केरल के भाजपा नेता और विख्यात फिल्म निर्माता रामसिम्हन (पुराना नाम अली अकबर) ने 1921 में ‘खिलाफत आंदोलन’ के नाम पर हिंदुओं के सुनियोजित नरसंहार पर आधारित मलयाली फिल्म ‘1921-पुझा मुथाल पुझा वारे’ अर्थात् ‘1921-नदी से नदी तक’ का निर्माण बहुत उत्साह से शुरू किया था। लेकिन रामसिम्हन का यह ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ सेंसर बोर्ड द्वारा बेवजह खड़ी की गई बाधाओं और परेशानियों के कारण अभी तक सपना ही है। फिल्म का निर्माण उन्होंने तब शुरू किया था, जब माकपा-नीत केरल सरकार ने कुख्यात मुस्लिम दंगाई वरियांक्कुनाथु कुंजाहम्मद हाजी को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेश किया था जिसने हजारों हिंदू पुरुषों, महिलाओं व बच्चों का नरसंहार किया, हजारों हिंदुओं को इस्लाम में कन्वर्ट किया, महिलाओं की इज्जत लूटी, सैकड़ों हिंदू मंदिरों को अपवित्र व नष्ट किया। अंग्रेजों के विरुद्ध शुरू किसान आंदोलन, जो बाद में हिंदू विरोधी खिलाफत आंदोलन में बदल गया था, उसका नायक बताते हुए दंगाई का महिमामंडन करने के लिए वामपंथी सरकार ने कई परियोजनाओं की घोषणा की थी। रामसिम्हन ने अपने काम, अपनी नवीनतम फिल्म और इसके प्रदर्शन की अनुमति मिलने में आ रही बाधाओं तथा केरल की मुस्लिम वोट बैंक राजनीति पर इसके संभावित प्रभावों को लेकर पाञ्चजन्य के केरल संवाददाता टी. सतीशन से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं इसके मुख्य अंश-
आपने मालाबार में ‘खिलाफत आंदोलन’ पर फिल्म बनाने का निर्णय क्यों लिया?
वास्तव में ‘खिलाफत आंदोलन’ या ‘मोपला विद्रोह’ दक्षिण भारत में अब तक का सबसे बड़ा हिंदू नरसंहार था। सत्तारूढ़ एलडीएफ (माकपा के नेतृत्व वाला वाम लोकतांत्रिक मोर्चा) और यूडीएफ (कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा) दोनों, उस नरसंहार को अंग्रेजों के विरुद्ध किसानों का संघर्ष या स्वतंत्रता संघर्ष साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। मुस्लिम वोट बैंक के लिए एलडीएफ जिहादियों का महिमामंडन कर रहा है और यूडीएफ भी उसका समर्थन कर रहा है। जिहादियों का समर्थन करने वाले फिल्म जगत के एक व्यक्ति ने वरियांक्कुनाथु कुंजाहम्मद हाजी पर एक फिल्म बनाने की घोषणा की है, जिसमें उसे स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेश किया जाएगा। हिंदुओं ने इसका कड़ा विरोध किया। तब मैंने नई पीढ़ी के सामने वास्तविक इतिहास रखने के लिए ‘1921- पुझा मुथल पुझा वारे’ का निर्माण शुरू किया।
फिल्म को बनाने में क्या मुश्किलें आई? यह कब तक प्रदर्शित होगी?
फिल्म बनाने के लिए किसी ऋणदाता से कर्ज लेने की बजाय मैंने आम जनता से निवेश आमंत्रित किया। इसमें राष्ट्रवादी, हिंदुत्ववादी और जिहाद-विरोधी लोगों ने अपनी मेहनत की कमाई लगाई है। बहुत कम समय में फिल्म बन भी गई। लेकिन मलयालम सेंसर बोर्ड प्रमाण-पत्र नहीं दे रहा है, जबकि बोर्ड के चार में से दो सदस्यों ने हरी झंडी दे दी थी। बाद में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की क्षेत्रीय अधिकारी पार्वती का ‘मत’ आया। लिहाजा, इसे फिर से संशोधन समिति के निर्णय के लिए मुंबई भेज दिया गया, क्योंकि केरल में कोई संशोधन समिति नहीं है।
पार्वती, दिवंगत माकपा नेता वर्कला राधाकृष्णन की पोती हैं। सेंसर बोर्ड में दो साल का उनका कार्यकाल लगभग दो साल पहले ही समाप्त हो गया था, लेकिन फिल्म उद्योग के कड़े विरोध के बावजूद उन्हें और दो साल का विस्तार दे दिया गया। फिल्म निर्माता और सिनेमैटोग्राफर शाजी एन. करुण ने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केरल की संशोधन समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। तब से यह पद खाली है। मुंबई की नौ सदस्यीय संशोधन समिति ने स्क्रीनिंग समिति के सदस्य के तौर पर केरल के प्रसिद्ध इतिहासकार और आईसीएचआर सदस्य डॉ. सी.आई. इसाक से इस पर विमर्श किया। फिर मुझे फिल्म में तीन बदलाव करने को कहा। पहला, फिल्म में 10 लोगों के सिर काट कर थुवूर के एक कुएं में डालने वाला दृश्य। यह वही कुआं है, जिसमें सैकड़ों हिंदुओं के सिर काट कर डाला गया था। समिति चाहती थी कि सिर काटे जाने वाले लोगों की संख्या घटा कर तीन या चार की जाए।
दूसरा, फिल्म में जिहादियों को एक बछड़े को काट कर उसका मांस पकाते और नंबूदरी ब्राह्मणों को जबरन खिलाने तथा हिंदू महिलाओं को मुस्लिम महिलाओं की तरह कपड़े पहनने के लिए मजबूर करने वाला दृश्य है। माना जाता है कि कोई ब्राह्मण गोमांस खा ले तो वह जातिच्युत हो जाता है और वापस अपने समुदाय का हिस्सा नहीं बन सकता। समिति की मांग थी कि मांस काटने के दृश्य की लंबाई कम की जाए। तीसरा, वे फिल्म को ‘ए’ श्रेणी का प्रमाण-पत्र देना चाहते थे, ‘यू’ नहीं। फिर भी मैं तैयार हो गया।
जब आपने सारे बदलाव कर दिए, तो फिर फिल्म कहां अटकी हुई है?
