शास्त्रों के अनुसार हमें संस्कार से कर्तव्य की जानकारी मिलती है। हम त्याग, रक्षा और विनिर्माण के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। इन सभी व्यवहारों का आधार धार्मिक है। किसी विशेषज्ञता की रक्षा करना ही जाति है। यदि हम मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो जाति चली जाती है।
लोकमंथन के एक सत्र का संचालन पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने किया, जिसका विषय था ‘लोक परंपरा में कर्तव्य और संस्कार की भावना, भारतीय समाज में औद्योगिक जातियां।’ इस सत्र में ‘पंचवटी भारतीय पर्यावरण परंपरा’ के लेखक बनवारी ने कहा, ‘‘कर्तव्य की जानकारी हमें परंपरा से मिलती है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार हमें संस्कार से कर्तव्य की जानकारी मिलती है। हम त्याग, रक्षा और विनिर्माण के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। इन सभी व्यवहारों का आधार धार्मिक है। किसी विशेषज्ञता की रक्षा करना ही जाति है। यदि हम मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो जाति चली जाती है।’’
सत्र संचालक पाञ्चजन्य के सम्पादक हितेश शंकर के यह पूछने पर कि शास्त्र, लोक परम्परा व संस्कृति में क्या अन्तर है और ये कर्तव्यबोध में किस प्रकार योगदान करते हैं, पेसिफिक ग्रुप यूनिवर्सिटी, उदयपुर के प्रबंधन एवं संरक्षण विभाग के समूह अध्यक्ष प्रोफेसर भगवती प्रकाश शर्मा ने कहा कि हमारे प्रतिदिन के व्यवहार में भी शास्त्र परिलक्षित होता है।
आज शास्त्र के विधान हमारे लोक जीवन में नहीं मिलते हैं, लेकिन प्राचीन काल में मिलते थे। महाभारत, रामायण के विभिन्न प्रसंग बताते हैं कि शास्त्र से निकला लोक व्यवहार या परंपरा कर्तव्यबोध उत्पन्न करता है। आज मीडिया के माध्यम से लोकपूर्ण संस्कार छिन रहा है। हमारे यहां मां का संस्कार सबसे बड़ी होता है। जब लोग मां के संस्कार से च्युत होंगे तो अन्य महिलाओं के प्रति दृष्टि भी बदलेगी। हमारे यहां आज भी लोक संस्कार, संस्कृति और कर्तव्यबोध के बीच परस्पर संतुलित संबंध है।
सत्र
लोक परंपरा में कर्तव्य का संस्कार और भाव
सत्र
धार्मिक यात्राएं और अन्नदान की लोक परंपरा
समाज का एक हिस्सा हमेशा नया ढूंढे
‘‘भारतीय सभ्यता और समाज ने लोक परंपराओं को जीवित रखा है। संस्कृति, प्रकृति को परिष्कृत करती है। यात्रा करने की प्रवृति हमारे मूल में है। समाज का कुछ भाग ऐसा होना चाहिए जो नया ढूंढता रहे। यात्रा एक संस्था है। इन्हीं यात्राओं ने स्थानों, नदियों, पर्वतों की कई कहानियां दी हैं, जो हमारी आस्था से जुड़ गई हैं। अधिकांश कहानियों में धर्म का गूढ़ तत्व छिपा हुआ है। तीर्थ यात्राओं ने कथा-प्रवचन की प्रवृत्ति को जन्म दिया तो भारत की सांस्कृतिक सीमाओं को आद्य शंकराचार्य ने यात्राओं से बांधा।सनातन ने संसार को कभी नहीं नकारा। शिव और शक्ति से ही सृष्टि का सृजन हुआ है। इसी सृष्टि में यात्राओं ने तीर्थाटन को बढ़ावा दिया है।’’ लोकमंथन-2022 में ‘लोक परंपरा में धार्मिक यात्राएं और भारत में अन्नदान’ सत्र में डॉ. पंकज सक्सेना ने यह विचार व्यक्त किया। सत्र की अध्यक्षता मुकुंद दातार ने किया।
