ईरान में महसा अमीनी की हत्या के बाद उग्र हुए हिजाब आन्दोलन ने उस देश को झुलसाकर रख दिया है। मुस्लिम महिलाएं हिजाब फेंक रही हैं, आग लगा रही हैं, बाल काट रही हैं और ईरानी सरकार के सड़े-गले कानून को डटकर चुनौती दे रही हैं। आन्दोलन की आग धीरे-धीरे दूसरे देशों तक पहुंच रही है। दुनिया ईरानी महिलाओं के समर्थन में आ खड़ी हुई है। इस्लाम में हिजाब-बुर्का, महिला अधिकार और बढ़ते कट्टरपन जैसे विभिन्न सामयिक विष -यों पर बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन से पाञ्चजन्य के विशेष संवाददाता अश्वनी मिश्र ने विस्तृत बात की। प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश
कुरान हिजाब के संदर्भ में क्या कहता है? जो हिजाब ना पहने, क्या वह मुसलमान नहीं है?
देखिए, ऐसा कुछ नहीं है। बहुत से मुसलमान हैं, जो रोजा-नमाज अता करते हैं तो बहुत से ऐसे हैं, जो ऐसा नहीं करते। इसी तरीके से बहुत-सी लड़कियां हैं, जो हिजाब और बुर्का पहनती हैं और बहुत सी ऐसी हैं, जो हिजाब और बुर्का नहीं पहनतीं। बहुत से मुसलमान कुरान और हदीस में लिखे हुए नियमों को नहीं मानते, लेकिन खुद को मुसलमान बोलते हैं। इसी तरीके से हिन्दू, ईसाई और यहूदियों में भी ऐसे लोग हैं, जो अपने पांथिक कायदों को मानते हैं तो बहुत से ऐसे हैं जो नहीं मानते। लेकिन ये सभी अपने को किसी ना किसी मत-पंथ से जोड़े हुए हैं। मैं आपको बताऊं कि मेरे खुद के परिवार में बाबा, भाई और बहुत से रिश्तेदार नमाज नहीं पढ़ते थे। केवल एक बार ईद के समय एक जमात होती है, उसमें सबसे मुलाकात के लिए जाते थे। हकीकत बताएं तो परिवार के बहुत से लोग नमाज कैसे पढ़ी जाती है, यह जानते ही नहीं थे। फिर भी हम अपने आप को मुसलमान बोलते हैं। इसलिए ऐसा बिल्कुल नहीं है कि हिजाब पहनो तभी मुसलमान और हिजाब-बुर्का नहीं पहनो तो इस्लाम से खारिज। ये सब कट्टरपंथी मुल्लाओं ने शुरू किया है। यही कठमुल्ले दबाव डालते हैं कि हिजाब पहनना पड़ेगा, नमाज पढ़नी होगी, रोजा रखना पड़ेगा। ये सब कट्टरपंथी हैं, जो लड़कियों-महिलाओं और सामान्य मुस्लिम युवाओं को जकड़न में रखना चाहते हैं।
देखिए, इस्लाम सातवीं शताब्दी में पैदा हुआ। उसके बाद बहुत से प्रगतिशील लोग साफ बोलते थे कि ‘कुरान आदमी का लिखा हुआ है, अल्लाह का नहीं’। उस समय भी बहुत से लोगों ने, जो दकियानूसी सोच और कानून थे, उनको बिल्कुल नहीं माना। लेकिन कुछ सदी के बाद इस्लाम धीरे-धीरे कट्टर होने लगा। यहां कट्टरपंथियों की भरमार होने लगी। एक बात गौर करने की है कि कुछ सदी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी विचारधारा फैलनी शुरू हुई। हिन्दुओं का इस्लाम में कन्वर्जन हुआ। जो भी लोग कन्वर्ट हुए वे नमाज, रोजा, बुर्का जैसा कुछ भी नहीं मानते थे। लेकिन समय के साथ कट्टरपन बढ़ने लगा। