वेदमूर्ति श्रीपाद सातवलेकर, जिन्होंने चर्च खरीदकर बनवाया मंदिर, वेदों को स्कूलों में पढ़ाने पर दिया था जोर
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वेदमूर्ति श्रीपाद सातवलेकर, जिन्होंने चर्च खरीदकर बनवाया मंदिर, वेदों को स्कूलों में पढ़ाने पर दिया था जोर

पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त को ‘वैदिक राष्ट्रगीत’ बताकर एक पुस्तिका भी लिखी

by WEB DESK
Sep 19, 2022, 08:35 pm IST
in भारत
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वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का जन्म 19 सितम्बर, 1867 को महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी रियासत के कोलगाव में हुआ था। उनका परिवार वेदपाठी था। मामा श्री पेंढारकर के घर सावंतवाड़ी में रहकर उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली। वेदों के बारे में लिखे उनके लेख लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ में प्रकाशित किये। 1900 ई. में हैदराबाद में आर्य समाज से जुड़े और ऋषि दयानंद के कई ग्रन्थों का अनुवाद किया। वेदों में बलिप्रथा नहीं है, इसे सिद्ध करते हुए उन्होंने कई लेख लिखे। उन्होंने अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त को ‘वैदिक राष्ट्रगीत’ बताकर एक पुस्तिका लिखी।

श्रीपाद जी की स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता को देखकर अंग्रेजों ने अपने मित्र हैदराबाद के निजाम को इसे रोकने को कहा। अतः वे गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) आकर चित्रकला तथा वेद पढ़ाने लगे। लाहौर में उन्होंने ‘सातवलेकर आर्ट स्टूडियो’ स्थापित कर चित्रकला के साथ फोटोग्राफी भी प्रारम्भ की। 1919 में वे औंध आ गये। उनके प्रयास से औंध में स्वराज्य का संविधान लागू हुआ। 1936 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और औंध में संघचालक बने। देश स्वाधीन होने पर वे वे बलसाड़ (गुजरात) के पारडी ग्राम में बस गये। यहां उन्होंने एक चर्च खरीद कर उसमें वेदमंदिर स्थापित किया। 100 वर्ष पूर्ण होने पर समारोह में सरसंघचालक श्री गुरुजी ने उन्हें मानपत्र समर्पित किया। 31 जुलाई, 1969 को उनके सक्रिय जीवन का समापन हुआ।

पं. श्रीपाद दा. सातवलेकर जी ने अपने 61वें जन्मतिथि के उपलक्ष्य में आयोजित स्वागत समारोह में एक भाषण दिया था। उन्होंने कहा था कि वैदिक काल में राज्य का सेनाविभाग भी नियम और अनुशासनबद्ध था। वे सात-सात की पंक्ति में चलते थे, एक स्थान पर रहते थे तथा उन सबका वेश और शस्त्रास्त्र समान होते थे। आज पश्चिम के देश में जैसी सेना होती है, उसी प्रकार की वैदिक काल में होती थी। आश्चर्य की बात है कि यहां वेद का पठन-पाठन तो होता था, वैदिको दक्षिणा भी मिलती थी, परन्तु हमारी सेना अनुशासनबद्ध नहीं थी, जिसके कारण हम वर्षों पराधीन रहे। वेदों पर श्रद्धा थी परन्तु उनके उपदेशों पर आचरण करने की प्रवृत्ति नहीं थी। वेद-ज्ञान का उपयोग भी हो सकता है, यही पता नहीं था। इससे सिद्ध होता है कि सच्चे वेद-ज्ञान के प्रचार की आवश्यकता है।

सातवलेकर जी ने अथर्ववेद का उदाहरण दिया। हम देखते हैं कि पुरोहित ही सैन्य की व्यवस्था करता है, सैनिकों को शिक्षित करता है तथा किलों की रक्षा करता है। ‘मेरा यह ज्ञान तेजस्वी हो, मेरा यह वीर्य और बल तेजस्वी हो, क्षात्र-सामर्थ्य अविनाशी हो। जिनका मैं पुरोहित हूं उनका तेज बढ़े। हमारे ज्ञानी और धनी मित्रों पर जो सेना लेकर हमला करते हैं, वे नीचे गिरें, अवनत हो,। ज्ञान से मैं शत्रुओं को क्षीण करता हूं तथा स्वजनों को उन्नत करता हूं। जिनका मैं पुरोहित हूं, उनके शस्त्र, अग्नि तथा इन्द्र के वज्र से भी अधिक तीक्ष्ण बनाता हूं। उनके राष्ट्र को वीर्यवान करके शक्तिशाली बनाता हूं। उनका क्षात्र-तेज अविनाशी है। सब देव उनके चित्त का संरक्षण करें। यह पुरोहित का वक्तव्य है। उस समय का पुरोहित यह सब करता था। सेना की इन शस्त्रास्त्रों की व्यवस्था, किले तथा नगरों की रक्षा, शत्रु पर हमला तथा आक्रमण से अपने राष्ट्र की रक्षा आदि उसी के काम थे। क्षत्रिय लड़ते अवश्य थे परन्तु योजना करने वाला पुरोहित ही होता है।

“चार वर्ण, तीन लोक तथा चार आश्रम और तीन कालों में होने वाले सब कर्तव्य वेद से सिद्ध होते हैं। सेनापति का कार्य, राज्य शासन, दण्डनीति का व्यवहार तथा सब लोकों पर अधिकार के सभी कार्य वेद जानने वाला सुगमता से कर सकता है।’
मनुस्मृति की यह साक्षी देखकर प्रतीत होता है कि वेद में व्यक्तिगत, सामाजिक तथा राष्ट्रीय सभी कर्तव्यों का निर्देश है। इसलिए आज के दिन वेद का अध्ययन तथा संशोधन करने की विशेष रूप से आवश्यकता है। हम अपनी क्षमता के अनुसार कई भाषाओं में प्रकाशन का यह कार्य कर रहे हैं। और भी बहुत सा कार्य करना शेष है। हमारी इच्छा है कि पाठ्य पुस्तकों के रूप में वेद ज्ञान को प्रकाशित करें, जिससे उसे सभी बालक अपने स्कूल शिक्षा के साथ ही पढ़ सकें। साथ ही वैदिक सूक्तियों के संकलन, जो बहुत बोधक तथा उत्साहवर्धक हैं, प्रकाशित किए जाएं। वेद संबंधी विभिन्न विषयों पर, जनता की दृष्टि से, हम बहुत से छोटे-छोटे व्याख्यान भी प्रकाशित कर रहे हैं, जिनका मूल्य भी बहुत अल्प है।

यह समस्त कार्य बहुत बड़ा है। किसी एक व्यक्ति के लिए इसे करना संभव नहीं। इसके लिए बहुत से विद्वान एक साथ लगने चाहिए तथा बहुत सा धन भी अपेक्षित है। मैं आशा करता हूं कि आप सब वैदिक धर्म की उन्नति के लिए, जो भारतीय संस्कृति का मूल है परन्तु जिसे हम आज विस्मृत कर चुके हैं, यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे।

Topics: Vedamurti Shripad Satavalekarbought a churchbuilt a templeचर्चपंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकरसातवलेकर जी की जयंतीवेदमंदिर
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