अविभाजित सोवियत संघ के कभी कद्दावर नेता रहे मिखाइल गोर्बाचेव का निधन हो गया। वे 91 वर्ष के थे। गोर्बाचेव ऐसे नेता माने जाते हैं जिन्होंने बिना रक्तपात के शीत युद्ध को खत्म कराने में मुख्य किरदार निभाया था। उन्होंने भारत के साथ सोवियत संघ के संबंधों को विशेष रूप से सहेजा था। लेकिन यह बात भी सच है कि वह सोवियत संघ के बिखराव को रोकने में नाकाम रहे थे।
रूस की समाचार एजेंसियों ने कल एक अस्पताल के हवाले से खबर दी कि गोर्बाचेव नहीं रहे हैं। बताया गया कि गत जून माह में उन्हें गुर्दे की गंभीर बीमारी थी, जिसके इलाज के लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
मॉस्को में क्रेमलिन के प्रवक्ता ने वक्तव्य जारी करके कहा है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने सोवियत राजनेता के निधन पर अपनी गहरी संवेदना व्यक्त की है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिकी फिल्म अभिनेता और राजनीतिज्ञ आरनॉल्ड ने भी गोर्बाचेव की मृत्यु पर दुख जताते हुए ट्वीट किए हैं। दुनिया के अनेक नेताओं ने इस खबर को दुखद बताते हुए अपनी संवेदनाएं व्यक्त की हैं।
1980 के दशक में अपने तत्कालीन अमेरिकी समकक्ष रोनाल्ड रीगन के साथ गोर्बाचेव के करार, विशेष तौर पर आइसलैंड में 1986 के ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन का श्रेय उन्हीं को जाता है, जिसने अंततः परमाणु हथियारों पर एक बड़ी कामयाबी पाई थी।
गोर्बाचेव 1985 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने थे। तब उनकी उम्र 54 साल थी। उनकी राजनीतिक तथा आर्थिक स्वतंत्रता लागू करने की महत्वाकांक्षा बहुत प्रभावी साबित हुई थी। गोर्बाचेव की ‘ग्लासनोस्त’ यानी खुलकर बोलने की नीति काफी मशहूर हुई। इसी की वजह से कम्युनिस्ट पार्टी और सरकार की आलोचना को जगह मिली थी। कहते हैं, इसी नीति ने सोवियत गणराज्यों के राष्ट्रवादियों के अंदर आजादी की लौ जलाई थी।
इसी तरह आर्थिक क्षेत्र में एक बड़े बदलाव को लाने के पीछे थी उनकी नीति ‘पेरेस्त्रोइका’ यानी “पुनर्गठन” । कभी-कभी यही सोवियत संघ के विघटन, पूर्वी यूरोप में 1 9 8 9 की क्रांति, और शीत युद्ध के अंत का एक महत्वपूर्ण कारण मानी जाती है। 1989 में पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन शुरू हुए तो उन्होंने बल प्रयोग से दूरी बनाकर रखी थी। नतीजा यह हुआ कि आगामी दो साल के अंदर सोवियत संघ में दरारें आईं और ये बिखर गया। उसमें से 15 गणराज्य निकले।
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