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में हमें उसी कट्टरपन का एक रूप दिखाई पड़ता है। यहां के मुल्ला-मौलवी हिजाब, बुर्का, ऊंचे पाजामें, रोजा-नमाज के लिए हरेक पर दबाव डालते हैं। जो ऐसा नहीं करते उनका ब्रेनवॉश किया जाता है। कुल मिलाकर कट्टरपंथी बनाने के लिए हर तरह के करतब अपनाए जाते हैं। मुझे याद है कि जब मैं छोटी थी, तब हमारे मुहल्ले में एक छोटी मस्जिद हुआ करती थी, लेकिन आज उसी जगह 100 से अधिक मजिस्द हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कट्टरपंथी बढ़ गए हैं। पहले मस्जिदों में कोई नौजवान नहीं जाता था। केवल वृद्ध जाते थे, वह भी हमजोली के अन्य लोगों से मुलाकात के बहाने। पर आज अधिकतर नौजवान मस्जिद जाते हैं, जिसके चलते रास्ते तक बंद हो जाते हैं। हकीकत मेें ये सब इस्लामीकरण के हिस्से हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश में तो भयानक स्थिति है ही, दुनिया भर में कमोबेश यही स्थिति बनती जा रही है। इस सबको देखकर ही जो उदार और सहिष्णु मुसलमान हैं, वे बड़ी संख्या में इस्लाम छोड़ रहे हैं, क्योंकि वे कट्टरपंथ और मुल्ला-मौलवियों के खिलाफ लड़ाई लड़ते हैं।
ईरान में उठे हिजाब विवाद को एक महिला के नाते आप कैसे देखती हैं?
मैं ईरान के हिजाब विरोधी आन्दोलन का समर्थन करती हूं। यह बहुत जरूरी था, क्योंकि ईरानी महिलाएं लंबे समय से इसके खिलाफ लड़ती चली आ रही हैं। मेरा मानना है कि जिस किसी महिला-लड़की का हिजाब-बुर्का पहनने का मन है, वह पहने। लेकिन अगर किसी का उन्हें पहनने का मन नहीं है तो उस पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए। ईरान के इस पूरे आंदोलन में दर्जनों लोगों की मौत हो चुकी है। दुनिया भर में ईरानी सरकार के इस जुल्म की आलोचना हो रही है और हिंसा पर तुरंत लगाम लगाने के लिए आवाजें उठ रही हैं। देखिए, 21वीं सदी में अगर कोई यह कहे कि महिला को हिजाब पहनना पड़ेगा तो ये अत्याचार तो है ही, उस मजहब के चेहरे को भी उजागर करता है। मैं व्यक्तिगत तौर पर ईरानी महिलाओं के इस आंदोलन में उनके साथ हूं, क्योंकि वे अपनी स्वतंत्रता, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं। वे सरकार के सड़े कानूनों और जघन्य हिंसा के खिलाफ अपने बाल काट रही हैं, हिजाब को फेंक रही हैं और जला तक रही हैं। अब महिलाएं जुल्म नहीं सहने वालीं। ऐसा आंदोलन निश्चित रूप से अभूतपूर्व है। बावजूद इसके जो लड़कियां हिजाब पहनती हैं, उन्हें शर्म आनी चाहिए। मैं मानती हूं कि महसा अमीनी की हत्या ईरान में एक नया सवेरा लाएगी और कट्टरपंथ को झुकना ही पड़ेगा।
ईरान में महिलाएं हिजाब के खिलाफ हैं जबकि भारत की मुस्लिम महिलाएं हिजाब पहनने के लिए लड़ रही हैं। इस पर क्या कहेंगी?
