आज ‘भूदान’ आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे की 127वीं जयंती है। 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे विनायक नरहरि (विनोबा) भावे को विशेष रूप से आजादी के बाद भूमिहीनों को भूमि दिलाने के लिए उनके द्वारा किये गये देश के सबसे अनूठे भूदान आंदोलन के लिए जाना जाता है। विनोबा भावे वर्ष 1958 में ‘’रमन मैग्सेसे पुरस्कार’’ प्राप्त करने वाले पहले अंतरराष्ट्रीय और भारतीय व्यक्ति थे। उन्हें 1983 में मरणोपरांत ‘’भारत रत्न’’ से भी सम्मानित किया गया था।
साल 1947 में आजादी के बाद भारत भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। पूरे देश में अशांति का माहौल था। तेलंगाना (आंध्र प्रदेश) में वामपंथियों की अगुवाई में एक हिंसक संघर्ष चल रहा था। यह भूमिहीन किसानों का आंदोलन था। वामपंथियों की मंशा यह दिखाने की भी थी कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था कभी सफल नहीं हो सकती। जब विनोबा को इस संघर्ष की सूचना मिली तो वे उसी दौरान 18 अप्रैल 1951 को उन किसानों से मिलने के लिए नलगोंडा के पोचमपल्ली गांव पहुंचे। आंदोलन कर रहे किसानों ने उनसे अपनी आजीविका के लिए 80 एकड़ जमीन की मांग करते हुए कहा कि यदि उनके समुदाय के 40 परिवारों के लिए 80 एकड़ जमीन मिल जाए तो उससे उनके परिवारों का गुजारा हो जाएगा। विनोबा जी में उनकी मांग सुनकर उस क्षेत्र के जमींदारों से बात की। विनोबा जी की बातों का उस इलाके के रामचंद्र रेड्डी नाम के एक संपन्न जमींदार पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने उसी समय अपनी सौ एकड़ जमीन भूमिहीन किसानों को दान कर दी। इस घटना ने विनोबा भावे को पूरे देश में भूदान अभियान चलाने को प्रेरित किया।
विनोबा भावे की अगुवाई में पूरे भारत में 13 वर्षों तक भूदान आंदोलन चलता रहा। इस आंदोलन के दौरान उन्होंने देश के कोने-कोने तक पदयात्रा करते हुए करीब 58,741 किलोमीटर की यात्रा की और करीब 13 लाख गरीब भूमिहीनों को 44 लाख एकड़ भूमि दान दिलायी। स्वैच्छिक सामाजिक न्याय के दृष्टिगत छेड़ा गया उनका यह आंदोलन पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और बिहार में राज्य सरकार ने भूदान एक्ट भी पास कर दिया। विनोबा बड़े किसानों को भूदान के लिए प्रेरित करते हुए कहते थे- “ सबै भूमि गोपाल की’’। अर्थात हवा और पानी की तरह भूमि पर भी सबका अधिकार होना चाहिए। आप मुझे अपना बेटा मानकर अपनी जमीन का छठा हिस्सा दे दीजिए। जिस पर आपके भूमिहीन गरीब भाई बस सकें और खेती-किसानी कर अपना पेट पाल सकें। 1955 तक आते-आते उनके भूदान आंदोलन ने एक नया रूप धारण कर लिया था। यह आजादी के बाद का अपने तरह का देश का अपनी किस्म का अनूठा जनांदोलन था। इसके पीछे विनोबा जी की मंशा मनुष्य के अंदर के तत्व को जगाकर सामाजिक परिवर्तन लाने की थी। भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। ज्ञात हो कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1948 में विनोबा जी ने ‘सर्वोदय समाज’ की स्थापना की थी और 1951 में स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन के रूप में उन्होंने भूदान यज्ञ का सफल क्रियान्वयन कर राष्ट्र की उन्नति में अपना अनमोल योगदान दिया था।
अंग्रेजों को खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले व्यक्तिगत सत्याग्रही
विनोबा भावे अपनी पूरी जिंदगी सत्य और अहिंसा की राह पर चलते हुए गरीब और बेसहारा लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे। हमेशा लोगों के हृदय बदलने में लगे रहते थे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और देशवासियों से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने की अपील की। आजादी की लड़ाई में भावे के बढ़ते कद को देख, अंग्रेजी हुकूमत परेशान हो गयी और शासन का विरोध करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें छह महीने की सजा हुई थी। बाद के वर्षों में विनोबा भावे को कई बार जेल जाना पड़ा। 1940 में महात्मा गांधी ने उन्हें अंग्रेजों को खिलाफ आवाज उठाने वाला पहला व्यक्तिगत सत्याग्रही घोषित किया। विनोबा भावे ने गांधीजी के साथ देश के स्वाधीनता संग्राम में बहुत काम किया। उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी। इसी कारण सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनीतिक सक्रियता भी भरपूर थी। उनका मानना था कि भारतीय समाज के पूर्ण परिवर्तन के लिए अहिंसक एवं नैतिक क्रांति की आवश्यकता है। उन्होंने अपना प्रेम, विश्वास और सौहार्द सबमें बांटा और उपलब्धियों में सबको सहभागी बनाया। स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान उन्हें पांच साल कारावास की सजा भी हुई। जेल प्रवास के दौरान गीता पर दिये गये उनके प्रवचन बहुत विख्यात हैं। बाद में वे पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हुए। आध्यात्मिक मनीषियों के अनुसार गीता की इतनी सरल एवं सुबोध व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है।
