कुटुंब प्रबोधन : यही समय है, सही समय है
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कुटुंब प्रबोधन : यही समय है, सही समय है

परिवार राष्ट्र की सबसे प्रारंभिक इकाई है। परिवार ही वह इकाई है जो संस्कृति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाती है। पर आज के उपभोक्तावादी और व्यक्तिवादी दौर में जीवन मूल्य बदल गए हैं जिससे परिवार संस्था के प्रति दुराग्रह बढ़ा है

by प्रो. रसाल सिंह
Sep 30, 2022, 09:36 am IST
in भारत, विश्लेषण, मत अभिमत, संघ, संस्कृति, केरल
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आजकल की युवा पीढ़ी का एक वर्ग विवाह को एक अनावश्यक बुराई और बोझ के रूप में देखने लगा है। यह वर्ग उत्तरदायित्वहीन जीवन जीते हुए आनन्द उठाना चाहता है और विवाह जैसी सामाजिक जिम्मेदारी से बचना चाहता है। 

केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने तलाक के एक मामले की सुनवाई करते हुए वर्तमान समय में वैवाहिक संबंधों की स्वार्थपरता और टूटन को रेखांकित किया है। न्यायमूर्ति ए. मोहम्मद मुश्ताक और न्यायमूर्ति सोफी थॉमस की पीठ ने वर्तमान सामाजिक परिदृश्य पर अत्यंत सटीक टिप्पणी करते हुए समाज को आईना दिखाने का सराहनीय कार्य किया है। इस पीठ ने कहा है कि आजकल की युवा पीढ़ी का एक वर्ग विवाह को एक अनावश्यक बुराई और बोझ के रूप में देखने लगा है। यह वर्ग उत्तरदायित्वहीन जीवन जीते हुए आनन्द उठाना चाहता है और विवाह जैसी सामाजिक जिम्मेदारी से बचना चाहता है।

इसका विकल्प उसने ‘लिव-इन’ सम्बन्ध के रूप में ढूंढ निकाला है। युवा पीढ़ी का यह वर्ग पत्नी (वाइफ) को ‘सदा के लिए समझदारी वाले निवेश’ (वाइज इन्वेस्टमेंट फॉर एवर) की जगह ‘हमेशा के लिए आमंत्रित चिंता’ (वरी इन्वाइटेड फॉर एवर) के रूप में देखता है। लड़कियों के मन में पति को लेकर भी कमोबेश यही सोच हावी है। भले ही न्यायालय ने अपनी टिप्पणी का दायरा केरल के समाज तक सीमित रखा है; लेकिन सच्चाई यह है कि इस प्रकार का चलन पूरे भारत में बढ़ रहा है।

शिक्षित, शहरी और समृद्ध वर्ग में भले ही यह प्रवृत्ति अधिक दिख रही हो; लेकिन अशिक्षित/अल्पशिक्षित, ग्रामीण और गरीब तबका भी इससे अछूता नहीं है। विवाह संस्था के प्रति अनास्थावान युवा पीढ़ी पश्चिम प्रेरित और उपभोक्तावादी संस्कृति की शिकार है। यह विवाह संस्था को खोखला और निष्प्राण करने पर उतारू है। युवा पीढ़ी का यह वैचारिक प्रतिस्थापन चिंताजनक हैक यह प्रवृत्ति बदलते जीवन- मूल्यों और प्राथमिकताओं का परिणाम है। नि:संदेह, न्यायालय की यह टिप्पणी सामाजिक विचलन की सार्वजनिक स्वीकृति और अभिव्यक्ति है।

कुटुंब प्रबोधन : करणीय कार्य

माह में दो बार परिवार के साथ बैठना
एक दिन मित्र परिवारों के साथ चर्चा
मोबाइल, टीवी का विवेकपूर्ण उपयोग। अभी जब जगते हैं, उससे 30 मिनट पूर्व उठें
परिवार में प्रतिदिन साहित्य का वाचन
गलत सामाजिक मान्यता, अहंकार, भय, स्वार्थ को परिवार से दूर करना
जन्मदिवस मनाते समय समाजहित का उपक्रम, आत्मनिरीक्षण
सामाजिक सेवा संस्थाओं को सहयोग

न्यायालय ने यह तल्ख टिप्पणी अलाप्पुझा के एक 34 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर अपील को निरस्त करते हुए की। एक अन्य स्त्री के साथ अवैध सम्बन्ध रखने वाले इस व्यक्ति की ‘वैवाहिक क्रूरता’ को आधार बनाकर दायर की गई तलाक की अर्जी को पारिवारिक अदालत ने खारिज कर दिया था। उल्लेखनीय है कि यह व्यक्ति जिस पत्नी से तलाक चाहता है; वह उसके तीन बच्चों की मां भी है। वह एक अपेक्षाकृत युवा और आकर्षक स्त्री के मोहपाश में फंसकर अपनी ब्याहता एवं वैध पत्नी और बच्चों से छुटकारा पाना चाहता था। इसलिए उसने अपनी पत्नी पर असामान्य व्यवहार और क्रूरता करने का आरोप लगाते हुए पारिवारिक अदालत में विवाह-विच्छेद की याचिका दायर की थी। हालांकि, अदालत ने पत्नी के प्रतिरोध को ‘असामान्य व्यवहार’ और ‘किसी भी प्रकार की क्रूरता’ न मानते हुए ‘निराधार’ तलाक देने से इनकार कर दिया।

