जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने एक दशक पहले बंद हो चुकी ”नाड़ीमर्ग नरसंहार केस” की फाइल को फिर से खोलने का आदेश दिया है। मार्च 2003 में लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने पुलवामा में 24 कश्मीरी हिंदुओं की बेरहमी से हत्या कर दी थी।
उच्च न्यायालय के निर्णय के पश्चात हिंदुओं के नरसंहार में संलिप्त जीवित अपराधियों को न्याय के कठघरे में खड़ा किया जाएगा। नरसंहार मामले में कश्मीरी हिंदुओं को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को बड़ी राहत मिली है।
रामकिशन धर वर्ष 2018 में एक अंग्रेजी पत्रिका को बताते हैं कि, “बगल वाली मस्जिद से पंडितों और भारत के खिलाफ ऊंची आवाज में नारे लगने शुरू होते ही हम समझ जाते थे कि हमारा यहां से जाने का समय आ गया है।” ऐसा 1989 से लगातार होता रहा और आज जम्मू-कश्मीर हिंदुओं से लगभग खाली हो चुका है। साल 1994 तक 2 लाख और 2003 तक विस्थापितों की संख्या 3 लाख से भी ऊपर चली गयी। इस साल तक वहां मात्र 7823 हिंदू बचे थे। नाड़ीमर्ग नरसंहार के बाद इन बचे हुए हिंदुओं के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा। आज इनमें से भी अधिकतर अपने ही देश में शरणार्थी बन गए हैं।
शोपियां जिले में नाड़ीमर्ग (अब पुलवामा में) एक हिंदू बहुल गांव था, जिसकी कुल आबादी मात्र 54 थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के पैतृक गांव से 7 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में 23 मार्च, 2003 की रात सब तबाह हो गया। उस दिन 7 आतंकी गांव में घुसे और हिंदुओं को चिनार के पेड़ के नीचे इकठ्ठा करने लगे। रात 10 बजकर 30 मिनट पर इन आतंकियों ने 24 हिंदुओं की गोली मार कर हत्या कर दी। गौर करने वाली बात है कि 23 मार्च को पाकिस्तान का राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है।
मरने वालों में 70 साल की बुजुर्ग महिला से लेकर 2 साल का मासूम बच्चा भी शामिल था। क्रूरता की हद पार करते हुए एक दिव्यांग सहित 11 महिलाओं, 11 पुरुषों और 2 बच्चों पर बेहद नजदीक से गोलियां चलायी गयी। कुछ रिपोर्ट्स का दावा है कि प्वाइंट ब्लैंक रेंज से हिंदुओं के सिर में गोलियां मारी गयी थीं। आतंकी यहीं नहीं रुके उन्होंने घरों को लूटा और महिलाओं के गहने उतरवा लिए। न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार ने इस घटना का जिम्मेदार ‘मुस्लिम आतंकवादियों’ को बताया। अमेरिका के स्टेट्स डिपार्टमेंट ने भी इसे धर्म आधारित नरसंहार माना था।
आतंकियों को मदद पड़ोस के मुस्लिम बहुल वाले गांवों से मिली थी। उस दौरान जम्मू-कश्मीर पुलिस के इंटेलिजेंस विंग को संभाल रहे कुलदीप खोड़ा ने भी कहा कि बिना स्थानीय सहायता के नाड़ीमर्ग नरसंहार को अंजाम ही नहीं दिया जा सकता था। नरसंहार के चश्मदीद बताते हैं कि आतंकियों ने हिंदुओं को उनके नाम से पुकारकर घरों से बाहर निकाला था। यानि वे पहले से ही इस योजना पर काम कर रहे थे। आतंकियों ने गांव का दौरा किया हो, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकरण में राज्य सरकार की भूमिका भी संदेह वाली बनी रही। उस इलाके की सुरक्षा में लगी पुलिस को हटा लिया गया था। घटना से पहले वहां 30 सुरक्षाकर्मी तैनात थे, जिनकी संख्या उस रात को घटाकर 5 कर दी गयी।
