जब भी सोचता हूं तो एक अजीब-सी उलझन होने लगती है। अचानक एक दिन हमारे मुहल्ले में भी हालात खराब हो गए। फिर एक दिन ऐसा आया कि मुहल्ले के लोगों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा।
मनोहर लाल धवन
काकीनौ, झंग, पाकिस्तान
बंटवारे के दिनों के बारे में जब भी सोचता हूं तो एक अजीब-सी उलझन होने लगती है। अचानक एक दिन हमारे मुहल्ले में भी हालात खराब हो गए। फिर एक दिन ऐसा आया कि मुहल्ले के लोगों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा।
मुझे याद है कि गांव वालों ने तय किया कि सभी लोग पाकिस्तान छोड़कर अमृतसर चलेंगे। छोटे बच्चों और महिलाओं को बैलगाड़ी में बैठाया गया और घर के बड़े- बुजुर्ग और नौजवान बैलगाड़ियों को घेर कर चल रहे थे। एक कारवां जैसा था।
जैसे ही कोई हमला होता तो सभी गाड़ियां रुक जातीं और नौजवानों के पास जो अस्त्र-शस्त्र होते, वे उन्हें लेकर तैयार हो जाते। हालात इस कदर खराब थे कि मेरी बैलगाड़ी जिस रास्ते से गुजर रही थी, उस रास्ते में दोनों ओर लाशें बिछी हुई थीं। कई बार हमारे कारवां पर भी हमला हुआ।
गांव के कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। किसी को यह नहीं पता था कि वह बच पाएगा या नहीं। इसे देख सभी डरे हुए थे। खैर, अनेक कष्टों को सहते हुए अमृतसर पहुंचे तो सेना एवं संघ के स्वयंसेवकों ने हम सभी की काफी मदद की। मेरे साथ जो भी बड़े-बुजुर्ग थे, वे बताते हैं कि उस परिस्थिति में संघ के स्वयंसेवक ही हर प्रकार की मदद के लिए प्राणपण से जुटे थे।
इसके बाद हम सभी कुरुक्षेत्र के एक शिविर में रहे। कुछ समय यहां गुजारने के बाद मैं रोहतक के वंशी गांव में रहने लगा। यहां रहकर ही हमारी शिक्षा-दीक्षा हुई। उस समय काफी कठिन परिस्थिति थी, लेकिन संघ के स्वयंसेवकों ने प्रत्येक स्थान पर पाकिस्तान से आए हुए हिन्दुओं की हर संभव मदद की।
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