इसी सत्र में प्रो. वंदना ब्रह्मा ने कहा, ‘‘कन्यादान, गोदान, अन्नदान, वस्त्र दान लोक में संस्कृति के द्योतक हैं। तीर्थों से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी धारणा है। भारतीय दर्शन में कहा गया है कि दान करने से बंधुत्व की भावना का विकास होता है। असम मार्कण्डेय मुनि की धरती रही है। यहां धार्मिक यात्राओं और दान की परंपरा वेदकाल की है। वशिष्ठ और अत्रि भी तीर्थाटन हेतु असम आए और यहां आश्रमों की स्थापना की। स्वामी विवेकानंद ने भी असम की यात्रा की और सनातन का संदेश दिया।
श्रीमंत शंकरदेव ने अपनी शिक्षाओं में धार्मिक यात्राओं की महत्ता पर प्रकाश डाला है।’’ प्रो. वंदना ने असम के वनवासी समाज की यात्राओं, दान तथा धार्मिक मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि बोडो जनजाति की मान्यताओं में धार्मिक यात्राओं की लंबी शृंखला है। हमारी यही प्रवृत्ति एक भारत-श्रेष्ठ भारत की छवि को दर्शाती है। कैलाश मानसरोवर, अमरनाथ, शक्तिपीठ लोक में एकात्मतत्व हैं। पुरी रथयात्रा, चैतन्य महाप्रभु यात्रा, पंढरपुर यात्रा, अयप्पा यात्रा आदि देश की एकता का भी संदेश देती हैं।
मुकुंद दातार ने पंढरपुर यात्रा की महत्ता पर कहा कि वारी का मतलब होता है यात्रा। पंढरपुर की वारी मांगने के लिए नहीं, सिर्फ मिलने के लिए होती है। भगवान विष्णु के अवतार विठोबा और उनकी पत्नी रुक्मिणी के सम्मान में पंढरपुर में साल में चार बार वारी निकलती है, जिसमें आषाढ़ की वारी सर्वाधिक प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यताएं हैं कि यह वारी 800 वर्षों से भी अधिक समय से आयोजित की जा रही है।
अपने रीति-रिवाज और अपना मूल ढूंढ़ना बहुत जरूरी है। पश्चिमीकरण ने हमें तोड़ दिया है। हमारी आर्थिक गतिविधि तहस नहस हो चुकी है।
— तेमजेन इम्ना अलांग, उच्च शिक्षा एवं जनजाति मामले के मंत्री, नगालैंड
यात्राएं कई प्रकार की होती हैं, लेकिन धार्मिक यात्राएं पुण्यदायी और जीवन को दिशा देती हैं। यात्राओं में दान की महत्ता भी है, जैसे- जगन्नाथ पुरी में भात दान पुण्यदायी है। कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा समागम है, जो लोक आस्था की जीवंत मूरत है।
– प्रो. वंदना ब्रह्मा
पौधारोपण का कोई विकल्प नहीं
सत्र
लोक परंपरा में पर्यावरण और जैव विविधतासमारोह में ‘लोक परंपरा में पर्यावरण एवं जैव विविधता’ सत्र को पर्यावरणविद् अनंत हेगड़े आशिसार और प्रो. परिमल भट्टाचार्य ने संबोधित किया। हेगड़े कर्नाटक में पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास के लिए करीब 40 साल से सक्रिय हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए वे ‘वृक्ष लक्ष आंदोलन’ नाम से अभियान चला रहे हैं। बतौर मुख्य वक्ता उन्होंने कहा कि तुलसी चौरा बनाकर पूजा करना हमारी संस्कृति है। दक्षिण भारत में जैव विविधता को लेकर बहुत काम हो रहे हैं। इसके अलावा, उन्होंने अलग-अलग भाषा, वेश-भूषा और एक देश पर अपने विचार रखे। हेगड़े ने कहा कि पर्यावरण की रक्षा के लिए पौधरोपण का कोई विकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने सभी से पर्यावरण रक्षा की अपील करते हुए कहा कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए पौधरोपण बहुत जरूरी है। पर्यावरण बचेगा, तभी हमारा देश बचेगा।
दक्षिण भारत में जैव विविधता को लेकर बहुत काम हो रहे हैं। पर्यावरण की रक्षा के लिए पौधरोपण का कोई विकल्प नहीं हो सकता। पर्यावरण बचेगा, तभी हमारा देश बचेगा।