मजे की बात ये है कि यही लोग कहते चले आ रहे हैं कि भारत में ‘मुसलमानों की स्वतंत्रता बाधित’ है। अब इनसे यह पूछना चाहिए कि अगर तुम हिजाब के खिलाफ बोल पा रही हो, आन्दोलन कर पा रही हो, तो फिर स्वतंत्रता कैसे बाधित हुई? भारत में लोकतंत्र है, तभी तो आवाज उठ रही है। लेकिन जहां शरिया कानून है, इस्लामी राज है, वहां तो जो मुल्ला चाहते, वह करना पड़ता। वहां हिजाब ‘पसंद’ नहीं, ‘अनिवार्यता’ होती है। ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि जब तक लोकतंत्र है, तब तक कुछ भी बोल लो, लेकिन इस्लामी राज में तो हिजाब, बुर्का बाध्यता ही है। और वहां तब यही लोग कुछ बोल भी नहीं पाते। इसलिए मुस्लिम महिलाओं को अपने अधिकारों को समझना होगा। उन्हें नारकीय जीवन जीना है या फिर स्वतंत्रता से भरा। रही बात भारत में बुर्का-हिजाब पहनने के लिए जो महिलाएं लड़ाई लड़ रही हैं, तो मैं उन महिलाओं से कहना चाहती हूं कि आप अपने घर, मदरसा में कुछ भी पहनिए। किसी को कोई ऐतराज नहीं होगा। लेकिन स्कूल, सार्वजनिक स्थान, विश्वविद्यालय आदि में हिजाब-बुर्का नहीं होना चाहिए। आपको ऐसे स्थानों पर अपनी पहचान जाहिर करनी ही पड़ेगी। क्योंकि कोई बुर्का-हिजाब पहने अंदर क्या ला रहा है, कोई हथियार लिए हुए हो, पुरुष है या महिला, इसकी पहचान तो करनी ही पड़ेगी। मैं निश्चित रूप से कह सकती हूं कि जो भी लड़कियां हिजाब-बुर्का के पक्ष में आन्दोलन कर रही हैं, उनका पूरी तरह से ब्रेनवॉश किया गया है। मुल्लाओं द्वारा उन्हें बहकाया गया है कि बुर्का और हिजाब ही मुस्लिम महिलाओं की पहचान हैं। एक मुस्लिम महिला के नाते मैं इन लड़कियों को यह बताना चाहती हूं कि बुर्का और हिजाब आपकी पहचान नहीं हैं। जिसकी भी ये पहचान है, वह बहुत ही खराब है। मुस्लिम लड़कियां पढ़-लिखकर इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक बनें, यह पहचान है। अगर मुस्लिम लड़कियां जागरूक नहीं हुर्इं तो वे सिर्फ ‘बच्चा पैदा करने की मशीन’ और यौन संबंध बनाने की वस्तु के अलावा और कुछ नहीं होंगी।
दुनिया के कई देश हिजाब के विरोध में उतरीं ईरानी महिलाओं के समर्थन में खड़े हैं। लेकिन भारत का प्रगतिशील खेमा खामोश है?
ये सभी पाखंडी हैं। ये वही लोग हैं जो कट्टरपंथ के खिलाफ कभी नहीं बोलते। ये सिर्फ चुने हुए कुछ विषयों पर ही बोलते देखे जाते हैं। मैं कहती हूं कि कट्टरपंथ कहीं का भी हो, खराब है। आज ईरान की महिलाओं ने कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज उठाई है। मैं इस आवाज के साथ हूं।
इस्लाम में महिलाओं की आजादी का क्या मतलब है?
