‘रामायण’ के सृजेता महर्षि वाल्मीकि को देवभाषा संस्कृत का पितामह माना जाता है। महर्षि वाल्मीकि के जीवन में घटित एक घटना मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जीवनगाथा के लेखन का आधार मानी जाती है। कथानक है कि एक दिन वह तमसा नदी पर स्नान करने के लिए जा रहे थे तभी उनकी दृष्टि वहां प्रेम निमग्न क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े पर पड़ी। तभी एक व्याध्र ने अपने बाण से नर क्रौंच को मार दिया और साथी की मृत्यु से आहत मादा क्रौंच ने भी करुण-क्रंदन करते हुए कुछ ही पल में अपने प्राण त्याग दिये। यह करुण दृश्य देख कर कर महर्षि वाल्मीकि का हृदय द्रवित हो उठा और पीड़ा से उनके मुख से सहज ही यह श्लोक निकला – मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥ अर्थात्– अरे बहेलिये (निषाद), जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी। तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला।
महर्षि आश्रम लौटे तो सोचने लगे कि क्यों उनके मुख से बहेलिए के प्रति ऐसे शाप-वचन निकले। इस पूरी घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज से किया। उस दौरान उनके मुख से अनायास जो ‘श्लोक’ निकला था उसमें आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल बत्तीस अक्षर थे। इस ‘श्लोक’ को उन्होंने अनुष्टुप छंद निबद्ध नाम दिया। तभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिये और देवर्षि नारद द्वारा उन्हें सुनायी गयी रामकथा का स्मरण कराकर महर्षि को प्रेरित किया कि वे पुरुषोत्तम राम की कथा को देवभाषा में काव्यबद्ध करें। रामायण के इन दो श्लोकों में इस प्रेरणा का उल्लेख है-
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।
रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ।।
ऋषि-सत्तम, त्वम् रामस्य कृत्स्नं चरितं कुरु, कस्य |
लोके धर्मात्मनः धीमतः भगवतः रामस्य ||
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३२ एवं ३३)
अर्थात्– हे ऋषिश्रेष्ठ, तुम श्रीराम के समस्त चरित्र का काव्यात्मक वर्णन करो, उन भगवान् राम का जो धर्मात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, बुद्धिमान् हैं। देवर्षि नारद के मुख से जैसा सुना है, वैसा उस धीर पुरुष के जीवनवृत्त का बखान करो; उस बुद्धिमान् पुरुष के साथ प्रकाशित (ज्ञात रूप में) तथा अप्रकाशित (अज्ञात रूप में) जो कुछ घटित हुआ उसकी चर्चा करो। सृष्टिकर्ता ने उन्हें आश्वस्त किया कि अंतर्दृष्टि के द्वारा उन्हें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का ज्ञान हो जायेगा।
इस तरह देवर्षि नारद द्वारा बतायी गयी बातें, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के आशीर्वाद और अन्तःप्रेरणा से महर्षि वाल्मीकि ने देवभाषा में जिस प्रथम रामकथा की रचना की; कालांतर में वह अन्य सभी भाषाओं में रचित रामकथा की प्रेरणा और आधार बनी। क्रौंच पक्षी के वध के दौरान ऋषि वाल्मीकि के मुख से जो श्लोक फूटा वह मानव इतिहास की पहली महागाथा “रामायण” का आधार बना। उनके मुख से निकला श्राप विश्व साहित्य की प्रथम कविता मानी जाती है। स्रष्टि का यह पहला महाकाव्य मानव जीवन की आदर्श आचार संहिता माना जाता है। अन्याय के विरुद्ध, निरीह के पक्ष में, सत्य की रक्षा में बोला गया इस महाग्रंथ का शब्द- शब्द अनूठी प्रेरणा से भरा हुआ है।
मान्यता के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का जन्म आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। वे महर्षि कश्यप के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी की संतान थे। ऋषि भृगु इनके बड़े भ्राता हैं। किवदन्ती है कि बाल्यावस्था में एक निःसंतान भीलनी ने उनको चुरा लिया था। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहां का भील समुदाय वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म करते थे। भील समाज में उन्हें रत्नाकर नाम से बुलाया जाता था लेकिन एक घटना ने उनका जीवन पूरी तरह बदलकर रख दिया। एक दिन जंगल में उनकी मुलाक़ात देवर्षि नारद से हुई। उन्होंने नारद जी से कहा कि ‘तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकालकर रख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।’ देवर्षि नारद ने कहा- ‘मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या? तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो? देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। लेकिन उन्होंने कहा- भगवान्! मेरी आजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ।’ देवर्षि बोले- ‘तुम जाकर पहले अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सा बटायेंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जाएंगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बाँध दो।’ देवर्षि को पेड़ से बाँध कर वे अपने घर गये और कुटुम्बियों से पूछा कि ‘तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझ से केवल भरण-पोषण ही चाहते हो।’ सभी ने कहा कि ‘हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्तव्य है। तुम कैसे धन लाते हो, यह तुम्हारे सोचने का विषय है। हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार क्यों बनें!’
परिवारीजनों की बात सुनकर वाल्मीकि के हृदय में गहरा आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बन्धन खोले और रोते हुए उनके चरणों में गिर गये। नारद जी ने उन्हें धैर्य बँधाया और राम-नाम के जप का उपदेश दिया, किन्तु पूर्वकृत भयंकर पापों के कारण उनसे राम-नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तदनन्तर नारद जी ने सोच-समझकर उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा। शास्त्र कहते हैं कि मरा-मरा का निरन्तर जप करने में वे इतने निमग्न हो गये कि उनके पूरे शरीर पर दीमक लग गयी। चूंकि दीमक जिस जगह अपना घर बना लेती है उसे बांबी कहते हैं, इसलिए उन्हें वाल्मीकि के नाम से जाना जाने लगा। वह अब ऋषि हो गये। उनके पहले की क्रूरता अब प्राणिमात्र के प्रति दया में बदल गयी। स्वयं भगवान श्री राम ने स्वयं उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। सीता जी ने अपने वनवास का अन्तिम काल उनके ही आश्रम पर व्यतीत किया और वहीं पर लव और कुश का जन्म हुआ जिनके गुरु भी महर्षि वाल्मीकि ही बने।
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