चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तीसरे कार्यकाल की पुष्टि के लिए हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन से निकले संकेत न चीनी जनता के लिए, न दुनिया के लिए और न ही अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे दिख रहे हैं। यही कारण है कि जिनपिंग के राज्याभिषेक के जश्न के दौरान ही बगावत के सुर भी तेज हो गए
बीजिंग में 16 से 22 अक्तूबर तक चले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दो कार्यकाल की परंपरा को खत्म करते हुए अपने हाथों से अपने लिए तीसरे कार्यकाल पर मुहर लगवा ली। साथ ही सर्वशक्तिमान पोलित ब्यूरो में उन्होंने उदारवादी चेहरों को दरकिनार करते हुए अपने वफादारों को ही तरजीह दी है। जिनपिंग के पास अब उतनी ही शक्तियां हैं, जितनी माओ के पास थीं। जिनपिंग, जिन्हें पहले ही ‘चेयरमैन आफ एवरीथिंग’ कहा जाता था, अब चीन के राष्ट्रपति, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और चीन की जनमुक्ति सेना (पीएलए) के प्रमुख हैं। सभी विरोधी गुट दरकिनार किए जा चुके हैं। जिनपिंग अब चीन के नए सम्राट हैं और चाहें तो आजीवन पद पर बने रह सकते हैं।
बहरहाल हर पांच साल बाद होने वाली पार्टी कांग्रेस को इस बार तीन चीजों के लिए याद रखा जाएगा। पहला, भरी सभा से पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ को अपमानित कर बाहर निकालना, दूसरा बीजिंग के एक पुल पर लगे शी विरोधी पोस्टर के बाद विरोध की आंच का कई शहरों में फैल जाना और तीसरा, इन सबके बीच जिनपिंग द्वारा सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करना, जो मुख्य ध्येय था।
कुओमिंतांग पार्टी के संस्थापक और 1911 में जिनहाई क्रांति में क्विंग राजवंश को सत्ता से उखाड़कर चीन को गणतंत्र घोषित करने वाले सुन यात सेन ने 1925 में अपनी मृत्यु से चंद दिनों पहले कहा था कि यह देखना दुखद है कि उनके साथी क्रांतिकारी आज खुद ही सम्राट बनने का सपना देखने लगे हैं। उन्होंने कहा कि देश जब-जब अशांति और अराजकता के दौर से गुजरा है, उसके पीछे एकमात्र कारण सिंहासन के लिए संघर्ष था। सुन ने आशंका जताई कि ये साम्राज्यवादी सपने एक बार फिर चीन के विध्वंस का कारण बनेंगे। उनकी आशंकाएं निर्मूल नहीं थीं।
आखिर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वेसर्वा माओ त्से तुंग ने कुओमिंतांग को चीन से खदेड़ दिया। माओ हालांकि कम्युनिस्ट थे लेकिन शासन उन्होंने सम्राट की ही तरह किया। अपने तुगलकी फैसलों और विरोधियों को ठिकाने लगाने के प्रयासों में ग्रेट लीप फारवर्ड और सांस्कृतिक क्रांति ने चीन को बरबादी के कगार पर पहुंचा दिया। करोड़ों लोग भुखमरी और रेड गार्डों की क्रूरता के शिकार होकर मारे गए। दोबारा ऐसा न हो, इसीलिए बाद में देंग श्याओ पिंग के समय में चीनी राष्ट्रपतियों के लिए तीसरे कार्यकाल पर संवैधानिक पाबंदी लगाई गई और सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया गया। इस संवैधानिक पाबंदी के खत्म होने से जिनपिंग का चीन अब कई मामलों में माओ के चीन के दौर में पहुंच गया है। इससे यह भी तय हो गया कि जिनपिंग के नेतृत्व में विदेशी मोर्चे पर चीन की आक्रामकता जारी रहेगी तो घरेलू मोर्चे पर दमन और अर्थव्यवस्था में सरकारी दखल और बढ़ेगा।
तीसरे कार्यकाल पर संवैधानिक पाबंदी के खत्म
होने से जिनपिंग का चीन अब कई मामलों में
माओ के चीन के दौर में पहुंच गया है। यह
भी तय हो गया कि जिनपिंग के नेतृत्व में
विदेशी मोर्चे पर चीन की आक्रामकता
जारी रहेगी तो घरेलू मोर्चे पर दमन
और अर्थव्यवस्था में सरकारी
दखल और बढ़ेगा।
कभी निरापद माने गए जिनपिंग के बारे में किसी को अंदाज तक नहीं था कि वर्चस्ववादी राजनीति और विरोधियों को ठिकाने लगाने की कला में वे माओ की तरह माहिर निकलेंगे। पूर्ण वर्चस्व से कुछ भी कम पर नहीं मानने वाले जिनपिंग के इरादे पार्टी कांग्रेस में ही स्पष्ट दिख गए जब पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ को कैमरों के सामने बाहर करवा दिया गया। इस अधिवेशन की पटकथा इस तरह से लिखी जाती है कि इसमें कुछ अप्रत्याशित हो पाना असंभव है। साफ है कि जो भी हुआ, वह जिनपिंग के इशारे पर हुआ। जिंताओ बहुत पहले से कोई सत्ता केंद्र नहीं रह गए थे। इन दस वर्षों में जिनपिंग ने उनके गुट कम्युनिस्ट यूथ लीग या ‘तुआनपाई’ को तहस-नहस कर दिया था। तो फिर क्या कारण था जिंताओ को बाहर करने का?
