अपनी कोई राष्ट्रीय राजभाषा नहीं है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि संयुक्त राज्य यानी अमेरिका उनमें से एक है। राजकाज के लिए वहां अधिकांशत: अंग्रेजी का उपयोग किया जाता है, लेकिन संघीय (यानी पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका) स्तर पर उनकी कोई घोषित राजभाषा नहीं है। हां, उसके कुछ राज्यों में दूसरी भाषाएं भी चलती हैं। उसके 31 राज्यों में कानून बनाने की घोषित भाषा अंग्रेजी है और यह भी वास्तव में एक राजनीतिक आंदोलन का परिणाम है।
कई ऐसे देश हैं जिनकी अपनी कोई राष्ट्रीय राजभाषा नहीं है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि संयुक्त राज्य यानी अमेरिका उनमें से एक है। राजकाज के लिए वहां अधिकांशत: अंग्रेजी का उपयोग किया जाता है, लेकिन संघीय (यानी पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका) स्तर पर उनकी कोई घोषित राजभाषा नहीं है। हां, उसके कुछ राज्यों में दूसरी भाषाएं भी चलती हैं। उसके 31 राज्यों में कानून बनाने की घोषित भाषा अंग्रेजी है और यह भी वास्तव में एक राजनीतिक आंदोलन का परिणाम है। एक राज्य ऐसा भी है जहां लगभग 20 भाषाओं को राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह राज्य है अलास्का। ठहरिए, अमेरिका अकेला ऐसा देश नहीं है। विकसित माने जाने वाले देशों में गिने जाने वाले आॅस्ट्रेलिया और स्वीडन की भी कोई घोषित राजभाषा नहीं है। इसके अलावा इरिट्रिया, लग्जमबर्ग और टिवलू की स्थिति भी यही है। यह उनके लिए न तो किसी लज्जा का विषय है और न आश्चर्य का। फिर क्या कारण है कि हमें हमारी भाषायी विविधता, जो कि वास्तव में हमारी समृद्धि है, के नाम पर भी धकियाने का प्रयास किया जाता है?
हिंदी के साथ षड्यंत्र
इस लेख का यह आशय बिल्कुल नहीं है कि किसी देश की एक राजभाषा नहीं होनी चाहिए। हिंदी सभी भारतीयों के हृदय के सबसे निकट है। एक भाषा के रूप में हिंदी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं और लिपि के रूप में देवनागरी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ लिपियों में सम्मिलित है। हमारी भाषा और लिपि दोनों ही अपार सामर्थ्य और संभावनाओं से भरी हुई हैं। देश ही नहीं, दुनिया में ये अपना स्थान स्वयं बना लेंगी। लेकिन हर साल सितंबर आने के साथ ही हिंदी के नाम पर अहर्निश रुदन का सिलसिला शुरू होता है और अंतत: हिंदी की क्लिष्टता की दुहाई के साथ संपन्न होता है। क्या आपको लगता है कि हिंदी, भारत या भारतवासियों का इस रुदन से कुछ भला होने वाला है? अधिकांशत: इन कार्यक्रमों में शामिल विद्वानों का कुल जोर केवल हिंदी को क्लिष्ट बताने और उसे आसान बनाने पर होता है। क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह हिंदी के भले के नाम पर वास्तव में हिंदी को दबाने का षड्यंत्र चल रहा है? छोटी-मोटी खामियों को तो स्वस्थ आलोचना से ठीक किया जा सकता है, लेकिन निंदा और मजाक उड़ाने जैसे कृत्य केवल हतोत्साहित करने के लिए किए जाते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि हममें हीन-भावना पैदा करने के लिए निरंतर निराशा का एक माहौल बनाने का प्रयास चल रहा है? किसी हद तक हम इसके शिकार हो भी गए हैं और जाने-अनजाने हममें से ही कुछ लोग इस षड्यंत्र का हिस्सा भी बन गए हैं।
