पार्टी का आंतरिक असंतोष अक्तूबर में होने वाले संगठनात्मक चुनाव के दौरान या उसके बाद भड़के तो हैरत नहीं होनी चाहिए। राहुल के बारे में मान लिया गया है कि वे अध्यक्ष नहीं बनेंगे। यदि वे बने भी, तो उन्हीं कारणों से असंतोष जारी रहेगा, जिन कारणों से गुलाम नबी आजाद ने इस्तीफा दिया है।
गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे पर कांग्रेस पार्टी ने कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया। आजाद ने चिट्ठी में राहुल गांधी को निशाना बनाया, पर उन्होंने भी जवाब नहीं दिया है। इस मुद्दे पर कांग्रेस सार्वजनिक चर्चा से बचना चाहती है। लेकिन संकेत हैं कि पार्टी के भीतर असंतोष बढ़ रहा है। दो साल से राहुल गांधी कह रहे हैं कि जिन्हें जाना है, वे जाएं। 24 अगस्त, 2020 को जब पहली बार जी-23 के पत्र पर विचार-विमर्श हुआ, तब उन्होंने इसे साजिश बताया था। विश्लेषक मानते हैं कि उनका यह रवैया पार्टी का सफाया कर देगा।
पार्टी का आंतरिक असंतोष अक्तूबर में होने वाले संगठनात्मक चुनाव के दौरान या उसके बाद भड़के तो हैरत नहीं होनी चाहिए। राहुल के बारे में मान लिया गया है कि वे अध्यक्ष नहीं बनेंगे। यदि वे बने भी, तो उन्हीं कारणों से असंतोष जारी रहेगा, जिन कारणों से गुलाम नबी आजाद ने इस्तीफा दिया है। नया अध्यक्ष परिवार से बाहर का होगा, तो उसके सामने दूसरे किस्म की दिक्कतें आएंगी। वह मन से काम नहीं कर सकेगा, क्योंकि उसे ऊपरी आदेशों को मानना होगा। स्वतंत्र रूप से काम करने की कोशिश करेगा, तो उसका चलना मुश्किल होगा। परिवार का विश्वस्त होने के बावजूद उसे दूसरे नेताओं के साथ पटरी बैठाने में भी दिक्कतें आएंगी।
राहुल से शिकायतें
आजाद ही नहीं, हाल के वर्षों में पार्टी छोड़ने वाले अधिकतर नेताओं को राहुल से शिकायत है। आजाद ने सोनिया गांधी को लिखा है कि पार्टी में शीर्ष पर ऐसा आदमी थोपा गया, जो गंभीर नहीं है। राहुल का रवैया 2014 में हार का कारण बना। अब अहम फैसले उनकी चाटुकार मंडली कर रही है और अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया है। पार्टी औपचारिक रूप से खामोश है, पर जयराम रमेश जैसे नेता मुखर हैं।
उन्होंने हाल में ट्वीट किया, ‘‘आजाद वर्षों तक जिस पार्टी में रहे, जहां उन्हें सब कुछ मिला। उन्हें उसी पार्टी को बदनाम करने का काम सौंपा गया है। यह उनके स्तर को और गिरा रहा है। आखिर क्यों हर मिनट वह अपने विश्वासघात को सही ठहरा रहे हैं? उन्हें आसानी से बेनकाब किया जा सकता है, लेकिन हम अपना स्तर क्यों गिराएं?’’ उन्होंने एक और ट्वीट में कहा, ‘‘जीएनए (गुलाम नबी आजाद) का डीएनए ‘मोदी-फाइड’ है।’’
यानी अपने गिरेबान में झांकने की बजाय कांग्रेस ने इस मुद्दे को नरेंद्र मोदी की ओर मोड़ने की कोशिश की है। 28 अगस्त को संगठनात्मक चुनाव का कार्यक्रम बनाने के लिए हुई कार्यसमिति की बैठक में भी इस्तीफे की चर्चा नहीं हुई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कार्यसमिति की संभवत: यह अंतिम बैठक थी। इसमें विवादों को उठाना उचित नहीं समझा गया।
आंदोलन की तैयारी
आजाद का इस्तीफा ऐसे समय हुआ है, जब कांग्रेस जनांदोलनों की तैयारी कर रही है। दिल्ली में महंगाई और बेरोजगारी के विरुद्ध रैली के बाद 7 सितंबर से राहुल गांधी ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा पर निकलने वाले हैं। लेकिन यात्रा के कार्यक्रम और इससे जुड़े संगठनों को लेकर पर्यवेक्षकों के मन में संशय है। इसी दौरान पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की परीक्षा गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में होगी। पार्टी के सामने तीन प्रश्न हैं-नेतृत्व, संगठन और विचारधारा। इन तीनों का जवाब है-राहुल गांधी। पार्टी की ‘शुद्धि या सफाई’ का मतलब है- राहुल के सामने समर्पण। बीते नौ वर्षों में काफी लोग कांग्रेस छोड़ गए। हर बार कहा जाता है कि अच्छा हुआ, गंध गई। अब ताजगी का नया दौर शुरू होगा।
