मुख्यधारा के मीडिया में पाञ्चजन्य ने सबसे पहले पीएफआई का मुद्दा उठाया था, और यह विषवृक्ष कैसे फैल रहा है, इस पर एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की थी।
पॉपुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआई) पर प्रतिबंध चिर-प्रतिक्षित और स्वागतयोग्य कदम है। साथ ही यह हाल-फिलहाल की सबसे बड़ी घटना भी है। राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती देने वाला तंत्र कैसे खड़ा हो रहा था, उसे उजागर करने और रोकथाम का काम इस प्रतिबंध से हुआ है। एनआईए 19 मामलों की जांच कर रही है जिनकी कड़ी पीएफआई से जुड़ी है।
असल में कितने मामलों में पीएफआई की हिस्सेदारी होगी, अभी इसकी कड़ियां जुड़ना और पूरे षड्यंत्र का खुलासा बाकी है। पीएफआई के खास 376 उन्मादी कार्यकर्ता इस बीच गिरफ्तार हुए हैं। कहा जाना चाहिए कि प्रतिबंध अत्यंत सतर्कतापूर्वक जांच के बाद लगा है अन्यथा इस व्यापक तन्त्र और इसकी कारगुजारियों के सूत्र जोड़ना कठिन कार्य था। बड़ी कार्रवाई से पहले जो कड़ी जांच जरूरी थी, वह इसमें दिखाई देती है।
ध्यातव्य है कि मुख्यधारा के मीडिया में पाञ्चजन्य ने सबसे पहले पीएफआई का मुद्दा उठाया था, और यह विषवृक्ष कैसे फैल रहा है, इस पर एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की थी।
आंदोलन के आह्वान और चयनित चुप्पियां
प्रतिबंध से आगे की कुछ बातें हैं जिनका जिक्र आज जरूरी है। कुछ लोग इसे राजनीतिक बयानों में बहा ले जाना चाहते हैं, कमतर कर आंकना चाहते हैं या चुप्पी साधे बैठे हैं। इन तीनों ही प्रवृत्तियों को देखने और तौलने की जरूरत है। जो चुप्पी मारे बैठे हैं, उनकी खामोशी क्या कहती है? ऐसे लोगों की पुरानी राय और भूमिकाएं इस समय पीएफआई से जुड़ाव की दृष्टि से खंगाली जानी चाहिए। देखना चाहिए कि कथित आंदोलनकारियों की चुनिंदा चुप्पियों का खेल उन्माद का र्इंधन तो नहीं है?
दूसरा, कुछ लोगों ने राजनीतिक तौर पर इसकी अन्य संगठनों से, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा विहिप से तुलना करने की कोशिश की।
ध्यान देने वाली बात है कि ये लोग तथ्यों से कतराने और राष्ट्रीय संगठनों की ऐतिहासिक सामाजिक भूमिका पर अकादमिक विमर्शों से भागने वाले लोग हैं। इससे यह उजागर हुआ कि ऐसे सिरे से धूर्त किस्म के लोगों के लिए देश से बढ़कर अपना स्वार्थ है। यह भी स्पष्ट हुआ कि वे पीएफआई को जानते हैं और जानकर भी आंखें मूंदे हैं। साथ ही, संघ और विहिप को वास्तव में वे जानते ही नहीं।
विविधता को सहेजने वाली संस्कृति में विविधता को विभाजक रेखाओं की तरह देखने, समाज को काटने-बांटने, कट्टरपंथ की राह पर धकेलने वालों को प्रतिबंध से आगे निर्मूल करने की आवश्यकता है। अन्यथा देश, संस्कृति और लोकतंत्र सब एक साथ अराजक उन्माद के घेरे में आ जाएंगे। कड़ी कार्रवाई हुई है, किन्तु और बड़ी कार्रवाई की प्रतीक्षा यह देश कर रहा है।
मीडिया में उन्मादी घुसपैठ
अभी तक जो प्रतिबंध लगाए गए हैं, इतने भर से कार्रवाई नहीं रुकनी चाहिए। इसके साथ ही इस तंत्र का समूल नाश आवश्यक है। क्योंकि अंतत: यह देश, इसकी संस्कृति, इसकी विविधता, सबको इस्लामी कट्टरवाद की तर्ज पर नष्ट करने का व्यापक षड्यंत्र है। ज्यादा चिंताजनक यह है कि इस उन्मादी नेटवर्क ने मीडिया में भी पांव जमाए हैं। पीएफआई विदेश में भारत के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए, खासतौर पर खाड़ी देशों में ‘गल्फ तेजस डेली’ नामक अखबार भी निकालता है।
वह केरल में भी ‘तेजस’ नाम से अखबार निकालता था जो 2018 में बंद कर दिया गया। भारत में मीडिया इसे कैसी प्रतिक्रिया दे रहा था और इससे जुड़े हुए लोगों ने मीडिया में कहां-कहां जगह बनाई थी, इसकी छान-फटक होनी चाहिए। कुछ लोग प्रगतिशीलता की आड़ में, फैक्ट चेकिंग की आड़ में, चयनित मुद्दों की आड़ में कैसे इससे जुड़े थे, इसकी आर्थिक, आपराधिक पड़ताल के साथ-साथ बौद्धिक पड़ताल और विमर्श खड़ा करना आज की जरूरत है।
लोकतंत्र को चुनौती
तीसरी चीज यह कि कट्टरपंथी उबाल देश के लोकतंत्र को भी चुनौती दे रहा था। जो राजनीतिक दल-व्यक्ति इसके सुर में सुर मिला रहे हैं, उनकी भी खोज-खबर ली जानी चाहिए। क्योंकि कट्टरवाद को पोसकर लोकतंत्र को मजबूत नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य की बात है कि देश का माहौल बिगाड़ने के लिए जब कांग्रेस कार्यकर्ता केरल की सड़कों पर बीफ पार्टी कर रहे थे तब पीएफआई के आनंदित कार्यकर्ता उनके साथ खड़े थे। कहने में हिचक नहीं कि कांग्रेस ने केरल में कट्टरवाद के इस दानव से ‘हाथ’ मिलाया था।
पीएफआई का काम करने का तरीका और तेवर बताते हैं कि सिमी पर पाबंदी के बाद से उसने सिर्फ रूप ही नहीं बदला बल्कि काम करने का ढंग भी बदल दिया है। बिहार आदि से मिले सुराग बताते हैं कि शासन और व्यवस्था के तंत्र में उसने पंजे गड़ाए हैं। यह लोकतंत्र को विचलन की राह पर ले जाने वाला प्रारूप था, जिसे प्रारंभिक रूप से ध्वस्त किया गया है। मगर कार्रवाई यहीं नहीं रुकनी चाहिए। मीडिया में, राजनीति में, अर्थतंत्र में कट्टरपंथियों और भारत विखंडन के कुचक्रों को शह देने वाले कहां है? इसे ठीक से उजागर करने का काम अभी शेष है।
विविधता को सहेजने वाली संस्कृति में विविधता को विभाजक रेखाओं की तरह देखने, समाज को काटने-बांटने, कट्टरपंथ की राह पर धकेलने वालों को प्रतिबंध से आगे निर्मूल करने की आवश्यकता है। अन्यथा देश, संस्कृति और लोकतंत्र सब एक साथ अराजक उन्माद के घेरे में आ जाएंगे। कड़ी कार्रवाई हुई है, किन्तु और बड़ी कार्रवाई की प्रतीक्षा यह देश कर रहा है।
@hiteshshankar
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