‘धारावाहिक’ के सीने पर चढ़ा ‘सीरियल’
वैसे हिंदी को सहज बनाने का ‘रोग’ कोई नया नहीं है। जबसे हिंदी को राजभाषा बनाने की बात चली, तभी से यह ‘रोग’ चला आ रहा है। इसके तहत एक कृत्रिम भाषा के निर्माण का प्रयास किया गया और एक समय में उसी को सरकारी जनसंचार माध्यमों, जिनमें आकाशवाणी प्रमुख थी, के जरिए पूरे देश पर थोपने की कोशिश भी की गई। यह अलग बात है कि उसे बहुत दिन तक अमल में नहीं लाया जा सका। लेकिन उसके बाद देश में मीडिया के शेष संस्थानों ने उसे ऐसे अपना लिया कि मीडिया में चलने वाली हिंदी का आज अधिकांश भारत में चलने वाली हिंदी से लगभग न के बराबर संबंध रह गया है। इन्होंने केवल कुछ बड़े महानगरों में चलने वाली बेमेल खिचड़ी को ही पूरे भारत की भाषा मान लिया है।
आज के इस हठात् और बलात् वाले सहजीकरण का प्रसार टीवी की देन है। उनका मुख्य कार्य समाचार प्रसारण होने के नाते अभी भी उन्हें ‘समाचार चैनल’ कहने और लिखने वाले देश में शेष हैं तो यह उन पर ईश्वर की कृपा है। वरना ध्यान देकर देखें, समाचार चैनलों को खुद को समाचार चैनल कहने में अब शर्म आती है। वे ‘न्यूज चैनल’ में बदल चुके हैं। 99 प्रतिशत मामलों में आप उन्हें ‘ब्रेकिंग न्यूज’ कहते सुनेंगे। ‘ताजा समाचार’ कहीं खो गया। ‘परीक्षा’ के लिए सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी यही है, क्योंकि ‘एग्जाम’ ने उसे धकेल कर किनारे लगा दिया है। बोलचाल के महानगरीय राजमार्ग पर ‘पेपर्स’ ने ऐसा कब्जा कर लिया है कि बेचारे ‘प्रश्नपत्र’ फुटपाथ से भी नीचे लुढ़क गए हैं। ‘सीरियल’ अब ‘धारावाहिक’ के सीने पर चढ़ बैठे हैं। अचंभा सुने आपको कितने दिन हो गए, कुछ याद है? क्या हिंदी का यह शब्द क्लिष्ट हैं?
भाषा की दुर्दशा का मार्ग
भाषा की दुर्दशा के इस मार्ग को उस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रशस्त किया है जो मुख्यत: ’60 के बाद की फिल्मों से अत्यंत प्रभावित है। चूंकि उन्हें परदे पर आना था तो उन्होंने दूरदर्शन के बजाय सिनेमा की भोंडी नकल की और एक षड्यंत्र के अंतर्गत फिल्मों पर थोपी गई भाषा को ही अपना लिया। अब वे पूरी तरह इस अंधविश्वास के शिकार हो चुके हैं कि केवल अधकचरी फारसी और लंगड़ी अंग्रेजी की गरिष्ठ खिचड़ी ही बोलचाल की हिंदी है और यही आसान है। उन्हें किसी ने यह बताया ही नहीं कि टीआरपी के फर्जी आंकड़ों के विपरीत भारत में अब तक का सबसे सफल और सबसे लोकप्रिय धारावाहिक रामानंद सागर कृत ‘रामायण’ है और रामायण के पात्रों के संवादों से लेकर बीच-बीच में आने वाले रामानंद सागर के शास्त्रीय प्रमाण आधारित स्पष्टीकरणों तक जिस हिंदी का उपयोग हुआ है, वह संस्कृत मूल की तत्सम शब्दावली से संपन्न है। गांवों में जिन लोगों के पास टीवी नहीं था, वे 8 से 10 किलोमीटर तक की दूरी पैदल तय कर लेते थे ‘रामायण’ देखने के लिए। अब तक कितने धारावाहिकों के लिए ऐसा हुआ है?
