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होम भारत

मूर्च्छा से बाहर निकलने का अवसर

राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम्। संघ के स्वयंसेवक इसी देश के लोग हैं। लिहाजा यह भारत का अपना प्रयास था। विस्मृतियों और मूर्च्छित स्मृतियों के दौर में इन प्रयासों को कभी जनता के सामने लाने का वैसा प्रयास नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। आजादी का अमृत महोत्सव एक स्वर्णिम अवसर है जब भारत अपनी इस शक्ति को समझे, पहचाने और उसके अनुरूप देश को सबल और सक्षम बनाने का प्रयास करे

by हितेश शंकर
Aug 30, 2022, 04:51 pm IST
in भारत, सम्पादकीय, आजादी का अमृत महोत्सव
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जब हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिली, तो साथ में एक विभाजित देश भी मिला और विभाजन की अति अमानवीय विभीषिका भी मिली। उस घटना के 75 वर्ष बाद आज हम उस स्थिति में पहुंचे हैं, जब हम दोनों पहलुओं पर एक साथ विचार कर रहे हैं। वास्तव में यह विचार करना भी अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना है। देश पराजित क्यों हुआ, विभाजित क्यों हुआ और इतने वर्षों तक मूर्च्छित क्यों बना रहा-यह तीनों पहलू इस अमृत महोत्सव के साथ विभाजन की विभीषिका को स्मरण करने पर सामने आते हैं।

 

आजादी का अमृत महोत्सव और विभाजन की विभीषिका—इन दोनों पक्षों को एक साथ समझने और महसूस करने का अवसर आज हमारे सामने है। जब हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिली, तो साथ में एक विभाजित देश भी मिला और विभाजन की अति अमानवीय विभीषिका भी मिली। उस घटना के 75 वर्ष बाद आज हम उस स्थिति में पहुंचे हैं, जब हम दोनों पहलुओं पर एक साथ विचार कर रहे हैं।
वास्तव में यह विचार करना भी अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना है। देश पराजित क्यों हुआ, विभाजित क्यों हुआ और इतने वर्षों तक मूर्च्छित क्यों बना रहा-यह तीनों पहलू इस अमृत महोत्सव के साथ विभाजन की विभीषिका को स्मरण करने पर सामने आते हैं।

 

वास्तव में जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ देने में ही अपनी भलाई समझी थी, तब उन्होंने यह निर्णय भी साथ ही कर लिया था कि इस देश को सतत विखंडन की प्रक्रिया में डाल देना है और उसे एक ऐसी नितांत नि:शक्त स्थिति में ला छोड़ना है, जिसमें वह उस प्रक्रिया का प्रतिकार या प्रतिरोध भी ना कर सके। जैसे जिसे हम आज ट्रांसफर आफ पॉवर कहते हैं, वह वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे सिर्फ नगर म्युनिसिपल पावर्स का ट्रांसफर हुआ हो।

तिब्बत को लेकर चीन से ब्रिटिश सरकार की क्या बातचीत चल रही थी, वह किस स्थिति में पहुंची थी, चीन से क्या सौदा हुआ था और सीमा रेखा का निर्धारण किस प्रकार होना था -इस प्रक्रिया को न केवल अधूरा छोड़ा गया, बल्कि उसकी सूचना भी स्वतंत्र भारत की सरकार को हस्तांतरित नहीं की गईं। इस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत ने भारत को एक नासूर उसकी उत्तरी सीमा पर दे दिया। सिर्फ चीन सीमा विवाद ही नहीं, अंग्रेजों ने सैनिक क्षमताओं और लक्ष्यों को लेकर किसी भी महत्वपूर्ण पक्ष को भारतीयों के साथ साझा नहीं किया। शायद यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि अंग्रेजी सत्ता के इरादे उनकी औपनिवेशिक सोच के अनुरूप थे। लेकिन सैनिक शक्ति के सूत्रों का भी हस्तांतरण न करना अपने-आप में उनका निहित औपनिवेशिक इरादा बताता है।

देशी राजाओं के विलीनीकरण का सवाल ना केवल अधूरा छोड़ा गया बल्कि उसे अनिर्णय की स्थिति में छोड़कर देश को
एक नितांत चुनौतीपूर्ण स्थिति में ला दिया गया। इतना ही नहीं, विभाजन के साथ-साथ हमें कई और नासूर मिले, जिनको बाद में पाकिस्तान ने संभवत ‘डेथ बाय थाउजेंड कट’ के तौर पर पहचाना। यह भी स्वाभाविक था, क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत ने पाकिस्तान का निर्माण कराया ही इसलिए था, जिससे भारत को लगातार परेशान किया जा सके।