जिनपिंग को बखूबी मालूम है कि उनके दस साल के कार्यकाल की तुलना हू जिंताओ के दस साल से होना स्वाभाविक है। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर जिंताओ की उपलब्धियों के आगे जिनपिंग कहीं नहीं टिकते। जिंताओ को जिनपिंग का प्रशंसक भी नहीं माना जाता। कई बार जिंताओ के बयान जिनपिंग के लिए परेशानी खड़ी कर चुके हैं। जिनपिंग को शायद यह आशंका थी कि मतदान के आखिरी दौर में जिंताओ या तो अनुपस्थित रहेंगे या उनके खिलाफ वोट दे सकते हैं और ऐसे में वे चुनाव को सर्वसम्मत फैसले के तौर पर पेश नहीं कर पाएंगे। लेकिन बहुत से जानकारों का मानना है कि असंतुष्ट और किनारे कर दिए गए वरिष्ठ नेता जिंताओ के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो सकते हैं। जिनपिंग ने जान-बूझकर सरेआम कैमरों के सामने इसीलिए जिंताओ को अपमानित किया ताकि वे यह संदेश दे सकें कि कोई भी उनकी सत्ता को चुनौती देने का साहस न कर सके। यह एक भयभीत तानाशाह का कदम था।
बगावत के सुर
हालांकि संकेत साफ हैं कि जनता को जिनपिंग और उनकी कोटरी का दमनकारी शासन रास नहीं आ रहा। यही कारण है कि तीसरे कार्यकाल के लिए जिनपिंग के राज्याभिषेक के जश्न के दौरान ही बगावत के सुर भी तेज हो गए। पार्टी कांग्रेस शुरू होते ही किसी ने चीन के एक व्यस्त पुल पर बैनर टांग दिया जिसमें जिनपिंग को राष्ट्र का गद्दार बताते हुए लोगों से उनको उखाड़ फेंकने का आह्वान किया गया। सुरक्षाकर्मियों ने तुरंत इस बैनर को उतार लिया और बीजिंग के चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी और कम्युनिस्ट वालंटियर तैनात कर दिए। बैनर टांगने वाले ‘ब्रिज मैन’ को अभी तक पकड़ा नहीं जा सका है लेकिन विरोध कई शहरों तक पहुंच गया और तमाम जगह इस तरह के पोस्टर-बैनर दिखे।
चीन की सुरक्षा एजेंसियों ने सतर्कता बढ़ाई तो चीनी युवा विरोध जताने के नए-नए तरीकों का अविष्कार करने में जुट गए। वे किसी पार्किंग में गाड़ियों पर तो कहीं खाली दीवारों पर जिनपिंग विरोधी नारों के स्टीकर चिपका कर अदृश्य हो जा रहे हैं। लेकिन जिनपिंग के विरोध के लिए सबसे रचनात्मक उपयोग सार्वजनिक शौचालयों का हो रहा है क्योंकि यही वह एकमात्र जगह बची है जहां सर्वसत्तावादी, दमनकारी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्विलांस कैमरे नहीं पहुंचे हैं। शौचालयों की दीवारों का जिस तरह से जिनपिंग के विरोध के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे देखकर कुछ लोग इसे ‘शौचालय क्रांति’ कहने लगे हैं। यह कहना मुश्किल है कि यह विरोध कितना आगे जाएगा या क्या रूप लेगा। लेकिन यह तय है कि चीन में 1989 में थ्येनमन छात्र प्रदर्शन के बाद पहली बार इस तरह असंतोष के संकेत दिख रहे हैं।
जानकारों का मानना है कि असंतुष्ट और
किनारे कर दिए गए वरिष्ठ नेता जिंताओ
के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो सकते हैं। जिनपिंग
ने जान-बूझकर सरेआम कैमरों के
सामने इसीलिए जिंताओ को
अपमानित किया ताकि वे
यह संदेश दे सकें कि कोई
भी उनकी सत्ता को चुनौती
देने का साहस न कर सके।
यह एक भयभीत तानाशाह
का कदम था।
बहरहाल, जिनपिंग पर इस विरोध का खास असर नहीं पड़ने वाला है और चीनी जनता को जीरो कोविड नीति से छुटकारा नहीं मिलने वाला है। सम्राट को खुश करने की होड़ में उल्टे अब इस नीति को और सख्ती से लागू किया जा रहा है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार चीन में इस समय भी 152 शहरों में पूर्ण या आंशिक लाकडाउन लगा हुआ है जिससे लगभग 28 करोड़ लोग प्रभावित हैं। चीनी अधिकारी अब पूर्णबंदी कहने के बजाय तमाम दूसरे नामों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
स्पष्ट है कि जिनपिंग का तीसरा कार्यकाल न चीनी जनता के लिए, न दुनिया के लिए और न अर्थव्यवस्था के लिए शुभ रहने वाला है। तीसरे कार्यकाल की पुष्टि होने के अगले दिन से ही चीनी बाजार धड़ाम हो गए। सशंकित विदेशी निवेशक अब चीन से हाथ खींच रहे हैं। पार्टी कांग्रेस में गलवान घटना के वीडियो दिखाने, रणनीतिक प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के आह्वान और ताइवान के खिलाफ बल प्रयोग की सख्त चेतावनी से स्पष्ट है कि दुनिया में शांति व समृद्धि को खतरा है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
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