भगवद्गीता बनी संजीवनी
जब भारत आजाद हुआ तो देश की सरकार के सामने विकास के दो मॉडल थे। एक मॉडल प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का था जो इंग्लैंड और रूस के आर्थिक-औद्योगिक मॉडल के प्रबल समर्थक थे जबकि दूसरा गांधीवादी मॉडल विनोबा का था, जिसका मकसद हिन्दी, खादी, स्वदेशी आधारित शिक्षा ग्राम पंचायतों, दलितों, महिलाओं और मजदूरों का गांवों के संसाधानों का उपयोग करके ग्रामोद्योग के जरिए देश का विकास करना था। विनोबा जी इसी मॉडल पर आगे बढ़कर उनके सर्वोदय को हासिल करना चाहते थे। लेकिन नेहरू जी के आगे उनका मॉडल पीछे हो गया। बावजूद इसके उन्होंने अपने स्तर पर भारतीय समाज में सरल जीवन पद्धति को बढ़ावा देने के लिए कई आश्रम शुरू किए। बापू के वर्धा आश्रम के संचालन का कार्य उन्होंने पहले ही अपने ऊपर ले लिया था। इसके बाद 1959 में उन्होंने महिलाओं को मजबूती देने के लिए ‘ब्रह्म विद्या मंदिर’ की शुरुआत की। वह गोहत्या और मैला ढोने की कुप्रथा के भी सख्त खिलाफ थे। विनोबा भावे को महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी समझा जाता है। मगर वे गांधीजी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे ज्ञान के अक्षय कोष थे। गांधी जी के सान्निध्य में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक उच्चता के शीर्ष पर पहुंच चुके थे। संत ज्ञानेश्वर एवं संत तुकाराम उनके आदर्श थे। भगवद्गीता को अपनी जीवन संजीवनी मानने वाले विनोबा व्यापक जनसरोकार वाले जननेता, अनूठे प्रवचनकार व कर्मप्रधान महामनीषी थे, जिनका हर संवाद आज एकप्रेरक संदेश बन चुका है। उन्होंने अपने प्रवचनों में गीता का सार बेहद सरल शब्दों में जन-जन तक पहुँचाया ताकि उनका आध्यात्मिक उदय हो सके, अंधेरों में उजाले एवं सत्य की स्थापना हो सके।
लेखनी के धनी विनोबा जी
विनोबा जी के पिता नरहरि शंभू राव पेशे से बुनकर और माँ रुक्मिणी देवी धार्मिक विचारों वाली गृहणी थीं। अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़े विनायक बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे। गणित उनका पसंदीदा विषय था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बड़ौदा (गुजरात) में हुई थी। विठोबा की परम भक्त माँ के आध्यात्मिक संस्कारों का बालक विनोबा के बालमन पर गहरा प्रभाव था। इसी आध्यात्मिक अभिरुचि ने उन्हें लड़कपन से ही स्वाध्यायी बना दिया था। वे भगवद्गीता से काफी गहराई से प्रभावित थे। अपने शिक्षाकाल में ही उन्होंने धर्म- दर्शन और साहित्य की सैकड़ों पुस्तकें पढ़ डाली थीं। अपनी स्नातक की पढ़ाई के दौरान वे राजनीति, अर्थशास्त्र जैसे कई आधुनिक सिद्धांतों के अध्ययन के साथ ही वे स्वाध्याय से धर्मग्रंथों के अध्ययन व अनुशीलन में भी जुट गये। मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, गुजराती आदि कई भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले विनोबा जी लेखनी के भी धनी थे। ‘स्वराज्य शास्त्र’, ‘तीसरी शक्ति’ और ‘गीता प्रवचन’ जैसी पुस्तकें उनकी अद्वितीय लेखकीय क्षमता की परिचायक हैं। अपनी माँ के आग्रह पर उन्होंने ‘श्रीमदभगवद्गीता’ का ‘गीताई’ नामक मराठी काव्यानुवाद भी किया था। गुजरात के वर्धा आश्रम से उन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ नाम से मराठी भाषा की एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। इसके पीछे उनका मकसद देशवासियों में वैदिक ज्ञान-विज्ञान और उपनिषद के संदेशों को पहुंचाने का था। 15 नवंबर 1982 को इच्छामृत्यु का वरण कर मृत्युलोक से महाप्रयाण कर जाने वाले इस महामनीषी की जयंती पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि हम सब देशवासी उनके सतत कर्मयोगी के जीवन से प्रेरणा लेकर आदर्श भारतीय समाज की संरचना में अपना यथासंभव योगदान दे सकें।
टिप्पणियाँ