-नरेंद्र सहगल
भारतीय इतिहास इस सच्चाई का साक्षी है कि जब भी विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारत पर आक्रमण करके हमारे सनातन जीवन मूल्यों को समाप्त करने का प्रयास किया गया, हमारे आध्यात्मिक महापुरुषों ने विधर्मी हमलावरों के अत्याचारों का सामना किया और समाज को जगाकर उसमें एकात्मता स्थापित करने के अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति की। श्रीगुरु नानकदेव से दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह तक 10 गुरुओं की परंपरा भारत के इसी वीरव्रति इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है।
मुसलमानों की राजसत्ता के कालखंड में भी महान संत एवं संन्यासी उत्पन्न हुए। चैतन्य, तुलसीदास, सूरदास, ज्ञानेश्वर, रामानंद, तुकाराम, रामानुज, नानक तथा इसी प्रकार के अनेक संत हुए, जिन्होंने देश को धार्मिक परंपराओं के साथ संगठित किया। लोगों में अपने देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा एवं आस्था का जागरण हुआ। फलस्वरूप समाज ने अपने को छत्रपति शिवाजी के रूप में प्रकट किया। इस सांस्कृतिक जागरण का ही परिणाम था नवीन क्षात्रधर्म।
इसी तरह जब उत्तर भारत में विदेशी शासकों के जुल्मों के नीचे समाज रौंदा जा रहा था। पंजाब आक्रान्ताओं से बार-बार पददलित हो रहा था। प्रत्येक आक्रमण के समय पंजाब बुरी तरह से झुलस जाता था। परंतु पंजाब में फिर एक बार संत शक्ति ने अपने आपको श्रीगुरु नानकदेव के रूप में प्रकट कर दिया।
हमारे भारत की परंपरा रही है कि पहले संत-महात्माओं अर्थात राजनीति से अक्षिप्त सामाजिक शक्ति के द्वारा सामाजिक संगठन का कार्य और फिर इस संगठित शक्ति के द्वारा क्षात्रधर्म का जागरण। आधुनिक इतिहासकार भाई धर्मवीर अपनी पुस्तक ‘पंजाब का इतिहास’ में लिखते हैं, ”पंजाब में हिन्दू चिरकालिक मुस्लिम शासन के कारण ऐसे दब गए थे कि प्रतिरोध शक्ति उनसे निकल गई थी। विदेशी अत्याचारों के कारण पंजाब में मेहनत मजदूरी करने वाले गरीब लोग मुसलमान बन चुके थे। हिंदुओं के मंदिर तोड़ दिए गए थे। पाठशालाओं और विद्यापीठों के स्थान में मस्जिद और मकबरे बना दिए गए थे। हिंदू जनसाधारण में धर्म का प्रायः लोप हो चुका था। धर्म का स्थान मिथ्याचार ने ले लिया था।’’
उन दिनों पंजाब में अज्ञानता और अंधकार का बोलबाला था। इस माहौल का परिणाम यह हुआ कि हिंदू समाज में जाति-बिरादरी ने और भी ज्यादा खतरनाक रूप ले लिया। इस वातावरण में श्रीगुरु नानकदेव ने हिंदुओं को आडंबर एवं मिथ्याचार से निकालकर परमेश्वर की भक्ति और शक्ति की आराधना की ओर ले जाने का अभियान छेड़ दिया। श्रीगुरु नानकदेव ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि राजनीतिक अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई जाए।
अतः इसी उद्देश्य के लिए श्रीगुरु नानकदेव जी ने भक्ति आंदोलन को प्रारंभ किया। इस महापुरुष तथा इनके द्वारा प्रस्थापित मार्ग के अनुयायियों के बलिदानों के परिणामस्वरूप हमारे समाज के क्षात्रधर्म ने अपने को श्रीगुरु गोविंदसिंह जी के रूप में प्रकट कर दिया। इनके द्वारा की गई खालसा पंथ की सिरजना क्षात्रधर्म का एक सशक्त विधिवत स्वरूप थी। इस प्रकार एक बार पुनः धर्म को केंद्र मानकर राष्ट्रीय एकीकरण का महान कार्य संपन्न हुआ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी से लेकर श्रीगुरु गोविंदसिंह जी तक हमारे राष्ट्र का इतिहास इस सत्य को स्पष्ट करता है कि भक्ति आंदोलन के माध्यम से क्षात्र शक्ति का उदय, यह भारत एवं भारतीयता को जिंदा रऽने की परंपरा सदैव रही है।
खालसा पंथ का आधार
किरत करो, वंड छको ते नाम जपोय् अर्थात् परिश्रम (कर्म) करते हुए बांटकर खाओ और परमपिता परमात्मा का स्मरण करो। सिख समाज के इस सिद्धांत अथवा विचारधारा के प्रवर्तक श्रीगुरु नानकदेव जी महाराज ने जहां एक ओर सामाजिक समरसता, सामाजिक सौहार्द और सृष्टिनियंता अकालपुरख के चिंतन/मनन को अपने कर्मक्षेत्र का आधार बनाया, वहीं उनके जेहन में विधर्मी/विदेशी हमलावरों द्वारा भारतीय समाज (विशेषतया हिन्दू समाज) पर किए जा रहे भीषण अत्याचारों के प्रतिकार की योजना भी साकार रूप ले रही थी।
