न भूलने वाला पल
मुल्तान से बिना छत की मालगाड़ी मिली। इसमें जानवरों से लोग भरे हुए थे। हमारी भी वही स्थिति थी। एक के ऊपर एक लोग बैठे हुए थे।
ललिता नागपाल
काले मंडी, मुल्तान, पाकिस्तान
देश विभाजन के समय मेरी उम्र लगभग 7 साल की थी। भरापूरा परिवार था। माता-पिता, भाई, बहन थे। उस समय मैंने स्कूल जाना शुरू कर दिया था। स्कूल में हवन-पूजन भी होता था। पर इसके बारे में तब ज्यादा कुछ नहीं पता था। सभी त्योहार भी बड़े धूम-धाम से मनाए जाते थे। उन दिनों पाकिस्तान में विभाजन का शोरगुल बड़े जोर से हो रहा था। धीरे-धीरे माहौल बिगड़ने लगा। लड़ाई-झगड़े की घटनाएं आए दिन पता चलती थीं।
बस एक ही बात सुनने को मिलती थी कि मुसलमानों ने हिन्दुओं को मार डाला, उनकी दुकान लूट ली, बहन-बेटियों पर अत्याचार किया। यानी दिन-प्रतिदिन हालात खराब ही होते जा रहे थे। यूं कहें कि अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं था। क्योंकि इलाके के लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे। जब मार-काट का शोर होता था तो हम लोग छत पर जाकर देखते थे। डर के चलते रात में लोग पहरा देते थे। हिन्दू समाज के लोग घर की छतों पर ईंट, पत्थर और कांच की बोतलें रखा करते थे, ताकि अराजक तत्वों से सामना किया जा सके।
हमारे साथ अपराधी जैसा बर्ताव किया जा रहा था। खूब तलाशी ली जा रही थी। बाद में पता चला हमारी फ्लाइट रद्द हो गई है। अब घर या किसी शिविर में वापस जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं थी। एयरपोर्ट से जब हम एक तांगे पर घर वापसी के लिए सवार हुए ही थे कि वहां पर मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर लिया और बंदूक लेकर मारने के लिए खड़े हो गए।
आसपास के मुसलमान मिलते थे तो परिवार के लोगों से कहते थे कि यहां से जितनी जल्दी हो सके निकल जाओ नहीं तो मार डाले जाओगे। ऐसे में वहां कैसे कोई रह पाता। हमारे घर के भी बड़े-बुजुर्गों ने तय किया कि अब यहां पर रहना ठीक नहीं है, तो वहां से मुल्तान एयरपोर्ट किसी तरह पहुंचे। यहां हमारे साथ अपराधी जैसा बर्ताव किया जा रहा था। खूब तलाशी ली जा रही थी। बाद में पता चला हमारी फ्लाइट रद्द हो गई है। अब घर या किसी शिविर में वापस जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं थी। एयरपोर्ट से जब हम एक तांगे पर घर वापसी के लिए सवार हुए ही थे कि वहां पर मुसलमानों ने चारों तरफ से घेर लिया और बंदूक लेकर मारने के लिए खड़े हो गए।
खैर कुछ देर बाद मुल्तान सेवा समिति के कार्यकर्ताओं ने हमें बचा लिया। फिर कुछ दिन बाद सारे परिवार के दोबारा घर से निकल पड़े। मुल्तान से बिना छत की मालगाड़ी मिली। इसमें जानवरों की तरह लोग भरे हुए थे। हमारी भी वही स्थिति थी। एक के ऊपर एक लोग बैठे हुए थे। किसी तरह हम लोग दिल्ली आ पाए और चांदनी चौक में रहे। हमारे पिताजी की प्रिंटिंग प्रेस थी। घर छोड़ते समय पिताजी को कभी यह नहीं लगा कि हम यहां पर दोबारा नहीं आ पाएंगे। लेकिन यह सिर्फ एक सपना बनकर ही रह गया। दिल्ली आने के बाद जीवन फिर धीरे-धीरे बढ़ता रहा। लेकिन विभाजन की पीड़ा आज भी बनी हुई है।
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