कन्नड़ फिल्म कांतारा वनवासियों को गैर-हिंदू साबित करने और उन्हें भारतीयता के विरुद्ध भड़काने के वामपंथी षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। यह फिल्म जल-जंगल-जमीन के संघर्ष को देखने के सनातनी दृष्टिकोण को स्थापित करती है। यह राज्य और वनवासियों के बीच संघर्ष की वामपंथी व्याख्या के विपरीत सनातनी संस्कृति के सहअस्तित्व को उकेरती है
कुछ साल से देश में एक चलन-सा चल पड़ा है कि कैसे हिन्दू संस्कृति के घोषित आयामों को गैर-हिन्दू साबित किया जाए। हाल ही में दीपावली और छठ जैसे पर्वों तक को गैर-कर्मकांड वाले गैर-हिन्दू पर्व बताने का प्रयास किया गया। इससे पहले चोल साम्राज्य पर आई मणिरत्नम की फिल्म पीएस 1 के बाद महान राज्य चोल को गैर-हिन्दू बताने का विवाद हुआ।
इस बहस के मूल में वह वामपंथी विचार है, जिसने 70 साल में धीरे-धीरे यह बात नीचे तक रोप दी कि वन में रहने वाले, स्थानीय देवों को पूजने वाले, प्रकृति के उपासक ‘वनवासी हिन्दू नहीं हैं।’ वामपंथियों ने छद्म तरीके से पहले भोले-भाले वनवासी समाज के एक बड़े वर्ग के अंदर से हिन्दू भाव को समाप्त किया, फिर राज्य को खलनायक साबित करके, उनमें से एक बड़े वर्ग को हथियार देकर नक्सल और माओवाद की तरफ खींचा।
वामपंथी षड्यंत्र पर प्रहार
हाल में आई कन्नड़ फिल्म कांतारा ने 70 साल से चले आ रहे वामपंथियों के इस सफल प्रयोग की जड़ों पर गहरा वार किया है। यह फिल्म न सिर्फ वनवासी समाज को गैर-हिन्दू बताने के षड्यंत्र पर गहरी चोट करती है, बल्कि ‘राज्य तुम्हारा दुश्मन है’ वाले दुष्प्रचार को भी ध्वस्त करती है। पिछले 70 साल में जल-जंगल-जमीन पर जितनी फिल्में बनी हैं, उन सब में सरकार, पुलिस और उद्योगों को खलनायक दिखाने का वामपंथी विचार स्थायी रहा है।
1953 में आई फिल्म दो बीघा जमीन में न्यायालय में अपनी जमीन पर अधिकार खोते शम्भू महतो के रूप में बलराज साहनी से लेकर आज तक जो भी फिल्म वनवासी अधिकारों, खनिज, कोयले और जमीन-जंगल पर बनी है, उसमें राज्य को हमेशा शोषक के रूप में दिखाकर, जनता को राज्य के खिलाफ उकसा कर नक्सली आंदोलन खड़ा करने वालों के प्रति सहानुभूति पैदा करने का काम किया गया है। कांतारा 70 साल से चले आ रहे इस सरकार विरोधी विमर्श को देखने का नया नजरिया देती है। ‘राज्य खलनायक है’ की वामपंथी व्याख्या के बाहर जल-जंगल-जमीन के संघर्ष को देखने का एक सनातनी दृष्टिकोण जोड़ती है और सारी कहानी ही बदल जाती है।
जैसी कि पुरानी कथा है, एक बार राक्षस भूदेवी पृथ्वी को समुद्र में छिपा देते हैं। भगवान विष्णु वराह अवतार में पृथ्वी को वापस लाते हैं और तब सृष्टि का निर्माण करने के लिए ब्रह्मा जी मनु और शतरूपा को जन्म देते हैं। फिल्म कांतारा की मूल कहानी इस कथा के आसपास ही है। इसमें वन में रहने वाले साधारण लोग हैं जो सरकार के हिसाब से आरक्षित वन क्षेत्र पर कब्जा किए बैठे हैं। इस वजह से उनकी सरकार से टकराव की स्थिति बन गई है। तीसरा पक्ष इस स्थिति का लाभ उठाकर गांव वालों को सरकार के खिलाफ भड़का कर पूरी जमीन पर कब्जा जमा लेना चाहता है।
इस भूमि पर वनवासियों के अधिकारों की रक्षा स्थानीय देव पंजुरली कर रहे हैं और धोखा देने पर दंड देने के लिए उनके साथी, वराह भगवान का ही एक रूप, गुलिगा दैव भी हैं। फिल्म कर्नाटक की एक स्थानीय संस्कृति को दर्शाती है जिसमें भूता कोला नामक नृत्य के माध्यम से देव नर्तक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसी के माध्यम से अपनी बात रखते हैं। फिल्म का एक बड़ा हिस्सा राज्य बनाम वनवासी विमर्श पर ही चलता है, लेकिन अंत होते-होते कहानी बिल्कुल बदल जाती है। फिल्म के अंत में वराह रूपी गुलिगा दैव वनवासियों की भूमि कब्जाने को आतुर असुर रूपी जमींदार को मारकर वनवासियों और राज्य का हाथ मिलवाकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