भारत की धरती पर उपजे सांस्कृतिक एवं कर्म-चिंतन ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ के ध्वजवाहक श्रीगुरु नानकदेव द्वारा स्थापित दस गुरुओं की वीरव्रति परंपरा ही भारत/धर्मरक्षक खालसा पंथ की प्रेरणा एवं आधार अथवा शिलान्यास थी। दसों सिख गुरुओं के त्याग, तपस्या और अतुलनीय बलिदानों का प्रकट स्वरूप है ‘खालसा’। इसीलिए सभी गुरुओं को प्रथम नानक, द्वितीय नानक, तृतीय नानक, चतुर्थ नानक, पंचम नानक, छठे नानक, सप्तम नानक, अष्टम नानक, नवम नानक और दशम नानक (दशमेश पिता) कह कर सम्मान दिया जाता है।
श्रीगुरु नानकदेव जी का कर्म-क्षेत्र किसी एक बंद कमरे, गुरुकुल अथवा आश्रम तक सीमित नहीं था। इस देव-पुरुष (अवतारी) ने परिवारों, आश्रमों तथा गुरुकुलों में कैद भारतीय चिंतनधारा को स्वतंत्र करके सनातन भारतवर्ष (अखंड भारत) के प्रत्येक कोने तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। श्रीगुरु की विभिन्न यात्राएं उनके विस्तृत कर्म-क्षेत्र की साक्षी हैं। संभवतया आदि शंकराचार्य जी के बाद नानक जी पहले ऐसे संत थे, जिन्होंने समस्त भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए अखंड प्रवास करके दूर-दराज तक बसे भारतवासियों के कष्टों को निकट से देखा।
श्रीगुरु नानकदेव जी की इन विस्तृत यात्रओं में उनके अभिन्न भक्त तथा सहयोगी भाई मरदाना उनके साथ परछाई की तरह रहे। इनकी पहली आध्यात्मिक यात्रा (सन् 1497 से 1509 तक) पूर्वी भारत की ओर थी। इस यात्रा में कुरुक्षेत्र, दिल्ली, मथुरा, आगरा, वृंदावन, गया, ढाका एवं कामरूप (असम) आदि स्थानों पर पड़ाव डाले गए। गुरु महाराज की दूसरी यात्रा (सन् 1510 से 1540 तक) दक्षिण भारत की थी। इस यात्रा के समय रामेश्वर एवं श्रीलंका तक उनका आध्यात्मिक प्रकाश फैला।
अपनी तृतीय यात्रा में श्री गुरु महाराज कश्मीर, मेरु पर्वत, अफगानिस्तान, तिब्बत इत्यादि स्थानों पर ईश्वरीय उपदेश देने पहुंचे। परमपिता परमात्मा के इस मानवी संदेश वाहक ने अपनी चौथी यात्रा में मक्का, मदीना, बगदाद तक संसारी लोगों को समरसता का पाठ पढ़ाया।
श्रीगुरु नानक का ध्यान अब विदेशी आक्रान्ताओं के पांव तले कुचले जा रहे असंख्य भारतीयों की ओर गया। विधर्मी बाबर के हमलों, अत्याचारों और माताओं-बहनों के हो रहे शील भंग को देखकर वे कराह उठे। उन्होंने बाबर की सेना को ‘पाप की बारात’ की संज्ञा देते हुए उसके द्वारा किए जा रहे जुल्मों का मार्मिक वर्णन अपनी ‘बाबर वाणी’ रचना में किया है।
श्रीगुरु नानकदेव युगपुरुष, आध्यात्मिक संत, मानवतावादी कवि, अद्भुत समाज सुधारक एवं गहन भविष्य दृष्टा थे। उन्होंने भारत पर होने वाले विदेशी हमलों की कल्पना कर ली थी। उन्होंने अपनी रचनाओं ‘आसा दी वार’ एवं ‘चौथा तिलंग राग’ में देश की दशा पर चिंता व्यक्त की थी। इसी चिंता के साथ उन्होंने समस्त भारतवासियों को चेतावनी देते हुए एकजुट होकर प्रतिकार करने का आह्वान भी किया था।
जब बाबर अफगानिस्तान को पार करता हुआ अपनी सेना के साथ पंजाब की ओर बढ़ रहा था तो श्रीगुरु नानकदेव ने भविष्य में आने वाले संकट का संकेत देते हुए बाबर को आक्रमणकारी घोषित कर दिया था। श्रीगुरु महाराज जी के अनुसार, ”इन विधर्मी हमलावरों को धर्म एवं सत्य की कोई पहचान नहीं है और न ही अपने अमानवीय अत्याचारों पर कोई पश्चाताप अथवा लज्जा है।”
श्रीगुरु नानकदेव की इस पीड़ा में भविष्य में होने वाले हमलों और उनके प्रतिकार के लिए समाज की तैयारी के संकेत भी दे दिए थे। भारत पर मुगलों की राजसत्ता, उनके द्वारा हिंदुओं का उत्पीड़न एवं धर्म परिवर्तन की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। मुगलों का पतन कैसे होगा, कौन करेगा तथा समाज में क्षात्र धर्म का जागरण कैसे होगा इत्यादि पूरा खाका उनकी रचनाओं में मिलता है।
श्रीगुरु नानक ने अपनी वाणी में भविष्य में होने वाले संघर्षों का संकेत देते हुए कहा था, ”कोई मर्द का चेला (वीरपुरुष) जन्म लेगा, जो इन अत्याचारों का सामना करेगा।” ऐसा हुआ भी। मुगलों के अमानवीय कृत्यों को समाप्त करने के उद्देश्य से दस गुरु परंपरा का श्रीगणेश हुआ और इसी में से ‘खालसा पंथ’ का जन्म हुआ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं)
टिप्पणियाँ