राहुल भले ही अध्यक्ष नहीं हैं, पर कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। जो उन्हें नेता नहीं मानेंगे, धीरे-धीरे बाहर चले जाएंगे या हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। अतीत में सुभाष चंद्र बोस से लेकर आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद पवार, ममता बनर्जी तक कई बड़े नेता पार्टी छोड़कर चले गए, पर कांग्रेस अपनी चाल से चलती रही। क्या इस बार भी वैसा ही होगा, जैसा होता रहा है? हाल के वर्षों का पलायन अतीत के पलायनों से कई मायनों में अलग है। बीते दो दशकों में तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस जैसे कम से कम तीन राजनीतिक दल अपने-अपने इलाकों में कांग्रेस के विकल्प बन चुके हैं। मान लिया पार्टी आजाद के इस्तीफे से उबर जाएगी, पर अंदेशा है कि उसका मंद-ज्वर तपेदिक में बदल जाएगा।
रिमोट कंट्रोल
‘गैर-गांधी’ को अध्यक्ष बनाने की अनुमति देने का मतलब यह नहीं कि ‘परिवार’ का वर्चस्व खत्म हो जाए। अध्यक्ष जो भी होगा, उसे राहुल गांधी के निर्देश पर चलना होगा। राहुल अध्यक्ष नहीं हैं, पर अधिकांश फैसले वही करते हैं। आजाद ने चिट्ठी में लिखा है, ‘‘जिस रिमोट कंट्रोल मॉडल ने संप्रग सरकार की सत्यनिष्ठा को तबाह किया, वही मॉडल कांग्रेस के भीतर लागू हो गया। आपके पास सिर्फ नाम का नेतृत्व है, सभी महत्वपूर्ण फैसले या तो राहुल गांधी करते हैं या इससे भी बदतर स्थिति में उनके सुरक्षाकर्मी और पीए करते हैं।’’ इस साल फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ते हुए कहा था कि जल्द ही दूसरे कई नेता कांग्रेस छोड़ेंगे और सोनिया गांधी जानती हैं कि क्यों छोड़ेंगे।
उन्होंने खुलकर यह नहीं कहा कि वरिष्ठ नेताओं की राहुल से नहीं बनती और जिनसे सहन नहीं हो पा रहा है, वे पार्टी छोड़ेंगे या हाशिए पर चले जाएंगे। पार्टी से नेताओं का पलायन वर्षों से हो रहा हे, पर किसी ने आजाद की तरह कड़वाहट के साथ अपनी बात नहीं कही है। पार्टी छोड़ने वाले अधिकतर नेता पुराने हैं, पर केवल पुराने नहीं हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव और आरपीएन सिंह को पुरानी पीढ़ी का नहीं माना जा सकता। हार्दिक पटेल तो कुछ समय पहले ही पार्टी में आए थे। समस्या नए-पुराने की नहीं है, बल्कि ‘विश्वासपात्र’ साबित होने की है। वे युवा हों या पुराने, राहुल गांधी के ‘प्रतिस्पर्धी’ बनकर पार्टी में नहीं रह सकते। पार्टी को चलाने वालों में से कुछ इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि ‘परिवार’ अब कारगर नहीं रहा। वह चुनाव नहीं जिता सकता। पर पार्टी भी ‘परिवार की नकेल के बगैर’ चल नहीं सकती।
संगठन पर परिवार हावी
1969 के बाद से कांग्रेस की आंतरिक प्रक्रियाएं उतनी पारदर्शी नहीं हैं, जितनी उसके पहले तक थीं। 1971 तक पार्टी पूरी तरह इंदिरामय हो गई। देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया’ घोषित कर दिया। कुछ समय तक पार्टी का नाम कांग्रेस (इंदिरा) था, फिर कांग्रेस (संगठन) का अस्तित्व खत्म होता गया और कांग्रेस की पारिवारिक शक्ल उभरती गई। 1971 में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं था, 1977 में एक ‘क्षणिक विकल्प’ पैदा हुआ और 1980 में वापसी हो गई। उसे याद करके ही मई 2014 की हार के बाद कार्यसमिति की बैठक में ‘बाउंसबैक’ की उम्मीदें व्यक्त की गई थीं। पर आज 1980 जैसी स्थिति नहीं है। 1977 में जनता पार्टी ने कुछ देर के लिए कांग्रेस को परास्त कर दिया था, पर उसका न तो संगठनात्मक आधार था, न वैचारिक। आज भाजपा अपनी जड़ें जमा चुकी है। उस समय इंदिरा गांधी नए विचार और नई ऊर्जा के साथ सामने आई थीं। आज वह ऊर्जा नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस से छीन ली है। ‘राहुल खेमे’ को लगता है कि देशवासियों को अपनी ‘भूल’ का अहसास होगा और वे कांग्रेस से माफी मांगते हुए उसे सत्ता सौंप देंगे। सच यह है कि पार्टी अब अपने पैरों पर खड़ी होने लायक नहीं रही।
पारिवारिक बागडोर