केरल उच्च न्यायालय ने पारिवारिक अदालत के निर्णय को चुनौती देने वाली अर्जी को खारिज करते हुए बदलते समसामयिक परिदृश्य, सामाजिक संबंधों और जीवन-मूल्यों पर गंभीर टिप्पणी की। इस याचिका के निस्तारण की पृष्ठभूमि में न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रश्न और चिंताएं विचारणीय हैं। न्यायालय की चिंताएं समाज का ध्यान आकृष्ट करने वाली हैं और गहन चिंतन और संशोधन की मांग करती हैं। इसी कड़ी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने हाल में वाराणसी में आयोजित दो दिवसीय अखिल भारतीय कुटुंब प्रबोधन शिविर में परिवार की महत्ता बताते हुए नौ करणीय कार्यों पर बल दिया।

सर्वग्रासी उपभोक्तावादी संस्कृति
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण एक सार्वभौम सच्चाई है। आज पश्चिम प्रेरित उपभोक्तावादी संस्कृति का चतुर्दिक बोलबाला है। भारतीय समाज भी उससे अप्रभावित नहीं है। उपभोक्तावादी संस्कृति सर्वग्रासी है। वह सामाजिक जीवन को व्यापक स्तर पर प्रभावित और विकृत कर रही है। अबाध और अंध उपभोग और उपभोग के बाद निर्मम परित्याग इस संस्कृति का सार है। स्वार्थपरता और आत्मजीविता इसकी मूल-प्रेरणा और प्राप्य है। यह आंधी सामाजिकता, सामूहिकता, समरसता, समर्पण, सहनशीलता, सहयोग जैसे जीवन-मूल्यों को उखाड़ फेंकने पर आमादा है। ‘यूज एंड थ्रो’ इस संस्कृति का मूल जीवन-सूत्र है। जो काम का नहीं है, जो उपयोगी नहीं है, उसे अपने जीवन, अपनी दुनिया से निकाल फेंको; वह चाहे वस्तु हो, व्यक्ति हो, सम्बन्ध हो या कि जीवन-मूल्य हो। यह आत्मग्रस्त आनंदवाद उपभोक्तावादी संस्कृति की संचालक शक्ति है।

परिवार का आधार विवाह
विवाह एक सामाजिक सम्बन्ध होता है। विवाह दो व्यक्तियों को ही नहीं, दो परिवारों और समाजों को जोड़ता है। यह एक विशिष्ट सामाजिक अनुबंध और पवित्र मानवीय सम्बन्ध होता है। यह सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा, भावनात्मक निर्भरता और शारीरिक-मानसिक सुख-शांति का सहकारी सम्बन्ध होता है। संपूरकता और अन्यान्योश्रितता इस सम्बन्ध की नींव होती है। यह दायित्वों और अधिकारों के मेलजोल से बनी सहकारी व्यवस्था है। विवाह और तज्जन्य परिवार भारतीय समाज और संस्कृति का दुर्लभ वैशिष्ट्य रहा है। यह सर्वव्यापी, सर्वकालिक और सर्वस्वीकृत संस्था है। यह सामाजिक नियमन का परिणाम है।

बंधुता और नातेदारी जैसी सामाजिक सरणियों की निर्मिति भी विवाह का ही प्रतिफलन है। सात फेरे लेकर सात जन्म तक साथ निभाने का संकल्प विवाह संस्था का वैशिष्ट्य है। समाज की मूल इकाई परिवार और परिवार का मूल आधार विवाह होता है। परिवार सामाजिक गुणों की प्रथम पाठशाला होता है। अगर वैवाहिक संस्था संकटग्रस्त होती है, तो परिवार भी संकटग्रस्त होंगे। परिवार के अभाव में मनुष्यों नहीं, बल्कि व्यक्तियों का निर्माण होगा। आत्म-केन्द्रित व्यक्ति समाज और सामाजिक भाव के लिए खतरा होते हैं। आज समाज का आधार हिलता हुआ नजर आता है। वैवाहिक संबंधों में विचलन होने से समाज की नींव का हिलना स्वाभाविक है।

नई पीढ़ी और कमजोर कंधे
आज की ‘केयरफ्री, क्रेजी और कैरियरिस्ट’ पीढ़ी के कमजोर कंधे विवाह जैसा गुरुतम दायित्व को उठाने में अक्षम दिख रहे हैं। आज का युवा अत्यधिक अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले हांफ रहा है। इसलिए या तो वह विवाह करना नहीं चाहता या फिर बहुत देर से विवाह करता है। वर/वधू में ढूंढे जाने वाले गुणों और भौतिक प्राप्तियों की सूची इतनी लम्बी होती है कि मन कहीं ठहरता ही नहीं। सूची का मिलान होते-होते प्राय: देर हो जा रही है। पकी उम्र में अनुकूलन और आपसी समझ विकसित करने के लिए आवश्यक लचीलेपन और धैर्य का अभाव होता है।