अगले ही महीने इस नरसंहार में शामिल एक आतंकी जिया मुस्तफा को गिरफ्तार कर लिया गया। पाकिस्तान के रावलकोट का रहने वाला यह आतंकी लश्कर-ए-तैयबा का एरिया कमांडर था। उसने जांच के दौरान बताया कि लश्कर के अबू उमैर ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था। मुस्तफा के मुताबिक वह उन बैठकों का हिस्सा रहा, जहां देश भर के हिंदू मंदिरों पर आतंकी हमले की योजना बनायी गयी थी। उसने एजेंसियों को बताया कि वे सभी पाकिस्तान के संपर्क में थे। वहां से उन्हें कहा गया था कि जिहाद के लिए 6 आतंकियों को दिल्ली और गुजरात में मुस्लिम युवाओं के बीच भेजना है। सितम्बर 2001 में सीमा पार से मुस्तफा कश्मीर घाटी में घुसा था। वह दूसरे 6 आतंकियों के साथ पुलवामा के आसपास आतंकी गतिविधियों को अंजाम देता था।
मुस्तफा स्थानीय लोगों से संपर्क कर लश्कर में भर्ती होने के लिए युवाओं को उकसा रहा था। हथियारों और वायरलेस के अलावा उसके पास से कुछ दस्तावेज भी बरामद किये गए। उनसे पता चला कि उसे पैसा पाकिस्तान से मिलता था। इस गिरफ्तारी ने पाकिस्तान के उन दावों की पोल खोल दी, जिसमें वह भारत में आतंकी गतिविधियों में अपना हाथ होने से इनकार करता रहा है। अमेरिका में तत्कालीन असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट्स (दक्षिण एशिया), क्रिस्टीना रोक्का ने भी चेतावनी देते हुए कहा कि पाकिस्तान को उसकी जमीन से संचालित आतंकवाद को रोकने के हरसंभव प्रयास करने चाहिए। नाड़ीमर्ग नरसंहार के सभी आतंकी पाकिस्तान से ही आए थे। इसकी पुष्टि बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स को 18 अप्रैल, 2003 को मिली एक सफलता से हो गयी. मुस्तफा के खुलासे के बाद बीएसएफ ने कुलगाम में तीन आतंकियों को मार गिराया। उनमें से एक आतंकी मंजूर ज़ाहिर था जो नरसंहार के साथ अक्षरधाम मंदिर हमले में भी शामिल था. लाहौर का रहने वाला मंजूर लश्कर के लिए काम करता था।
नाड़ीमर्ग नरसंहार के बाद जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं के मन में बैठ गया कि वे राज्य में सुरक्षित नहीं हैं। बीते दशकों में उनके पुनर्वास की कोई ठोस योजना नहीं बनाई गयी। भारत के उच्चतम न्यायालय से भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली। चूँकि यह मामला 27 साल पुराना है, इसलिए न्यायालय इस पर सुनवाई नहीं कर सकता। मात्र यह कहकर 2017 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने हिंदुओं की घाटी में वापसी पर दायर पीआईएल को खारिज कर दिया। वहां हिंदुओं का नरसंहार तो किया ही गया, उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित भी किया गया। उनके घर सस्ते दामों में स्थानीय मुसलमानों को बेच दिए गए। मसलन जिस हिंदू के घर को 2.5 लाख में बेचा गया, अगर उसकी जगह वह किसी मुसलमान का होता तो उसकी कीमत 8 लाख होती।
यह आतंकवाद के साथ साम्प्रदिकता का विचलित करने वाला एक उदाहरण है। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक असंवेदनशीलता का यह वह रूप है, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। जम्मू-कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा गया, वह खुले तौर पर वहां एक नहीं बल्कि कईं नरसंहारों को अंजाम दिया गया। इन मामलों पर कभी कोई कार्रवाई नहीं की गयी। जिन परिवारों ने नाड़ीमर्ग नरसंहार का दर्द झेला वह किन स्थितियों में हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं है, उम्मीद है कि लगभग बंद हो चुके न्याय के रास्ते एक दिन खुलेंगे और जम्मू-कश्मीर फिर से हिंदुओं से आबाद होगा।
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