कुछ समय बाद समिति ने मुझे फिर मुंबई बुलाया, क्योंकि फिल्म ‘पुनरीक्षण समिति’ के सामने थी। उस नौ-सदस्यीय समिति में तीन मुस्लिम महिलाएं हैं। पूरी समिति में केवल हिंदी भाषी सदस्य हैं, जो मलयालम नहीं समझते। इस बार मुझे 10 से अधिक महत्वपूर्ण बदलाव करने को कहा गया। फिल्म में वरियांक्कुनाथु द्वारा मालाबार में मुस्लिम राज्य स्थापित करने की बात है। समिति की एक मुस्लिम महिला सदस्य ने मुझे इस तथ्य को हटाने को कहा। समिति ने गांधी जी का नाम, जबरन कन्वर्जन के दृश्य व संदर्भ और नागलिक्कावु कुएं के दृश्य को भी हटाने का कहा, थुवूर के कुएं की ही तरह इसमें भी नरसंहार के बाद कई हिंदुओं को फेंका गया था। साथ ही, समिति ने स्व. माधवन नायर के भाषण अंश भी हटाने का कहा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘कुरान कहता है कि मुसलमानों के खिलाफ आने वालों को दुश्मन माना जा सकता है।’ खिलाफत के दौर में नायर मालाबार के प्रमुख कांग्रेस नेताओं में से एक थे। इसी तरह, समिति चाहती है कि फिल्म में ‘नारा-ए-तकबीर’ का प्रयोग 50 प्रतिशत कम कर दूं।
एक दृश्य जिसमें लोग नीलांबर महल के पुरुष सदस्यों को ‘थंबुराने’ कहते हैं। उपशीर्षक में इसे लॉर्ड लिखा गया है। समिति चाहती है कि इसे बदल कर ‘लैंड लॉर्ड’ कर दूं। फिल्म के के्रडिट्स में ‘रामसिम्हन’ की जगह ‘अली अकबर’ नाम का इस्तेमाल करूं। फिल्म जगत में बहुत लोग छद्म नामों का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा भी समिति ने फिल्म के कई स्थानों पर ‘काट-छांट’ करने को कहा। यहां तक कि समिति को दलित युवक चाथन और नंबूदरी ब्राह्मण युवती सावित्री के बीच संवाद पर भी आपत्ति है, जिसे महाकवि कुमारन आशन के प्रसिद्ध महाकाव्य ‘दुरावस्था’ से लिया गया है। मुझे इस बात का आश्चर्य है कि समिति यह अंश हटाने को क्यों कह रही है? फिल्म की कुल अवधि 3 घंटे 12 मिनट है। लेकिन रोचक बात यह है कि उन्होंने तीन घंटे 17वें मिनट के सीन में भी बदलाव करने को कहा है। समिति फिल्म के आरंभी में यह घोषणा करने का भी दबाव डाल रही है कि इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं।
अब आप क्या करेंगे? क्या आपने सरकार से इस संबंध में कोई बात की?
समूची व्यवस्था में जिहादियों ने घुसपैठ कर ली है। मैंने फिल्म की पटकथा खिलाफत के दिनों में मालाबार के कांग्रेस नेता माधवन नायर के लेखन और मालाबार के तत्कालीन उपायुक्त सी. गोपालन नायर की पुस्तक ‘द मोपला रिबेलियन 1921’ के आधार पर तैयार की थी। गोपालन इस कथित विद्रोह की जांच के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त जांच आयोग में भी थे। यदि मैंने पुनरीक्षण समिति की इच्छा और पसंद के अनुसार बदलाव किया तो फिल्म की आत्मा मर जाएगी। इस फिल्म का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यह इतिहास को नकारने और मेरे प्रयासों को निरर्थक साबित करने जैसा होगा।
1921 के हिंदू नरसंहार की सही जानकारी सामने लाने और यह साबित करने की जरूरत है कि वह आंदोलन किसानों का संघर्ष या स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। केंद्र सरकार इसमें हस्तक्षेप करे और फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दिलाने के लिए सख्त कदम उठाए। मुझे आशा है कि केंद्र सरकार इस ऐतिहासिक मुद्दे पर तत्काल कदम उठाएगी। साथ ही, इस मामले में कानूनी तरीके से राहत पाने के प्रयास में भी लगा हुआ हूं।
आपने नया नाम ‘रामासिम्हन’ रख लिया, लेकिन आधिकारिक रूप से पुराना नाम नहीं बदला। ऐसा क्यों?