प्रजनन क्षमता भी क्षरित हो रही है। इससे अतृप्ति और असंतुष्टि पैदा होती है और व्यक्ति दाम्पत्य जीवन से इतर ‘मृगमरीचिका’ का शिकार हो बैठता है। सूचना-संजाल और यंत्रों ने भी संबंधों के रस और एकात्मता को सोख लिया है। आज पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मां- बेटी और प्रेमी-प्रेमिका तक साथ-साथ होते हुए भी दूर-दूर रहते हैं। यह मोबाइल के कन्धों पर सवार सोशल मीडिया की हमारे निजतम क्षणों में घुसपैठ है। जीवन में आपाधापी, अंधदौड़ और दिखावे की घुसपैठ से परिवार टूट रहे हैं। बच्चे और बुजुर्ग उपेक्षित हो रहे हैं।

‘लिव-इन’ का प्रचलन
विवाह की जगह ‘लिव-इन’ सम्बन्ध बढ़ रहे हैं, ताकि दो-चार साल बाद मन भरने और अलगाव होने की दशा में बिना किसी सामाजिक-वैधानिक अड़चन के अलविदा कहा जा सके। इस प्रकार के संबंधों की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण न्यायालय ने ‘लिव-इन’ संबंधों के साथ भी दायित्व-बोध जोड़ने के कई सराहनीय निर्णय दिए हैं। विवाह और परिवार नामक संस्थाएं सभ्यता के विकास की सर्वोत्तम उपलब्धि हैं। ये संस्थाएं और इनमें अन्तर्निहित त्याग, कर्त्तव्यनिष्ठा, प्रतिबद्धता, प्रेम और समर्पण भारत के लिए सदैव गर्व और गौरव का विषय रहे हैं।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भाव से अनुप्राणित भारत की सनातन संस्कृति में वैदिक काल से ही विवाह अत्यंत पवित्र और आवश्यक संस्कार है। पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति अथवा मानव जीवन की सम्पूर्णता और सार्थकता के लिए ही चार आश्रमों का विधान किया गया है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम व्यवस्था के विधान में विवाह और परिवार की केन्द्रीय भूमिका रही है। एक हजार साल की पराधीनता के दौरान इसी इकाई ने इस्लामी और ईसाई संस्कृति का सामना किया। आज उसका संकटग्रस्त होना चिंताजनक है। यह मैकॉले की स्वार्थकेन्द्रित संकीर्णतावादी और व्यक्तिवादी औपनिवेशिक शिक्षा नीति का दुष्परिणाम है। निश्चय ही, आज हमें सुधार और संशोधन के लिए आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।

भारतीय समाज में एक-दूसरे से सम्बन्ध तोड़ने की इच्छा रखने वाले जोड़ों, पिता अथवा माता द्वारा त्यागे गए बच्चों और निराश-हताश तलाकशुदा लोगों की संख्या क्रमश: बढ़ती जा रही है। स्वार्थ के कारण अथवा विवाहेतर संबंधों के लिए अपने बच्चों तक की परवाह किए बिना वैवाहिक बंधन को तोड़ना आम चलन बन गया है। इससे सामाजिक शांति, सुरक्षा, व्यवस्था के नष्ट-भ्रष्ट होने की आशंका है।

विवाह और परिवार जैसी पवित्र और मान्य संस्थाओं को स्त्री जीवन की बेड़ियों के रूप में दुष्प्रचारित करना नवोदित नारीवादियों का प्रिय शगल है। वे इसे स्त्री के विकास की बाधा मानते हैं। ये मुट्ठीभर लोग इन प्राचीन संस्थाओं की जड़ों में मट्ठा डालने में लगे हैं। वे विवाह को एक सामाजिक समझौता मात्र मानते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित और प्रोत्साहित दायित्वहीन स्वतंत्रता सामाजिक अराजकता और उच्छृंखलता को बढ़ावा देती है। केरल उच्च न्यायालय की टिप्पणियों का संज्ञान लेकर सामाजिक जीवन में परिवार का महत्व स्वीकारने और समझने वाले सुधिजनों और संस्थाओं को आगे आकर कुटुंब प्रबोधन का काम करना चाहिए; ताकि समय रहते इस चुनौती से निपटा जा सके। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और ‘निवेदिता एंडियावर फॉर सोशल ट्रांसफॉर्मेशन’ जैसे संगठन कुटुंब प्रबोधन कार्य में लगे हैं।
(लेखक : जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठता, छात्र कल्याण हैं)

Topics: कुटुंब प्रबोधनयही समय हैसही समय हैEnlightenment: It's TimeRight Time
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