हरभगवान विरमानी
लायलपुर, गुजरांवाला, पाकिस्तान
मुझे वह दिन भुलाए नहीं भूलता जब स्थानीय मुसलमान झुंड में आकर हिन्दुओं के घरों पर टूट पड़ रहे थे, आग लगा रहे थे, उन्हें लूट रहे थे, बहन-बेटियों की इज्जत को तार-तार कर रहे थे। इसे देखकर इलाके का हर हिन्दू सहमा, अपने घरों में दुबका हुआ था। दूर-दूर तक कोई मदद को नहीं आ रहा था।
चूंकि मेरा पूरा परिवार संघमय था, इसलिए मैं भी बचपन से स्वयंसेवक बन गया। हिन्दुत्व में रचे-बसे होने के कारण मेरे परिवार से जुड़े लोग आस-पास के हिन्दुओं की हरसंभव मदद कर रहे थे।
खतरा इतना अधिक था कि आस-पास के सभी हिन्दू लगभग एक ही मुहल्ले में आकर रहने लगे। रात को सभी पहरा देते थे और कोई हमला करे तो उसका प्रतिकार कैसे करना है, इसकी रणनीति भी बनाते थे। हम पांच भाई और एक बहन थे।
बंटवारे के समय मेरी उम्र 16 वर्ष थी। मेरे पिताजी की एक छोटी-सी दुकान थी, जिससे घर का खर्चा चलता था। लेकिन हालात खराब होने के कारण सब बिखरता जा रहा था। सभी हिन्दू परिवारों के साथ ऐसा हो रहा था।
संयोग से एक दिन पास के बाजार में भारत की ओर से एक ट्रक आया, जिसके चालक से मेरे पिता जी ने बात की। वह कुछ लोगों को ले जाने को राजी हो गया। मैं अपने भाई के साथ लाहौर होते हुए सुरक्षित अमृतसर आ गया।
लेकिन मेरे पिता और परिवार के अन्य सदस्य अभी वहीं फंसे हुए थे। मेरे चचेरे भाई अमृतसर के पास नौकरी करते थे। हम उनके घर रुके। उन्होंने मेरा ख्याल रखा। तीन महीने बाद पूरा परिवार यहीं आ गया। कुछ समय बीता तो परिवार लुधियाना आ गया।
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