ऐसा नहीं है कि यह धारावाहिक केवल उत्तर भारत में ही लोकप्रिय हुआ, दक्षिण की स्थिति भी यही थी। ‘लॉकडाउन’ के दौरान उसका दुबारा प्रसारण हुआ और इस दौरान 16 अप्रैल, 2020 को उसे 7.7 करोड़ दर्शक मिले। यह दुनिया भर में किसी भी धारावाहिक को मिली अब तक की सबसे बड़ी दर्शक संख्या है। 1987-88 में जब पहली बार इसका प्रसारण हुआ था, तब भी इसने ऐसा ही कीर्तिमान बनाया था। यह कीर्तिमान जून, 2003 तक ‘लिम्का बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज रहा।
ध्यान रहे, पुनर्प्रसारण के लिए उसकी भाषा बदली नहीं गई। वही संस्कृतनिष्ठ हिंदी जिसे समाचार चैनलों से लेकर अब अखबारों तक में बाहर का रास्ता दिखाने के लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है, ‘रामायण’ की भाषा तब भी थी और अब भी है। बाद में आए बी.आर.चोपड़ा के ‘महाभारत’ की नैया ‘रामायण’ के बनाए रास्ते से पार हो गई थी। भाषा के स्तर पर दोनों लगभग एक जैसे ही थे। एक और अत्यंत लोकप्रिय धारावाहिक डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी कृत ‘चाणक्य’ की भाषिक संरचना भी यही थी। प्रश्न यह है कि अगर संस्कृतनिष्ठ हिंदी इन महान प्रस्तुतियों के मार्ग में बाधा नहीं बनी तो आपके एक स्तरहीन समाचार या फूहड़ कहानी/उपन्यास या अश्लील हास्य के लिए क्यों है?
सहजीकरण की देन
दुखद सच यह है कि नई सदी में समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने भी यही भाषा अपना ली है। पाठकों को ध्यान होगा कि 1988 या ’89 में एक राष्ट्रीय दैनिक के साप्ताहिक परिशिष्ट के पहले पन्ने पर शरद जोशी का एक व्यंग्य छपा ‘बिहार जाकर नरभसाय गए शरद जोशी।’ यह हिंदी में अंग्रेजी शब्दों को बलात् ठूंसे जाने की भावभूमि पर केंद्रित था। लेकिन, नई सदी में उसी समाचार-पत्र में हिंदी के शीर्षकों में रोमन वर्तनी भी देखी गई। यहां तक कि हिंदी के अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर अंग्रेजी में लेख तक देखे। यह सब उसी सहजीकरण की देन है जिसके लिए विभिन्न मंचों से हिंदी के विद्वान महीने भर महत्वपूर्ण उपदेश देते हैं।
कुछ लोग इसके लिए गांधी जी द्वारा हिंदुस्तानी को प्रोत्साहित किए जाने का तर्क भी देते हैं। लेकिन, यह तर्क देते हुए वे सुविधापूर्वक यह भुला देते हैं कि गांधी जी ने ऐसा किन परिस्थितियों में और क्यों किया था और यह भी कि उसका परिणाम क्या हुआ। उसे उस समय की पूरी संविधान सभा ने नकार दिया था और उर्दू या हिंदुस्तानी की जगह ‘देवनागरी लिपि में हिंदी’ भारत की राजभाषा के रूप में संविधान सभा द्वारा ध्वनिमत से पारित की गई थी। उस समय नकार दी गई उसी हिंदुस्तानी को 1960 के दशक में सिनेमा में पिछले दरवाजे से लाया गया। अगर 1960 तक की हिंदी फिल्मों पर आप भाषा की दृष्टि से ध्यान दें तो वह आपको आज की फिल्मों से बिल्कुल भिन्न मिलेगी। ’60 के बाद फिल्मों की हिंदी बिगाड़ने का क्रम धीरे-धीरे शुरू हुआ।
