के गोले विशेष प्रभाव न डाल सकें, परन्तु बमबारी से किले के दरवाजे को तोड़ दिया गया, जिससे अंग्रेजों की गोरखा सेना किले में घुसने में सफल हो गयी। भीषण युद्व हुआ सहायक मजिस्ट्रेट मि. शोर युद्व में बुरी तरह से घायल हो गया, परन्तु विजय अन्ततः अंग्रेजों को ही प्राप्त हुई। विजय सिंह अत्यंत बहादुरी से लड़ते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर बलिदान हो गये।

क्रान्तिकारियों की हार की वजह मुख्य रूप से आधुनिक हथियारों की कमी थी, भारतीय क्रांतिकारी किसान, मज़दूर, आम जनता के नागरिक थे जो स्वतंत्रता की उम्मीद में बिना किसी सैन्य प्रशिक्षण के तलवार, भाले, लाठी, दंड, फावड़े, दांती जैसे परंपरागत हथियारों से लड़े, जबकि ब्रिटिश सेना के पास तत्कालीन समय की आधुनिक 303 बोर रायफल और स्वचालित कारबाइन, तोप एवं प्रशिक्षित सैनिकों कई बटालियन थी। इस पर भी स्वतंत्रता की चाह में भारतीय क्रांतिकारी बड़ी बहादुरी से लड़े और उन्होंने मरते दम तक आततायी अंग्रेज सैनिकों का जम कर मुकाबला किया। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के आंकड़ों के अनुसार कुंजा युद्ध में 152 क्रांतिकारी बलिदान हुए, 139 क्रांतिकारी गम्भीर रूप से घायल हुए और चालीस क्रांतिकारी गिरफ्तार किए गए।

वास्तविकता में युद्ध में हताहत हुए बलिदानी क्रान्तिकारियों की संख्या काफी अधिक थी। असंख्य क्रान्तिकारियों के बलिदान से भी अंग्रेजों का क्रोध शांत नहीं हुआ तो उन्होंने कुंजा किले को नेस्तनाबूद कर दिया, गांव में महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़़े जो भी मिला सब पर भीषण अत्याचार किया गया, खूब मारकाट की, सैकड़ों निरपराध लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश सेना विजय उत्सव मनाती हुई देहरादून पहुंची, वह अपने साथ क्रान्तिकारियों की दो तोपें, हुतात्मा क्रांतिकारी कल्याण सिंह का सिंर ओर विजय सिंह का वक्षस्थल भी ले गए। ये तोपे देहरादून के परेड स्थल पर रख दी गयी, भारतीय नागरिकों को आतंकित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा विजय सिंह का वक्षस्थल और कल्याण सिंह का सिर एक लोहे के पिजरे में रखकर देहरादून जेल के फाटक पर लटका दिया। ग्राम सुनहरा में स्थित एक वट के वृक्ष पर एक ही दिन में लगभग 150 से अधिक क्रान्तिकारियों एवं निरपराध लोगों को सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गयी, इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।

कैप्टन यंग ने कुंजा के युद्व के बाद स्वीकार किया था कि यदि इस स्वतंत्रता प्राप्ति संघर्ष को तीव्र गति से न कुचला होता तो दो दिन में इस युद्व को हजारों अन्य लोगों का समर्थन प्राप्त हो जाता और यह विद्रोह समस्त पश्चिम उत्तर प्रदेश में फैल जाता।

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