मदनलाल मुखी
नौसारा, डेरा गाजीखान, पाकिस्तान
उन दिनों बदलते माहौल को लेकर हिंदू दहशत में रहते थे। इससे मुक्ति कैसे मिले, इस पर विचार करने के लिए 1947 के उस दिन मेरे गांव (नौसारा, डेरा गाजीखान) के आर्य समाज मंदिर में एक बैठक चल रही थी। मेरे पिताजी गांव के मुखिया थे।
वही बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। मैं भी उनके साथ था। बैठक के दौरान ही एक युवक आया। उसने कहा कि मैं संघ का स्वयंसेवक हूं, एक विशेष सूचना देने के लिए आया हूं। फिर उसने कहा कि सूत्रों से पता चला है कि आज रात मुसलमान इस गांव पर हमला करने वाले हैं।
इसलिए आप लोग जितनी जल्दी हो, यहां से और कहीं चले जाएं। इसके बाद बैठक समाप्त कर दी गई और सभी लोग गांव के अन्य लोगों को यह सूचना देने के साथ-साथ पलायन की तैयारी करने लगे। जो जिस कपड़े में था, उसी में निकल पड़ा। लगभग डेढ़ मील दूर दाजल कस्बा था।
हम सभी वहां पहुंचे। सच में रात में हमारे गांव पर मुसलमानों ने हमला किया। उन्होंने सभी घरों को लूटा और बाद में आग लगा दी। हमारे गांव के जितने भी लोग अब जिंदा हैं और कहीं भी रह रहे हैं, संघ और उस स्वयंसेवक के आज तक ऋणी हैं। इधर दाजल में भी हमले की आशंका दिख रही थी। इसलिए दाजल के हिंदुओं के साथ हम सभी ने अपनी रक्षा की तैयारी की।
हम सभी कई गुटों में बंट गए और रात में मोर्चा संभाल लिया। कढ़ाही में तेल गर्म करके ऐसी जगह रखा गया कि जरूरत पड़ने पर उसे हमलावरों पर फेंका जा सके। आगे की पंक्तियों में बड़ों को रखा गया। फिर नौजवानों की टोल तैनात की गई। सबसे पीछे महिलाओं को रखा गया। संयोग से देर रात सेना की एक टुकड़ी आ गई और हम पर हमला नहीं हुआ।
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