मैं तो मुस्लिम समुदाय की ही महिला हूं, लेकिन मेरे साथ क्या हुआ? मेरी आजादी को कैसे कुचला गया, आज यह किसी से छिपा नहीं है। इससे समझ सकते हैं कि इस्लाम में कितनी आजादी है। मैं आज की मुस्लिम लड़कियों को यह कहना चाहती हूं कि आगे बढ़ें, जो मजहब तुम्हें गुलाम बनाता है, तुम्हारे पैरों को बेड़ियों में जकड़ता है, सड़े-गले कानूनों को मानने के लिए बाध्य करता है, बिल्कुल ऐसी किसी भी चीज को मत मानो। अपने दिमाग का इस्तेमाल करो और पंख लगाकर उड़ो। मजहब में जो भी गलत है, उसकी आलोचना करनी ही चाहिए। और जो इसके उलट जाता है, वह खत्म हो जाता है। आज यही कारण है कि लोग बहुत बड़ी तादाद में इस्लाम को छोड़ रहे हैं।
दुनिया आज 21वी सदी में है। लोग आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन इस्लामी देशों में वही सड़े-गले कानून और चाल-चलन को अपनाया जा रहा है। ऐसे में मुसलमान कैसे दुनिया से कदमताल कर पाएंगे?
आज ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का हाल सबके सामने है। क्या ये देश दुनिया के साथ कमदताल कर पा रहे हैं? हकीकत में कहें तो उलटे इन देशों के मुल्ला-मौलवी दुनिया को अपने देश की तरह बनाने पर तुले हैं। ये इस्लामी देशों के कानून को दूसरे देशों पर थोपना चाहते हैं। हरेक इस्लामी देश में कई-कई जिहादी संगठन हैं, जो खून-खराबे में लिप्त हैं। यही कारण है कि यूरोप में बहुत से लोग इस्लाम छोड़ रहे हैं। दुनिया को चाहिए कि जो भी देश ऐसा कर रहे हैं, उनके साथ व्यापार बंद कर देना चाहिए। क्योंकि इन देशों में ना तो मानवाधिकार होते हैं, ना ही लोकतंत्र। यहां अराजकता के सिवा कुछ नहीं होता। इसलिए सहिष्णु देशों को ऐसे कट्टरपंथी देशों से पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना पड़ेगा। लेकिन यह बहुत ही मुश्किल है। क्योंकि सऊदी अरब में बड़ी संख्या में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, लेकिन अमेरिका सहित यूरोप फिर भी उसके साथ व्यापार करता है।
तमाम चीजों के बीच आप जैसे बुद्धिजीवी भी हैं। जो सही को सही और गलत को गलत कहते हैं। 21वीं सदी में कौन-सा इस्लाम जीतेगा, उदार इस्लाम या मुल्लाओं का इस्लाम?
यह कहते हुए मुझे बहुत तकलीफ होती है कि आज तक तो मुल्लाओं का ही इस्लाम जीतता आया है। उदार इस्लाम को मानने वाले तो मरते आए हैं। मुझे ही लें, मैं निर्वासित हूं। इसी तरह से बहुत से लेखकों, ब्लागरों और प्रगतिशील लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जेल में डाल दिया। लेकिन मुझे भरोसा है कि आज नहीं तो कल जब लोग जागरूक होंगे, गलत को गलत समझेंगे तो निश्चित तौर पर उदार इस्लाम ही जीतेगा और मुल्लाओं का इस्लाम हारेगा। क्योंकि दुनिया में कट्टरता की कोई जगह नहीं है। इसलिए इस्लाम को भी उदार होना ही पड़ेगा और अपनी आलोचना सुननी पड़ेगी।
मदरसों की तालीम इस्लाम को कितना गर्त में गिराएगी?
मदरसों पर निश्चित रूप से नियंत्रण में करना पड़ेगा, क्योंकि उससे निकले हुए बच्चे ही मौलवी बनते हैं और मुस्लिम समाज को गलत दिशा में ले जाते हैं। आज इस्लाम का जो कट्टर रूप दिखता है, उसमें मदरसों भूमिका है। यहां बच्चों का ब्रेनवॉश किया जाता है। मैं बिलकुल मदरसों के खिलाफ हूं। मेरा मानना है कि मदरसों को आधुनिक रूप देकर यहां के बच्चों को मुख्य धारा से जोड़ना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो इन पर ताला जड़ देना चाहिए।
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