— अनंत हेगड़े आशिसार, पर्यावरणविद्
स्टेटबोर्ड मेंटर वाइल्ड लाइफ, विवेकानंद केंद्र, इन्स्टीट्यूट आफ कल्चर के निदेशक परिमल भट्टाचार्य ने कहा कि उत्तर-पूर्वी भारत लघु भारत है। यह देश का सबसे धनी क्षेत्र है। यहां 55 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल है। उन्होंने पूर्वोत्तर की जैव विविधता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इस क्षेत्र में नींबू की कई प्रजातियों के अलावा, केला, अन्नानास, धान और बांस की भी खेती होती है। उन्होंने यह भी बताया कि यह किस तरह पर्यावरण के लिए उपयोगी होते हैं।
श्री शंकर के यह पूछने पर कि भारत की औद्योगिक जातियां कौन सी रही हैं और उनका हमारे औद्योगिक विकास में क्या स्थान रहा है, श्री शर्मा ने कहा कि हमारे यहां अपनी मेहनत से लोकोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करने वाले शूद्र कहे गए। हमारे यहां जो विभिन्न जातियां रही हैं, वह उत्पादन में लगी रहती थीं। 1500 ईस्वी में दुनिया की 35 प्रतिशत वस्तुओं की निर्माता भारत था। हमारे यहां निर्माण की प्रौद्योगिकी में शास्त्रों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 2000 साल पहले भारत के अलावा दुनिया में कोई भी जिंक बनाना नहीं जानता था। जाति के नाम पर हमारे यहां विभिन्न जगहों पर औद्योगिक जातियां रहा करती थीं जिससे व्यापार करने में बहुत सहूलियत होती थी।
श्री शंकर के यह पूछने पर कि जाति क्या है? औद्योगिक प्रगति में उसकी क्या भूमिका रही है, श्री बनवारी ने कहा कि जाति, जात शब्द से बना है और जाति का मुख्य आधार उसका कौशल है। हम कोई अच्छी चीज बनाना चाहते हैं उसमें बहुत सारी प्रवृतियां होती है। हर प्रक्रिया में विविध प्रकार के लोग चाहिए, जिनमें कोई विशेषज्ञता होनी चाहिए। जो काम इस विशेषज्ञता को बढ़ाए, उसकी रक्षा करे, वही जाति है। दुनिया में कहीं भी कौशल का इतना विकास नहीं हुआ, जितना भारत में हुआ और उसका कारण जाति है।
श्री शंकर ने प्रश्न किया कि क्या यूरोपीय समाज ने किसी नए औद्योगिक युग का सूत्रपात किया है? इस पर श्री बनवारी ने कहा कि इसके बारे में ढेर सारा भ्रम व्याप्त है। 1800 ईस्वी तक यूरोप के पास कोई औद्योगिक चीज नहीं थी। इनके पास बेचने के लिए केवल हथियार थे। विश्वयुद्ध हुआ जिसके कारण वृहद उत्पादन की मांग हुई।
नगालैंड के उच्च शिक्षा एवं जनजाति मामले के मंत्री तेमजेन इम्ना अलांग ने कहा, ‘‘जब हम पूर्वोत्तर की तरफ देखते हैं तो पाते हैं कि अपने आर्थिक और सांस्कृतिक विषयों को हम इतनी गहराई से नहीं जानते। पूर्वोत्तर में हमारी संस्कृति और हमारी विचारधारा कमजोर हो रही है। मेरा राज्य बहुत छोटा है, लेकिन मैं इसके बारे में सोचता हूं। हमने किताबों में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के बारे में पढ़ा था, लेकिन उस ज्ञान से परिचित नहीं हैं। नगालैंड में 17 जनजातियां हैं। लेकिन इनकी न कोई लिपि है और न ही उनका इतिहास कहीं लिपिबद्ध है। इसी प्रकार, पूर्वोत्तर में हम कई क्षेत्रों में अपनी ऐतिहासिक शक्ति खो चुके हैं।’’ यदि हम अपने मूल को खोज लें और सत्य विचारों पर चलें तो हम बहुत बड़े उत्पादक हो जाएंगे। इससे जो आर्थिक उदारीकरण होगा, वह स्थायी होगा।
प्रस्तुति: आशीष कुमार अंशु/आदित्य भारद्वाज
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