मेरा नाम मुस्लिम बहुल मलप्पुरम जिले में उन्नीयन साहब नाम से विख्यात एक मुस्लिम व्यक्ति से प्रेरित है। बाद में उन्होंने पूरे परिवार के साथ हिंदुत्व को अपना लिया था। उन्होंने रामसिम्हन नाम रखा और भगवान नरसिंह का मंदिर बनवाया था। लेकिन इसके कुछ साल बाद ही देश की आजादी से पहले 2 अगस्त, 1947 को जिहादियों ने उनके बंगले में घुसकर उनके और उनके छोटे भाई दयासिम्हन के पूरे परिवार की हत्या कर दी थी। रही बात नाम बदलने की तो इस समय मैं नए नाम ‘रामसिम्हन’ को बदलने के लिए छह महीने की लंबी प्रक्रिया में नहीं उलझ सकता, क्योंकि फिल्म ‘1921-पुझा मुथल पुझा वारे’ से जुड़े दस्तावेजों में मेरा पुराना नाम दर्ज है।
लव जिहाद के अधिकतर मामलों में शामिल लड़के प्रमुख मुस्लिम संगठनों के करीबी परिवारों के होते हैं। हर हफ्ते ऐसे दो-तीन मामले सामने आते हैं। हमें इस संकट को गंभीरता से लेना होगा, नहीं तो हिंदू आबादी तेजी से कम हो जाएगी। एक लड़की का जाना केवल संख्या में कमी होना नहीं, बल्कि एक पीढ़ी का कम होना है। आजकल मुस्लिम लड़कियां ज्यादा पढ़ी-लिखी होने के कारण ज्यादा बच्चे पैदा करने से कतराती हैं, क्योंकि वे बड़े परिवारों के संकटों के बारे में जानती हैं। लेकिन लव जिहाद की शिकार लड़कियां बड़े परिवारों के पक्षधरों का विरोध करने की स्थिति में नहीं होतीं।
केरल में लव जिहाद की क्या स्थिति है?
यह वास्तविकता है। मैं इस पर पिछले चार सालों से निगाह रख रहा हूं। ऐसे मामले तो बहुत हैं, लेकिन केरल पुलिस उन्हें दबा देती है। वे लड़कियों और उनके माता-पिता को डराते-धमकाते हैं, जिसके कारण पीड़ित पक्ष अदालत में सच नहीं बोलता है। अभी अपने एक मित्र की बेटी का मामला देख रहा हूं। पहले भी मेरे हस्तक्षेप के बाद एक मुस्लिम लड़के को 14 दिन की रिमांड पर भेजा गया था। फिलहाल कह नहीं सकता कि इस मामले में अंतत: क्या होगा, क्योंकि कोई नहीं जानता कि पुलिस क्या रवैया अपनाएगी। ईसाई लड़कियों को लव जिहाद में फंसाने के विरुद्ध कासा (क्रिश्चियन एसोसिएशन एंड अलायंस फॉर सोशल चेंज) आंदोलन की शुरुआत मेरे घर से हुई थी। लव जिहाद की शिकार लड़कियों के बारे में राज्यभर से जानकारी जुटाने के लिए मैंने काफी मेहनत की। इसका परिणाम चौंकाने वाला रहा। ऐसी लड़कियों की संख्या 4,000 से अधिक थी। कासरगोड में जब लव जिहाद के एक मामले में हस्तक्षेप किया तो एक मुकदमा दर्ज हुआ, जिसमें पहला आरोपी मुझे बनाया गया।
अमूमन लव जिहाद में शामिल लड़के किस पृष्ठभूमि के होते हैं?
लव जिहाद के अधिकतर मामलों में शामिल लड़के प्रमुख मुस्लिम संगठनों के करीबी परिवारों के होते हैं। हर हफ्ते ऐसे दो-तीन मामले सामने आते हैं। हमें इस संकट को गंभीरता से लेना होगा, नहीं तो हिंदू आबादी तेजी से कम हो जाएगी। एक लड़की का जाना केवल संख्या में कमी होना नहीं, बल्कि एक पीढ़ी का कम होना है। आजकल मुस्लिम लड़कियां ज्यादा पढ़ी-लिखी होने के कारण ज्यादा बच्चे पैदा करने से कतराती हैं, क्योंकि वे बड़े परिवारों के संकटों के बारे में जानती हैं। लेकिन लव जिहाद की शिकार लड़कियां बड़े परिवारों के पक्षधरों का विरोध करने की स्थिति में नहीं होतीं।
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