अंग्रेजों ने वसूली स्वतंत्रता की कीमत
अंग्रेजी हुकूमत ने विभाजन की या भारत को मिली स्वतंत्रता
की कीमत किस तरह वसूली, इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।

  •  उदाहरण के लिए हमें उस ढंग की राजसत्ता दी गई, जो भारत को न तो जरा भी शक्ति देती थी और ना भारत की प्रकृति के अनुरूप थी।
  •  उदाहरण के लिए हमें उस तरह का इतिहास दे दिया गया जिसका अपना तो कोई ओर-छोर था नहीं, लेकिन भारत में बौद्धिक भ्रम पैदा करने के लिए वह काफी था- जैसे आर्यों के आक्रमण की कहानी।
  •  उदाहरण के लिए हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता को हमेशा के लिए कमजोर करने की बौद्धिक व्यवस्था बना दी गई।
  • उदाहरण के लिए ऐसे कृत्रिम विचारों को हमें आधुनिकता और बौद्धिकता के तौर पर परोसा गया, जो विश्व में कहीं भी मान्य थे ही नहीं।
  • उदाहरण के लिए झूठ और कपट की इतनी मोटी परत हमारी आंखों पर बांधी गई, जिसके परिणामस्वरूप हम काफी समय तक भटकते ही रह गए।

एक बहुत संक्षिप्त-सा उदाहरण जॉन स्टुअर्ट मिल का है, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी थे। जे. एस. मिल अंग्रेजी साम्राज्यवाद के बहुत बड़े पैरोकार थे, उसे वैचारिक आधार देने की कोशिश करते थे, लेकिन भारत के पाठ्यक्रम उन्हें एक उदारवादी रूप में चित्रित करके छात्रों के गले उतारने की कोशिश करते थे।

यानी जिस व्यक्ति को एक महत्वपूर्ण भारतविद् कहकर प्रस्तुत किया गया, वह व्यक्ति भारत के बारे में सिर्फ सुनी-सुनाई बातें जानता था।
उदाहरण के लिए जिस कार्ल मार्क्स ने भारत के सतत विखंडन की वकालत की, जिसने भारत के इतिहास को खारिज करने की चेष्टा की, वह न तो कभी भारत आया था, न भारत के बारे में कुछ जानता था और न ही उसने भारत के बारे में कुछ कभी पढ़ा-लिखा था।
ये वे चुनौतियां या व्यूह थे, जो हमें सतत मूर्च्छित अवस्था में बनाए रखने के लिए रचे गए थे।

चर्च की भूमिका
जब हमने विभाजन की विभीषिका को समझने की कोशिश की, तो एक-एक कर ऐसे कई विचित्र पहलुओं का साक्षात्कार हुआ, जिन्हें संभवत: कम ही लोग जानते होंगे। जैसे डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारत में और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चर्च की भूमिका के बारे में कहा था कि भारत के ईसाइयों के लिए ईसा एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में यूनियन जैक लिया हुआ एक श्वेत देवता है।
इसी प्रकार एक अन्य छोटा, महत्वपूर्ण लेकिन कम जाना गया तथ्य है भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत के मतान्तरित ईसाइयों की भूमिका। इतिहासविद् भी गाहे-बगाहे यह बात उठाते हैं कि शायद ही आधा दर्जन ईसाइयों ने भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया हो। तथ्य अखर सकता है मगर अखरने से ज्यादा यह झकझोरने वाली बात है।

यह कहानी 1947 में खत्म नहीं हुई। जब हम नियोगी आयोग की रिपोर्ट पढ़ते हैं तब हमें पता चलता है कि देश के पूर्वोत्तर राज्यों में अराजकता, आतंकवाद और पृथकतावाद का संचालन वही चर्च कर रहा था, जिस चर्च की मदद से पूर्वोत्तर के राज्यों में सरकारें बना करती थीं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के सामने चुनौती कितनी भीषण थी।

मुस्लिम पृथकतावाद
मुस्लिम पृथकतावाद की नींव खुद अंग्रेजों ने रखी। इसी प्रकार एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णायक और कम जाना जाने वाला तथ्य यह है कि भारत में मुस्लिम पृथकतावाद की नींव खुद अंग्रेजों ने रखी थी। सारी कहानी उन्होंने गढ़ी थी, आगा खान जैसे कुछ लोगों को झांसे में लेकर उनके मुंह से कुछ बातें कहलवाई गईं और इस तरह से इस्लामी पृथकतावाद की जमीन तैयार की गई। यह काम न तो विश्व युद्ध के दौरान हुआ था, न आजादी की लड़ाई के दौरान। यह काम तो तभी कर लिया गया था जब अंग्रेजी हुकूमत अपने चरम पर थी। लॉर्ड मिंटो से भी पहले डफरिन ने भारत में मुसलमानों को एक पृथक राजनीतिक शक्ति के तौर पर उठ खड़े होने के लिए उकसाने की नीति रखी थी, जिसे अंतत: लिनलिथगो, चर्चिल, वेबेल और माउंटबेटन ने साकार किया।