पिछली सदी के अंतिम दशक में एक साथ दो मोर्चे खोले गए। पहला हिंदी की लोकप्रियता का सारा श्रेय फिल्मों को देने का, गोया सुदूर टापुओं तक घर-घर पहुंच चुकी आकाशवाणी और भारत के हर शहर में सक्रिय ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ तो बस ऐसे ही अंत्याक्षरी खेल रही थी। दूसरा मोर्चा था हिंदी से संस्कृत मूल के शब्दों को निर्वासित करने का। आज आप तथाकथित हिंदी फिल्मों की जो दुर्दशा देख रहे हैं, उसमें कारण केवल बहिष्कार ही नहीं है, भारत की भाषा और संस्कृति के साथ इनका दुर्व्यवहार भी है।
शब्द ठूंसने के प्रयास
प्रश्न यह है कि जिस सहजीकरण का परिणाम यह हो, उसकी आवश्यकता ही क्या है? यह पूछने पर कारण बताया जाता है हिंदी की क्लिष्टता। वैसे किसी शब्द के क्लिष्ट होने की परिभाषा क्या है, यह मुझे आज तक कोई बता नहीं पाया। कुछ लोगों को आवश्यकता, अवसाद, महत्वपूर्ण, आद्योपांत जैसे शब्द भी क्लिष्ट लगते हैं, पर यही लोग शशि थरूर द्वारा किसी ट्वीट में प्रयुक्त अंग्रेजी के ‘फ्लॉक्सिनॉसिनिहिलिपिलिफिकेशन’ शब्द पर लहालोट होते हैं। जबकि ये लोग इस शब्द का ठीक-ठीक उच्चारण तक नहीं कर पाते। ऐसे अनेक लोग हैं। उनके उच्चारण के ही आधार पर इसकी क्लिष्टता की बात उठाओ तो बेचारे वही तर्क वापस करने लगते हैं जो हिंदी के शब्दों के मामले में उन्हें दिया जाता है- ‘‘क्लिष्ट जैसा कुछ होता ही नहीं, बस जब तक किसी शब्द से आपका परिचय नहीं होता, वह आपको क्लिष्ट लगता है।’’ क्लिष्टता से निपटने का एक ही रास्ता है कि अपना शब्द भंडार बढ़ाएं।
अगर अंग्रेजी के लिए यह किया जा सकता है तो हिंदी के लिए क्यों नहीं? भले वे बेचारे स्वयं ‘स्ट्रेटजी’ को ‘स्टेटर्जी’ बोलते हैं, लेकिन एक वाक्य में ‘औचित्य’ और ‘त्रासद’ जैसे शब्दों के प्रयोग पर वे मजाक उड़ाने लगते हैं। उनका भूत तब उतरता है, जब उनके बोले अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण और वाक्यों के व्याकरण का शुद्धीकरण शुरू कर दिया है। वास्तव में आसानी के नाम पर अशुद्धता का दुराग्रह हिंदी से उसकी संपदा छीनने का षड्यंत्र है। किसी भाषा की वास्तविक संपदा उसके शब्द ही होते हैं।
आप उनमें नए शब्द जोड़ें, चाहे वे किसी भी मूल के हों, लेकिन हिंदी की व्याकरणिक कोटियों के अनुरूप। मनमाने तरीके से नहीं। और क्लिष्टता के नाम पर मजाक उड़ाकर हिंदी की अपनी शब्द-संपदा को छीनने का काम तो बिल्कुल न करें। सामान्य वस्तुओं की संज्ञाओं, क्रियाओं और विशेषणों तक के लिए जिस तरह हिंदी में दूसरी भाषाओं के शब्द ठूंसने के प्रयास हो रहे हैं, वह बिल्कुल वैसे ही है, जैसे दूध में नमक डालकर उबाला जाए या फिर भिंडी और करेले को एक साथ बनाया जाए। इस प्रवृत्ति से कुछ भला होने नहीं जा रहा, यह केवल नुकसान पहुंचाएगा।
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