कांग्रेस के इतिहास में 1977 की पराजय का विशेष महत्व है। इसी के बाद 1978 में इंदिरा गांधी पार्टी की अध्यक्ष बनी थीं। फिर संजय गांधी और राजीव गांधी को राजनीति में लाया गया। सिर्फ इसलिए कि विकल्प परिवार के भीतर से ही होगा। 1984 तक इंदिरा गांधी और उनकी हत्या के बाद 1984 से 1991 तक राजीव गांधी अध्यक्ष रहे। पीवी नरसिंह राव और सीताराम केसरी का कार्यकाल पार्टी के भीतर के ऊहापोह का काल था। उस दौरान पार्टी को खानदान से अलग करने की कोशिशें भी हुईं। जिसका खामियाजा पद से हटने के बाद नरसिंहराव और केसरी को भुगतना पड़ा। मार्च 1998 में सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने के पहले केसरी को नाटकीय तरीके से हटाया गया। सोनिया 1997 के कोलकाता अधिवेशन में पार्टी की प्राथमिक सदस्य बनीं और कुछ महीनों के भीतर उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। इसमें पार्टी के ही वरिष्ठ नेताओं की भूमिका थी। उन्होंने इसके सहारे अपने हित साधे, पर अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं।
राहुल को भावी नेता बनाने की कोशिशें 2003 के आसपास शुरू हुर्इं। 2004 में वे अमेठी से लोकसभा चुनाव भी जीते, पर कम उम्र के कारण 2004 में प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। हालांकि उन्हें महत्वपूर्ण बनाए रखने की कोशिशें होती रहीं। 24 सितंबर, 2007 को उन्हें महासचिव नियुक्त करने के साथ युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का कार्यभार भी दिया गया। 2009 में मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री बनाने की पेशकश की, पर वे तैयार नहीं हुए। फिर कहा गया कि 2014 में प्रधानमंत्री उन्हें ही बनाया जाएगा। उसकी तैयारी नवंबर 2012 से ही शुरू हो गई, जब उनके नेतृत्व में चुनाव समन्वय समिति बनी। जनवरी 2013 में पार्टी ने जयपुर में चिंतन शिविर किया, जिसमें चिंतन नहीं, केवल राहुल गांधी को बेटन थमाया गया।
पार्टी में समूह
इन सब बातों से पार्टी के भीतर दो तरह के समूह बन रहे थे। एक, राहुल गांधी के इर्द-गिर्द, जिसमें नए-पुराने नेता थे। दूसरा, सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल के इर्द-गिर्द, जो वरिष्ठ नेताओं का अनौपचारिक समूह था। जून से अगस्त 2012 के बीच जब कोल-ब्लॉक आवंटन को लेकर मनमोहन सिंह विवादों में घिरे, तब दिग्विजय सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री पद सौंपने की सलाह दी। तब भी वे तैयार नहीं हुए।
2014 के चुनाव में संगठनात्मक विसंगति दिखाई पड़ने लगी। राहुल के 12-तुगलक रोड स्थित आवास से चुनाव प्रक्रिया का संचालन हो रहा था और पार्टी के वॉर रूम में सन्नाटा था। इसमें शामिल लोग राहुल के प्रभामंडल से जुड़े थे। राहुल ने अमेरिका की तर्ज पर आंतरिक चुनाव का पायलट प्रोजेक्ट बनाया। जब सूचियां जारी हुईं, तब प्राथमिक विजेताओं के नाम गायब हो गए। इस किस्म के अंतर्विरोध शुरू से ही देखने में आए। आजाद ने लिखा है कि 2014 में चुनाव लड़ने के लिए जो योजना बनी थी, वह नौ साल से कांग्रेस के स्टोररूम में बंद है। बहरहाल 2014 के चुनाव परिणामों ने गुब्बारे की हवा निकाल दी। परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने कहा कि वे सरकार में नहीं थे। गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर।
1977 में भारी पराजय के बाद 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का पुनर्जन्म हुआ। तब देश में कोई दूसरी ताकत नहीं थी। 1989 में वैकल्पिक ताकत ने जन्म लिया, पर वह लंगड़ी साबित हुई। इसलिए 1991 में बेटन फिर कांग्रेस के हाथ में आया, पर पहली बार नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से कांग्रेस की सत्ता बाहर निकल आई। 1969 के बाद कांग्रेस का एक और रूपांतरण हो रहा है। अब मैदान में राहुल और उनकी कांग्रेस है। 2019 की पराजय के बाद उन्होंने पार्टी के कुछ दिग्गजों को लेकर अपनी अरुचि व्यक्त की थी। वह तत्व खत्म हो रहा है और बचा-खुचा बाहर हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल से कुछ ज्यादा समय बचा है। इस बार राहुल अपनी रणनीतियों और टीम के साथ होंगे। परीक्षा अब उनकी है।
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