कितना वीभत्स इतिहास है कि 1905 और 1906 में रचे गए षड्यंत्र को 1923 में खुद मुस्लिम नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था। यह तो कठपुतली का वह तमाशा था जिसकी डोर अंग्रेजों के हाथ में थी। कोई संदेह नहीं कि यूरोप में हुए युद्धों ने, जिन्हें विश्व युद्ध कहा जाता है, और विशेषकर तुर्की की स्थिति ने मुस्लिम सांप्रदायिक पृथकतावाद को नई जान दी। लेकिन अंग्रेजों का खेल यहां खत्म नहीं हुआ था। खुद अंग्रेज अच्छी तरह जानते थे कि जिसे वे ट्रांसफर आफ पॉवर करने जा रहे हैं, उसके पीछे वास्तव में कोई पॉवर नहीं है। भारत की सैन्य शक्ति काफी समय तक स्वतंत्र भारत की सरकार के भी नियंत्रण में नहीं थी। भारत की आर्थिक शक्ति काफी समय तक इस तरह की उलझनों में उलझाई जाती रही कि भारत हमेशा विदेशियों की तरफ आतुर और कातर निगाहों से देखता रहा। यहां तक कि स्वतंत्र भारत की राजनीतिक शक्ति को भी तरह-तरह के बंधनों में बांधकर कमजोर बनाए रखा गया।

षड्यंत्रों को समझने की जरूरत
आजादी का अमृत महोत्सव और विशेषकर विभाजन की विभीषिका को अभी कई अध्याय पूरे करने हैं। इन अध्यायों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भारत अपने विरुद्ध किए गए षड्यंत्रों को लेकर जागरूक हो, उनका प्रतिकार करना सीखे और उसके लिए जरूरी है कि इन षड्यंत्रों की गाथा भारत के जन-जन तक पहुंचे। कई इतिहासकारों ने इसका प्रयास अतीत में भी किया है और निश्चित रूप से वह अनुकरणीय भी है, लेकिन विषय को आम लोगों तक पहुंचाने का जैसा प्रयास विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस के तौर पर सामने आता है, वह वास्तव में मानसिक दासता से बाहर निकलने की एक और लड़ाई है। अगर भारत को अपने औपनिवेशिक अतीत के दंश से मिले दंशनों की भरपाई करनी है तो उसे इन षड्यंत्रों को गहराई से जानना-समझना ही होगा।

ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों की इस बदनीयत को कोई जानता-समझता ही नहीं था। कई विद्वानों ने उस समय भी टोका था और कई इतिहासकारों ने बाद में भी टोका था। और भारत की जनता का कम से कम एक छोटा सा वर्ग ऐसा सदैव था जो इस पूरे खेल को अच्छी तरह समझ रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे लोगों की लिए एक मंच और संगठन के तौर पर सामने आया था।
वास्तव में अखंड भारत की परिकल्पना अपने-आप में भारत विभाजन की साजिशों को पूरी तरह नकारने की जिजीविषा थी। और वह जिजीविषा आज भी जारी है।

जब विभाजन अपने भौतिक रूप में सामने आया और उसकी जो पीड़ा निरीह नागरिकों को झेलनी पड़ी, उस पीड़ा पर मरहम लगाने, उस पीड़ा को कम से कम करने और उससे बचाव करने जैसे अनेक प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किए। यह अपने-आप में एक इतिहास है। राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम्। संघ के स्वयंसेवक इसी देश के लोग हैं। लिहाजा यह भारत का अपना प्रयास था। विस्मृतियों और मूर्च्छित स्मृतियों के दौर में इन प्रयासों को कभी जनता के सामने लाने का वैसा प्रयास नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था। आजादी का अमृत महोत्सव एक स्वर्णिम अवसर है जब भारत अपनी इस शक्ति को समझे, पहचाने और उसके अनुरूप देश को सबल और सक्षम बनाने का प्रयास करे।

@hiteshshankar

Topics: विभाजन की विभीषिकासंघ के स्वयंसेवकअंग्रेजी साम्राज्यवादमुस्लिम पृथकतावादविस्मृतियों और मूर्च्छित स्मृतियोंआजादी का अमृत महोत्सव
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