यह एक अद्भुत दृश्य है। 100 साल के वामपंथी दुष्प्रचार पर अकेला यह एक दृश्य भारी है। एक तरफ संरक्षित वन, पुलिस और सरकारी अधिकारी हैं यानी राज्य है, दूसरी तरफ वन में रहने वाले साधारण भारतीय हैं और दोनों को हाथ मिलवाकर आशीर्वाद देते देव हैं। ये देव कौन हैं? ये देव भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि हैं जो प्रकृति, वन या भूमि के साथ संघर्ष करना नहीं, उनके साथ सहचर होकर जीना सिखाती है।
भारत की चुनी हुई सरकार वामपंथी व्याख्या की तरह खलनायक नहीं है, जिसके खिलाफ बंदूक उठाकर खूनी क्रांति की जाए, बल्कि हिन्दू संस्कृति की पावन गोद में भारत में प्रकृति संरक्षण करते हुए वनवासी समाज और राज्य, दोनों बिना संघर्ष के सद्भावपूर्वक रह सकते हैं, वह भी भारतीय संस्कृति के रूप में मौजूद देव के आशीर्वाद के साथ। इसी सच को यह फिल्म चित्रित करती है।
प्रकृति से जुड़ाव
यह फिल्म स्थानीय देव को मानने वाले कन्नड़ वनवासियों को गैर-हिन्दू की नजर से नहीं देखती। फिल्म के नायक का नाम शिवा है और जहां वह रहता है, उस जगह का नाम कैलाश बताया गया है। इसके अतिरिक्त फिल्म में दर्जनों जगह प्रचलित हिन्दू मान्यताओं का प्रयोग किया गया है। मूर्ति पूजा, कर्मकांड या भारतीय हिन्दू संस्कृति से जुड़े हर चिन्ह को अंधविश्वास, पाखंड और हीनता के नजरिए से देखने के 70 साल पुराने चश्मे को भी यह फिल्म उतार फेंकती है।
फिल्म में कहीं भी भूता कोला नृत्य या इससे जुड़ी मान्यताओं पर सफाई देने या उसे जबरदस्ती वैज्ञानिक साबित करने की कोई कोशिश नहीं की गई, बल्कि प्रकृति से जुड़ने और अपने देव पर अटल आस्था रखने के भाव मात्र को ही प्राथमिकता दी गई है। इस फिल्म में स्थानीय कन्नड़ संस्कृति को हिन्दू दृष्टिकोण से देखने के कारण देश के हिन्दू विरोधी वर्ग ने इस फिल्म पर स्थानीय वनवासी संस्कृति को ब्राह्मणवाद के साथ जोड़ने का आरोप लगाया है। लेकिन इसे आप वनवासी संस्कृति कहिए, ब्राह्मणवादी संस्कृति कहिए, हिन्दू संस्कृति कहिए या भारतीय संस्कृति, अर्थ एक ही है और वह है सह अस्तित्व का भाव, सहचर होने का या समरसता का भाव जिसका लक्ष्य न खूनी क्रांति है, न ही एक किताब के नाम पर जिहाद।
जिस प्रकार कश्मीर के इस्लामिक जिहाद को कश्मीरी मुस्लिमों को ही ‘पीड़ित’ बताकर न्यायोचित ठहराने के सारे वामपंथी षड्यंत्र को फिल्म कश्मीर फाइल में ब्रह्मानंद बने मिथुन चक्रवर्ती का अकेला संवाद, ‘कश्मीरी हिन्दू भी तो पीड़ित थे लेकिन कश्मीरी हिन्दुओं ने तो कभी हथियार नहीं उठाए’ ध्वस्त कर देता है।
इसी प्रकार वनवासियों को गैर-हिन्दू साबित करने और राज्य को खलनायक बनाकर 70 साल से चले आ रहे वामपंथी विचार को फिल्म कांतारा गर्व से अपनी संस्कृति को आत्मसात करने के संदेश के साथ ध्वस्त करते हुए जनता को मंत्रमुग्ध कर देती है। ये दोनों फिल्में बिना बड़े स्टार और बिना भारी बजट के, रिकॉर्ड कमाई करने वाली फिल्में साबित हुई हैं। यह चलन बताता है कि देश और जनता का व्यवहार और विचार अब किस दिशा में जा रहा है।
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